Sunday 24 September 2017

  1.                             मोक्ष ,निर्वाण ,कैवल्य या दिव्य समाधि की धार्मिक -दार्शनिक धारणायें जीवन सम्पूर्णता  को पाने का श्रेष्ठतम मानव प्रयास ही है | पूर्णत्व की संकल्पना विभिन्न सन्दर्भों में परिवर्तन के माध्यम से गुजरती रहती है | श्रष्टि संचालन के पीछे छिपे किसी दिव्य और रहस्यात्मक शक्ति की अवधारणा ने मनुष्य को उत्कर्ष के उर्ध्वगामी पथ पर संचालित कर पूर्णत्व प्राप्ति के लिये प्रेरित किया है | ऊंचाई की ओर ले जानें वाला यह मार्ग सराहनीय और चुनौती भरा तो है पर इसमें मानव अन्तर्मन में रमण कर अदभुत आनन्द पाने के सुअवसर भी प्राप्त होते हैं | शब्द को ब्रम्ह इसीलिये कहा गया है क्योंकि सार्थक पुकार पर ही परम प्रकृति अपना आश्रय देने के लिये प्रेरित होती है | इसीलिये प्राणवान शब्दशिल्पी स्वयं में किसी दिव्य रहस्य की संम्भावना छिपाये रहता है | वेद मन्त्र ,ऋषियों की ऋचायें और मुनियों के मन्त्र शब्द साधना के वे उच्चतर सोपान हैं जिन पर चढ़कर मानव प्रकृति नियमन के पीछे छिपे गूढ़ रहस्यों का आभाष पा जाता है | हम सभी जानते हैं कि जो जन्मा है वह जायेगा ही पर जानें का भय यदि निरन्तर मानव को ग्रसता रहे तो वह अकर्मण्यता की गोद में जा बैठता है | इसीलिये मृत से अमृत की ओर जानें की प्रार्थना करते हैं | मृत्यु के भय को भूल जाना मृत्यु पर विजय पाना है | भय जब पैनिक विचार बन जाता है तो हाँथ पाँव फुला देता है और बुद्धि बौनी हो जाती है | इसीलिये मृत्यु का भय शब्द ब्रम्ह की अमृत साधना के द्वारा सकारात्मक रूप ले लेता है और अपने जीवन काल में कुछ ऐसा करने के लिये प्रेरित करता है जो म्रत्युन्जय हो | काल के कपाल पर अकाल लेख लिखने की शक्ति जिन महापुरुषों में होती है वे ही मृत्यु की सर्वजयी विजय यात्रा को चुनौती दे पाते हैं |  'माटी ' इसी अमृत्व की भावना का प्रतीक है | वह सनातन है ,शाश्वत है ,कालजयी है और निरन्तरता का अमिट सूत्र है | कुम्भकार आते हैं , 'माटी ' को रचते संवारते हैं और पात्रों ,घटों तक श्रृंगारिकाओं का संयोजन करते हैं | पर घट ,पात्र ,खिलौनें और प्रतिकृतियां विनिष्ट हो जाती हैं पर 'माटी ' तो केवल रूप बदलती है | और इस द्रष्टि से आत्मा के अमृत्व का प्रतीक है | संम्भवतः कबीर के इस दोहे में सामान्य अर्थ के अतिरिक्त एक रहस्यमय पूर्ण  अर्थ भी निहित है | " माटी कहै कुम्हार से ,तू रौंदत है मोहि ,इक दिन ऐसा आयेगा , मैं रौंदूंगी तोहि |" पर इन असंख्य कुंम्भकारों में कुछ ऐसे शिल्पी भी हैं जिनके हांथों में पढ़कर माटी फूली नहीं समाती उन्हें वह रौंदती नहीं बल्कि चन्दन बनकर उन्हें  सुशोभित करती है और मानव इतिहास में उनकी विरासत को युगों -युगों तक पूज्य बना देती है | कब और कहाँ , कैसे और किस प्रक्रिया से ज्ञान -विज्ञान के क्षेत्र में कोई युगान्तरकारी प्रतिभा उभर आयेगी इसका उत्तर न तो अभी ज्योतिष दे पायी है और ना ही कोई विश्व की कोई दार्शनिक व्याख्या | यह अदभुत रहस्य ही तो मानव जाति को और संम्भवतः प्रत्येक संकल्पित परिवार को उत्कर्षता की ओर प्रेरित कर संघर्ष रत रखता है | कौन जानें कब कुल परम्परा में कोई भगीरथ आ जाय | 
