Wednesday 20 September 2017

                                                                       गोत्र की तलाश

हर भाषा में कोई न कोई ऐसी कहावत होती है जिससे यह अर्थ निकलता है कि चीजों को उनके बाहरी रूप रंग से ही नहीं परखना चाहिये | बाहर और भीतर में रात और दिन का अन्तर हो सकता है |  पालिशदार पीतल को भूल से सोना समझ लिया जाता है और गन्दगी में पड़े मैले स्वर्ण खण्ड को पीतल समझनें की भूल हो जाती है | जो बात वस्तुओं के संम्बन्ध में ठीक है वही मानव जाति के संम्बन्ध में भी लागू होती है | कुछ ऐसा ही अनुभव पण्डित सूरज बली पाठक को हुआ | नब्बे वर्षीय सूरज बली जी दुर्गा कालोनी के एक मन्दिर में पूजा करते थे | कालोनी में अधिकतर छोटे साधनों के लोग थे इससे चढ़ावे में कोई विशेष आमदनी नहीं होती थी | हाँ साग -सब्जी के पैसे निकल आते थे | पर मन्दिर एक सेठ जी का था जो अब कलकत्ता में रहनें लगे थे | पानीपत के दुर्गा कालोनी के अपने शिवमन्दिर में वे पण्डित जी के लिये 3500 प्रति मांह भेज दिया करते थे | पण्डित जी के दो लड़के संजय कालोनी में रहते थे और मण्डी में सब्जी बेचकर अपना परिवार चलाते थे | नब्बे वर्षीय पण्डित सूरज बली सेठ लोगों के घरों में जाकर पूजा -पाठ भी कर लेते थे | वे गर्व से कहते थे कि वे बनारस से गंगा के किनारे रहनें वाले शुद्ध ब्राम्हणों के परिवार से हैं और उनकी पूजा कभी बेअसर नहीं होती | उन्हें यह भी कहते सुना गया था कि वे हल्के -फुल्के लोगों के यहां पूजा करनें नहीं जाते | हल्के -फुल्के लोगों से उनका क्या मतलब यह कोई -कोई ही जानता था | हम सब जानते हैं कि इस  समय हमारे देश में धर्मगुरुओं की बाढ़ आ गयी है | समाजशास्त्री यह बताते हैं कि भारत का उच्च वर्ग अब बहुत कुछ पश्चिम के रीति -रिवाज अपनानें लग गया है | लेकिन भारत का निचला तपका अब धार्मिक रीति -रिवाजों को ऊँची श्रेणी से कहीं अधिक पुरजोशी के साथ अपना रहा है | दुर्गा कालोनी से एक शाम पण्डित जी के पास एक लम्बा -चौड़ा बलिष्ठ पुरुष मिलनें के लिये आया | उसनें पण्डित जी से कहा कि वह अपने यहां हवन कराना चाहता है और आनें वाले कल सुबह आठ बजे वह घर पर पण्डित जी की उपस्थिति चाहता है | पाठक जी ने अपनी आदत के अनुसार उससे पूछा कि उसका गोत्र क्या है ? उसने बताया कि उसे अपने गोत्र का पता नहीं है | हाँ वह इतना जानता है कि उसके घर के आस -पास सभी जाति के लोग रहते हैं | उनके भी गोत्र उन्हें मालूम नहीं हैं पर किसी को ठाकुर जी कहा जाता है ,किसी को पण्डित जी , किसी को चौधरी जी ,किसी को राय साहब , किसी को राव साहब ,किसी को लाला जी , किसी को मालवीय जी , किसी को सरदार जी और किसी को खान साहब आदि आदि कहकर पुकारा जाता है | पण्डित सूर्य बली पाठक ने कहा कि जबतक किसी के गोत्र का पता न हो वह हवन या पूजा के लिये नहीं जाते | युवक ने कहा , " पण्डित जी मैं एक आदमी हूँ , आपके पास प्रार्थना लेकर आया हूँ ,क्या मेरा आदमी होनां ही काफी नहीं है | पण्डित जी बोले मैं यजुर्वेदी पण्डित हूँ | साठ साल से इस मन्दिर में पूजा कर रहा हूँ | तीस साल का था जब यहां आया था | उसके पहले आठ साल बनारस में था | | बिना गोत्र जानें मैनें कभी पूजा नहीं की है | तुम्हारा कोई न कोई गोत्र तो होगा ही | मैं जाति की बात नहीं करता | गोत्र से पहचान बनाता हूँ | जाओ कल सुबह अपने बड़े -बूढ़ों से पूँछ कर आना | मैं आठ बजे तैय्यार मिलूंगा |
