Friday 22 September 2017

                                                   अपरिमेय घनत्व में सम्पुजित परमाणु प्रकाश बिम्ब अपने वर्तुल चक्र परिधि में कब और कैसे महानतम विस्फोट की ऊर्जा पल्लवित कर उठा इसे शायद कोई नहीं जानता | भले ही ब्रम्हाण्ड विद इसकी परस्पर विरोधी व्याख्याओं से जूझते रहे हैं | महाविस्फोट के बाद भी अकल्पनीय विस्तरण की जिस प्रक्रिया का सूत्रपात हुआ उसके विषय में भी कोई निश्चित अवधारणा अभी तक ब्रम्हाण्ड विशेषज्ञों ने नहीं दे पायी है | जिस एक बात पर सभी का मतैक्य है वह है काल की गणितीय परिधि से बाहर कालातीत परिभ्रमण प्रक्रिया में काल का प्रवेश | ब्रम्हाण्ड विस्फोट के साथ ही उसका विस्तारीकरण और उस विस्तारीकरण के साथ ही समय की परिगणना का प्रारंम्भ | आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर हाकिन्स काल गणना की शुरुआत ब्रम्हाण्डीय विस्फोट से जोड़कर देखते हैं | पर यह गणना भी संख्याओं में बंध नहीं पाती उसे प्रतीकात्मक रूप से प्रकाश वर्षों में बांधा जाता है | विज्ञ पाठकों को यह बताने की जरूरत नहीं है कि ग्रहों और सितारों की दूरी प्रकाश वर्षों में भी नापी नहीं जा सकती | काल के इस अनन्त विस्तार में अरबों , करोणों और लाखों वर्षों की दौड़ का भी कोई महत्व नहीं होता |
                                    पर मानव जीवन अपनी उत्पत्ति के साथ ही अपने विनाश की अवधि का मापदण्ड भी लेकर आया था इसलिये मानव जीवन की कालगणना में एक वर्ष का महत्व भी चर्चा का विषय बन जाता है | भारतीय जनतन्त्र में केन्द्र में सत्ता परिवर्तन का समय संवैधानिक आधार पर पांच वर्ष के बाद आता है पर संवैधानिक आधार क्षतिग्रस्त हो जानें पर पांच वर्ष के पहले भी अस्थिरता का आभाष होने लगता है | इन मापदण्डों को आधार मानकर हम इस बात से आश्वस्त हो जाते हैं कि हमनें सभी संकटों से जूझकर 'माटी ' को दस वर्षों तक निरन्तर गतिमान रखा है और अब भी हमारे निश्चय की द्रढ़ता अखण्ड रूप से हमें उद्दीपन भरा शक्ति आसव पिलाती रहती है |
                               इन दस वर्षों में जिन प्रबुद्ध ,लब्ध प्रतिष्ठ और बाजारू संस्कृति से मुक्त कृतिकारों ,आलोचकों ,विम्बधरों और नाभिकीय कल्पना पंखों पर आदर्श आरोहण में रत चिन्तकों और पाठकों ने हमें सहयोग दिया है उनका मैं धन्यवाद तो करता ही हूँ साथ ही  अपना मान और मुखर नमन भी उन्हें समर्पित करता हूँ |
                                   मैं तो अपने में छिंगुनी का बल भी नहीं पाता पर छिंगुनी में यदि पवनपुत्र की कृपा द्रष्टि हो जाय तो उनकी ऊर्जा के अवतरण से वह मुझको उठा भी सकती है | ' माटी ' की निरन्तरता का श्रेय मुझको न जाकर उन सहस्त्रों सहयोगियों को जाता है जिनका समर्थन मुझ जैसे अकिंचन को मिला | मुझ पर चोट करने वाले उनकी सामूहिक ललकार को झेल नहीं सके और उनके बल पर मैं अपने मिशन पर बढ़ता चल रहा हूँ | स्वस्थ्य आलोचना तो मेरे लिये गले का हार है ही पर कटुक्तियों की कंटक माला भी मेरे द्वारा उपेक्षित नहीं होगी | आखिर शिव का साधक गरल को भी कंठ धरकर नीलाभ सुषमा में बदल देता है | ' माटी  'आपसे आशीर्वाद पाकर अपने सामर्थ्य को शताधिक रूप से विस्तारित करना चाहती है | संभावित सुझाव भी प्रकाशन की अधिकार सीमां में आयेंगें | कृपया अपनी सम्मतियाँ ,शुभाशीष और उत्कर्ष की प्रेरणा दायी सूक्तियाँ हमें प्रेषित कर कृतार्थ करें |

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