  2.                                      ये सच है कि जन्मजात प्रतिभा पर रहस्यमय आवरण पड़ा रहता है पर यह भी सच है कि यदि जन्मजात प्रतिभा को परिमार्जित कर निखारने का प्रयास न किया जाय तो उसे उन ऊंचाइयों तक नहीं पहुंचाया जा सकता जिसकी संम्भावनायें उसमें छिपी होती हैं | साहित्य के क्षेत्र में या यों कह लें कि ललित कलाओं के क्षेत्र में शिक्षण और परिमार्जन एक प्रासंगिक आवश्यकता ही बन पाते हैं पर विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में उनकी सार्वभौम सार्थकता से इन्कार नहीं किया जा सकता  | और हमें यह भूलना नहीं चाहये कि विज्ञान ,नाभिकीय ,गणित और रहस्य भेदक तकनीक भी परम सत्य को पाने का प्रयास ही है | यही कारण है कि विश्व के सभी सभ्य देश शिक्षा की गुणवत्ता के प्रति अत्यन्त सचेत रहते हैं | प्राचीन भारत में उपनिषद काल में हम इस विशेषता का आश्चर्य जनक प्रसार और परिणाम देख पाते हैं | यही कारण है कि उस काल में उस समय के जानें गये ज्ञान -विज्ञान आयामों में भारत ने अपना अद्वितीय स्थान बनाया था फिर दिव्य ऊंचाइयों से फिसलन की प्रक्रिया प्रारंम्भ हुयी और फिर कुछ छोटे -मोटे काल के लिये किसी असाधारण व्यक्तित्व के आ जानें के कारण कुछ ठहराव भले ही दिखलायी पड़ा हो पर आखिरकार यह फिसलन हमें तलहटी तक ले आयी | पुनर्निर्माण और पुनर्जागरण की नयी श्रष्टि का आधार श्रेष्ठ शिक्षा का ढांचा ही प्रदान कर सकता है | स्वतंत्रता के प्रारंम्भ के दिनों में एक दो प्रतिशत उच्च शिक्षा प्राप्त भारतीय अपने को मात्र पाश्चात्य मूल्यों से ही मापते रहे | महात्मा गान्धी के प्रभाव ने उन्हें थोड़ा -बहुत देश की माटी के नजदीक खींच कर खड़ा किया पर गान्धी जी के महानिर्वाण के बाद हम फिर कृत्रिम सुगन्धों में सांस लेने के आदी हो गये | तकनीकी ज्ञान ,प्रद्योगकीय , नाभिकीय , प्रसारकीय और जैवकीय इन सभी क्षेत्रों में हमें भारत की उर्वरा धरती से जीवन्त तत्वों को लेकर उन्हें भारतीयता से महिमामण्डित करना है | ज्ञान -विज्ञान की यह  बहुमुखी विपुल -रूपा शाखायें हमारी अपनी माटी में जड़ें जमाकर जीवन रस पायें और हमारी अपनी समस्याओं का निदान करें यह हमारा प्रयास होना चाहिये | यदि भारत का पाश्चात्यीकरण हमें जीवन मूल्यों और संस्कारों से दूर हटाता है तो हमें उस पाश्चात्यीकरण का भारतीयकरण करना होगा | यह एक अत्यन्त दुष्कर कार्य है | | हमें इसके लिये गोपाल कृष्ण गोखले ,रवीन्द्र नाथ ,,जगदीश चन्द्र बसु ,सी ० वी ० रमन और अब्दुल कलाम जैसे अदभुत प्रतिभा और व्यक्तित्व सम्पन्न श्रेष्ठ पुरुषों की आवश्यकता है | भारतीय संस्कृति यह मानती है कि प्रभु कृपा के बिना सारे प्रयास प्रात्यासित सफलता तक नहीं पहुंचाते इसीलिये माटी प्रकृति के नियन्ता शक्तियों के प्रति नत-मस्तक होकर इस प्रयास में रत है कि वह श्रेष्ठता के परिवर्धन संशोधन में एक उत्तरदायी भूमका निभा सके न तो मानव पूर्ण है और न मानव के प्रयास पार अपनी अपूर्णता में ही पूर्णता के प्रति प्रयासरत रहना जीवन्त संस्कृति का लक्ष्य होता है | पाठकों , रचनाकारों और आलोचकों का त्रिकोणीय सहयोग ही माटी को एक ज्यामतीय आधार प्रदान कर सकेगा ऐसा मेरा विश्वास है |
  3.  