                                        वह नवयुवक नमस्ते करके वहां से चला गया और घर जाकर उसने अपने विरादरी के एक बुजुर्ग से गोत्र की बात पूछी | नवयुवक के माता पिता का निधन हो चुका था | और वह घर में बँगला देश से आयी हुयी लड़की को पत्नी बनाकर रह रहा था | उसके बिरादरी के बुजुर्ग ने बताया कि वे सब खाना बदोश जनजातियों से हैं और उनमें से कुछ इधर -उधर की कालोनियों में अपना उल्टा -सीधा परिवार बनाने लग गये हैं | वह नवयुवक अधिक शिक्षित नहीं था पर उसे हिन्दी का थोड़ा सा ज्ञान था और उसनें किस्से -कहानियां पढ़ी थीं | उसनें अपनी विरादरी के बुजुर्ग से पूछा कि हम लोग राणा प्रताप की विरादरी से तो नहीं हैं ? हल्दी घाटी के युद्ध के बाद उनका साथ जंगली जातियों ने ही दिया था | हम लोग भी उन्हीं जातियों में से होंगें | बुजुर्ग बोला कि वह अपने को बहेलिया जाति का मानता है और बहेलिया ही उसका गोत्र होगा | नवयुवक को बहेलिया शब्द अच्छा नहीं लगा और वह सोचने लगा कि इसके स्थान पर कोई दूसरा शब्द चुना जाये | बहुत सोच विचार कर उसने यह तय किया कि वह अपने गोत्र का नाम " तीरमार " बतायेगा | उसकी बंगलादेशी औरत ने भी उनकी हाँ में हाँ भरी | दोनों बच्चे तो अभी छोटे ही थे उनसे पूछने की जरूरत ही नहीं थी | नवयुवक ने सोचा कि पण्डित जी हमारा गोत्र जानकार हवन करने आ जायेगें और तब वह पड़ोस के सभी लोगों को दौड़- दौड़ कर बुला लायेगा |
                               सवेरे सात बजे वह पण्डित सूर्य बली पाठक के मन्दिर में पहुँच गया | नब्बे वर्षीय पण्डित पाठक जी टट्टी से निकलते हुये अपनी लांग बाँध रहे थे | नवयुवक दूर मन्दिर की फर्श पर बैठ गया और उनका इन्तजार करने लगा | कुछ देर बाद मिट्टी से हाँथ साफ़ कर जब पण्डित जी उसके पास आये तो उसने उन्हें नमस्ते किया | पण्डित जी ने कहा कि तू आठ बजे आने के बजाय सात बजे कैसे आ गया | युवक बोला , " पण्डित जी मैनें अपना गोत्र जानने की बहुत कोशिश की | मैनें तीर , तलवार और भाला सभी के साथ मार जोड़ कर अपने गोत्र की पकड़ करने की कोशिश की | पर अब मुझे एक बहुत अच्छा और खरा गोत्र मिल गया है | पण्डित जी खुश हो गये बोले क्या नाम है तुम्हारे गोत्र का ? युवक बोला महाराज में लांगर गोत्र का हूँ | पण्डित जी ने कहा अरे भाई मैनें जांगड़ और रांगड़ तो सुनें हैं पर लांगर गोत्र कहाँ से निकला है ? नवयुवक ने कहा महाराज लांगड़ गोत्र को मैनें अभी -अभी टट्टी से निकलते देखा है और उसने दस -दस के दो नोट और एक का सिक्का पण्डित जी के पैरों के पास रख दिये , बोला पण्डित जी यह पहली दक्षिणा है बाकी सारा इन्तजाम घर पर किया गया है | मेरी बांग्लादेशी घरवाली भी दो लांग वाली धोती पहनती है | हम एक लांगड़ नहीं दो -दो लांगड़ हैं | पण्डित जी ने कहा चल तैय्यार होता हूँ तेरे से और अधिक नहीं मांगूंगा बस इक्यावन रुपये और दे देना ,हाँ पेट भर हलुआ पूड़ी तो खिलायेगा ही , तू सच्चा आदमी है ,तूने मुझे एक नया ज्ञान दिया है | पूरे यजुर्वेद में लांगड़ गोत्र नहीं है तू उसे कहाँ से खोज लाया | नवयुवक बोला ,"महाराज अब एक लांगड़ मुख्य मन्त्री बनने वाला है | आप राज्य के धर्म गुरु बनाये जायेंगें | चारो वेदों के बाद एक और वेद लिखा जा रहा है | इस वेद में पुराने सारे गोत्र मिलकर गड्डमड्ड हो गये हैं देखते जाइये और कितने नये गोत्र निकल आयेंगे नब्बे वर्षीय पण्डित सूर्य बली पाठक समझ गये कि कलयुग का पूरा प्रकोप हो चुका है और अब गोत्र न पूछकर हवन या पूजा में कितनी रकम मिलेगी यह पूछना ही उचित रहेगा | जय शनिदेव कहकर वह अपना 10 वर्ष से सहेज कर रखा हुआ पण्डितायी वाला कुर्ता पहनने लगे | हवन में सारा मुहल्ला इकठ्ठा हुआ और उस नवयुवक ने घर के द्वार पर बड़े -बड़े नीले अक्षरों में लिखवा दिया लांगड़ भवन पुरोहित पण्डित सूर्य बली पाठक यजुर्वेदी |

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