किसी काल में गौतम बुद्ध ने कहा था कि हे ब्राम्हण तुम बाहर की ज्योति जलाते हो ,मैं अन्तर की ज्योति प्रज्वलित करता हूँ | इस महापुरुष ने जिस व्यवस्था को 2600 वर्ष पहले स्थापित किया और जिसे भारत ने उन दिनों सुदूर एशिया के प्रांतों तक फैलाया वह व्यवस्था स्वतन्त्र भारत के राजनीतिज्ञों की सत्ता लिप्सा के कारण स्वतन्त्रता के बाद कभी मूर्ति रूप नहीं प्राप्त कर सकी | मैं स्वयं कभी -कभी अपने से लड़ता हूँ और यह लड़ाई दशकों से मेरे भीतर भिन्न -भिन्न प्रकार से जीत और हार के नये -नये परिद्रश्य उपस्थित करती रही है | मैं नहीं जानता कि मैं ब्राम्हण हूँ तो क्यों हूँ ? या क्षत्रिय हूँ तो क्यों हूँ ? मेरी सारी मान्यतायें उधार ली हुयी हैं | मेरा यह सारा मानना मेरे ऊपर आरोपित है | जो मेरे अपने हैं ,जो मेरे जीवन का नितान्त निजी अनुभव है वह यह है कि मैं अभी तक सच्चा इन्सान नहीं बन सका हूँ | प्रत्येक राजनीतिक परिवर्तन और प्रत्येक आन्दोलन मैं अपने व्यक्तिगत हित या अहित से जोड़कर देखता रहा हूँ ,चाहिये यह था कि मैं इन परिवर्तनों को सम्पूर्ण राष्ट्रीय या समग्र मानव जाति के परिप्रेक्ष्य में रख कर देखता | इस दिशा में मैनें अंथक प्रयास किये हैं और कर रहा हूँ पर ऐसा लग रहा है कि मनोवृत्तियों पर विजय पाना मेरे लिये असम्भव सा हो गया है | बढ़ती उम्र के साथ मुझमें थोड़ी -बहुत ऐसी हिम्मत तो आ गयी है कि मैं अपनी भूल को स्वीकार करूँ पर इतना आन्तरिक साहस मैं अभी तक नहीं बटोर सका हूँ कि मैं अपने को अपने ऊपर आरोपित सभी बन्धनों से मुक्त कर सकूं | इतिहास के अन्धकार में अतीत काल से लेकर आज तक प्रकाश के कुछ बिन्दु मुझे मार्ग दिखाते रहे हैं | बुद्ध और गांधी का दर्शन ऐसे ही प्रकाश बिन्दु हैं और ऐसी ही प्रकाश की थोड़ी बहुत आभा मुझे भारत के संविधान निर्माता बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर में भी देखनें को मिलती है | अपनें ब्राम्हण होनें के गर्व को त्यागकर मैं उन्हें सम्पूर्ण अन्तर श्रद्धा के साथ प्रणाम करता हूँ | | मैं फिर से मानवता के समग्रवादी जीवन दर्शन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराता हूँ | कौन जानें मेरे मन की कोई रहस्यमयी शक्ति मुझे वह शक्ति प्रदान कर सके जिसके बल पर मैं विश्व मानव कहा जा सकने का अधिकारी बनूँ | नरसी मेहता के शब्दों में मैं एक ऐसा विश्व मानव बनना चाहूंगा जो दूसरों की पीड़ा से अपने को परिशोधित कर उनके हित के लिये अपनें स्वार्थ का बलिदान कर सके | ' वैष्णव जन तो तेनें कहिये जो पीर परायी जाने रे | '
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