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                                                "Well begun is half done."जब द्रढ़  निश्चय के साथ चल पड़े तब देर -सबेर मन्जिल मिलेगी ही पर द्रढ़ निश्चय को पूरी तरह से माप -तौल लेना प्रत्येक व्यक्ति के सामर्थ्य में नहीं होता | हम सब कई बार मिथ्या बड़प्पन का भ्रम पाले रहते हैं | अपने भीतर की छोटी -मोटी सफलता पा लेने के बाद हम अपने को सराहते रहते हैं | स्वाभिमान शक्ति देता है पर मिथ्या अभिमान हमारी आन्तरिक शक्ति का अपव्यय है | हमें अपने साधारण होने पर हीन भाव का शिकार नहीं बनना चाहिये | सच पूछो तो साधारण होकर ही असाधारण की ओर बढ़ा जा सकता है | अपने जीवन के दैनिक सम्पर्क में हम भिन्न -भिन्न प्रकार के नर -नारियों के सम्पर्क में आते हैं | सच्ची सहजता एकान्त में ही होती है | | थोड़ी बहुत सहजता परिवार में भी बनी रहती है | पर ज्यों ही हम बाहर के सम्पर्क में आते हैं सहज रहने का केवल बहाना बन जाता है | हम असहज हो जाते हैं | अन्जानें ही न जानें कितनें मुखौटे हमें लगाने पड़ जाते हैं | महापुरुषों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वे हर स्थिति में सहज रहते हैं | उनके पास कई चेहरे नहीं होते | वे स्थिरता के आत्म सयंम से सजायी हुयी मनोभूमि पर खड़े रहते हैं | महान होना एक दुर्लभ उपलब्धि है | महानता का चोंगा पहन लेना बहुत कठिन नहीं है पर चोंगा तो चोंगा है कभी न कभी उतर ही जाता है | इसलिये उचित यही है कि हम जो हैं , जो हमारी स्वाभाविक सामर्थ्य है उसे हम सच्चे मन से स्वीकार करें यदि हम सामाजिक सेवा की बात करें तो अपना निजी स्वार्थ उसमें शामिल न करें | प्रशंसा की अभिलाषा भी एक निजी स्वार्थ ही है | अपना दुःख तो सभी झेलते हैं पर दूसरे के दुःख का हिस्सेदार होना ही बड़ा होना है | सन्त हृदय की बात करते हुये गोस्वामी जी लिखते हैं -" सन्त हृदय नवनीत समाना ,कहा कविन पर कहबन जाना | निज परिताप द्रवय नवनीता ,पर दुःख द्रवै सन्त सुपुनीता || "
                                                     सामान्य लोगों का ख्याल है कि सन्त होना सरल है पर नेता होना कठिन | शायद वे ऐसा इसलिये सोचते हैं कि सन्त होने के लिये व्यक्ति को अपने मन पर अधिकार करना होता है जबकि नेता होने के लिये उसे दूसरों को भ्रमजाल में फंसाना होता है | सामान्य व्यक्ति की यह सोच ठीक ही है क्योंकि सीधे -साधे पन में वह समझता है कि अपने मन पर अधिकार पाना तो अपनी एक निजी बात है पर दूसरों के मन पर भ्रामक जाल फैलाना एक चमत्कारी काम है | पर है ठीक इसके उल्टा | सुहावना झूठ बोलना कोई बहुत बड़ी कला नहीं है इसके लिये केवल एक बात की आवश्यकता है आप इन्सान के चोले में गिरगिट बन जाइये ,हर मौसम में रंग बदलिये , हर पृष्ठभूमि में छिपकर अद्रश्य रूप से अपना आहार तलाशिये | पर अपने मन पर अधिकार करना योग की सबसे विरलतम उपलब्धि है | यह चरम उपलब्धि तो संसार के बहुत थोड़े से महापुरुषों के भाग्य में लिखी होती है | 
                                   अब इन दोनों परिस्थितियों के बीच एक और परिस्थिति है | समाज में रहकर हम गुहाओं ,कन्दराओं या वन प्रान्तरों में रहने वाले तपस्वियों की जीवन पद्धति का अनुसरण नहीं कर सकते | जीवन चलाने के लिये कुछ उद्योग करना होता है , कुछ सामाजिक गाँठ -जोड़ , कुछ थोड़ा सा मिला -जुला झूठ -सच | यह कहना कि हमनें जीवन भर गल्ती ही नहीं की है जीवन की सच्चायी से इन्कार करना है | मानव शरीर पाया है तो सामाजिक जीवन जीनें और समाज के स्वीकृत मापदण्डों पर खरा उतरने के लिये कुछ ऐसा भी करना पड़ जाता है जो हमें अपने भीतर अच्छा नहीं लगता | कई बार कुछ अरुचिकर भी करना पड़ता है , कई बार हम किसी से मिलना नहीं चाहते फिर भी मिलना पड़ता है ,कई बार हम किसी का स्वागत नहीं करना चाहते फिर भी स्वागत करना पड़ता है | कई बार गल्ती दूसरे की होती है पर भूल हमें स्वीकार करनी पड़ती है पर जीवन व्यापार में यह सब करके भी जब तक हमें अपने भीतर ग्लानि न उठने लगे अपने को छोटा नहीं समझना चाहिये हाँ ऐसी कोई बात या व्यवहार या अनुचित आचरण जो आपके मन में स्वयं के प्रति तिरस्कार पैदा कर दे उसे सर्वथा त्याग देना होगा | ग्रृहस्थ होकर भी सन्तों के रास्ते पर चलने का यही एक सीधा ,सरल और सपाट मार्ग है | मंजीर बजानें और मशीनी ढंग से होठ हिलानें से मन में उच्च वृत्तियों का संचार हो जायेगा ऐसा सोचना बेमानी है | मैं जानता हूँ कि ' माटी ' के पाठक भारत के उस कोटि -कोटि जनसमुदाय का भाग हैं जो अपनी ईमानदारी की वृत्ति से अपने शारीरिक या मानसिक परिश्रम से जीवन -यापन के साधन अर्जित कर उर्ध्वगामी विचारों की वायु में सांस लेना चाहते हैं | गलीज का कोई भी स्पर्श उन्हें ग्लानि से भर देता है | वे महामानव बनने का स्वप्न नहीं पाले हुये हैं पर वे मानव होकर भ्रष्ट होने का अपावन धब्बा भी अपने दामन से दूर रखना चाहते हैं | ऊपर कही हुयी छोटी -मोटी सीखें और अनुभवों की अभिव्यक्तियाँ हमारे ऐसे सदाशयी पाठकों के विचारार्थ ही प्रस्तुत की गयी हैं | ' माटी ' अपने पन्नों में यह दावा करे कि उसमें पैगम्बरी सन्देश है या उसमें युग निर्माण की क्षमता है ऐसा कहना उसे बड़बोलापन लगता है | ' माटी ' का विस्तार अपार है ,धरती विपुला है ,जीवन संकुला है ," माटी " परिवार तो अपनी छोटी -मोटी खुर्पियों से खर -पतवार की निरायी करने में लगा है ,शायद इस खर -पतवार के बीच कोई ऐसा बीज छिपा हो जिससे एक जीवनदायी वृक्षावली का प्रारम्भ हो जाय , हमारे प्रयत्नों की असफलता हमें कभी भी इतना हतोत्साहित नहीं करेगी कि हम प्रयत्न करना छोड़ दें पर जो भी आंशिक सफलता मिलेंगी  उसका श्रेय 'माटी ' के पाठकों को ही जायेगा , मेरा व्यक्तिगत अहंकार उनके योगदान की महत्ता की स्वीकृति की राह में कभी बाधा बनकर नहीं खड़ा होगा |
     

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