Wednesday, 6 September 2017

                                                स्टील का कंगारू

                सन 1957 की बात है शायद चैत्र मास था | माता दरवाजा पर शीतला माता का काफी बड़ा मेला लगा हुआ था | स्थानीय परम्पराओं के अनुसार प्रत्येक वर्ष के बुधवार को माता दरवाजे पर शीतला माता के मन्दिर के चारो ओर काफी बड़ा मेला लगा करता था | शहर के नर -नारी तो आते ही थे साथ ही आस -पास के ग्रामों से स्त्रियों और बच्चों के झुण्ड बड़ी संख्या में मेले में आकर माता का पूजन करती थीं | आर्थिक प्रगति के कारण हरियाणा राज्य के किसानों के पास काफी बड़ी संख्या में ट्रैक्टर और ट्रालियां उपलब्ध हो गयी हैं | आसपास के गावों से ट्रैक्टरों में भरकर हजारों नारियां और बच्चे मेले में लाये जाते थे | पुरुष तो कुछ ही होते थे | पर स्त्रियों और बच्चों का एक बड़ा भारी जमघट शीतला माता के दर्शन और पूजन को उपस्थित होता था | पूजन के लिये मीठे पुवे और चूरमा का प्रचुर मात्रा में उपयोग किया जाता था | चारों ओर पुवों की सुगन्ध उड़ती रहती थी | मेले में आसपास के खील- खिलौनें और प्रसाद बेचने वाले दुकनदार सड़क की पटरियों पर अपना टाट फैलाकर दुकनदारी करते थे | जमघट का यह हाल हो जाता था कि सामान्य व्यक्ति का पैदल निकलना भी कठिन हो जाता था | मन्दिर के आस -पास कई फर्लांग तक ट्रैक्टर ही ट्रैक्टर खड़े दिखायी पड़ते थे | पर शहर की मुख्य सड़क होने के कारण  जरूरी काम पड़ जानें पर मेले के बीच से गुजरने की बाध्यता पड़ जाती थी  | वैसे तीसरे पहर मेला कुछ कम हो जाता था क्योंकि ग्रामीण जन समुदाय पूजा के बाद बच्चों के लिये कुछ खील -खिलौनें खरीद कर वापस हो जाता था | एक बुधवार मुझे कालेज के युवा सांस्कृतिक समारोह का संयोजक होने के नाते मेले के बीच से पैदल चलकर गुजरना पड़ा | दुकानों पर खड़ी झुण्ड की झुण्ड ग्रामीण स्त्रियों और उनके आस -पास खड़े बच्चों के बीच से गुजरना एक कठिन कार्य था पर समारोह की अनिवार्यता ने मेरे आगे और कोई विकल्प ही नहीं छोड़ा था | संभल कर कदम बढ़ाता हुआ मैं मेले के बीच तक पहुंचा था कि सड़क के किनारे खिलौनों की दुकान के आगे एक बच्चे को रोते हुये देखा | उसकी मां बच्चे को घसीट कर दुकान के सामने से दूर ले जाना चाहती थी पर बच्चा था जो मानता था ही नहीं | उसकी आँखों से झरते आंसुओं ने मेरे कदम थाम लिये मैनें दुकानदार से पूछा कि बच्चा क्यों रो रहा है तो उसने एक खिलौनें की ओर इशारा करके कहा कि वह इसे लेना चाहता था पर उसकी मां के पास इतने पैसे नहीं थे कि वह इस खिलौनें को खरीद ले | बच्चे ने खिलौनें को हाँथ में ले लिया था पर जब मैनें पैसे बताये तो मां ने बच्चे के हाँथ से खिलौना खींचकर दुकान में रख दिया | साहब यह तो होता ही रहता है हर कोई हर चीज थोड़ा ही खरीद सकता है | आखिर मुझे दुकानदारी करनी है | अब जितने का खरीद कर लाया हूँ उससे कम का कैसे दे दूँ | बाईस रुपये की तो मेरी खरीद है और बच्चे की मां बीस से आगे नहीं बढ़ रही थी  | मैनें खिलौनें को देखा तो मुझे ज्ञान हुआ कि वह आस्ट्रेलिया का रबर से बना हुआ कंगारू है | बच्चे की खींचतान में मां ने दुकानदार से मेरी होने वाली बातचीत को सुन लिया | उस युवती ने मेरे से कहा कि भैय्या मेरे पास केवल बीस रुपये ही हैं अब इसे पच्चीस कहाँ से दे दूँ | घर में कोई खजानें तो नहीं गड़े हैं | हम लोग छोटे किसान हैं | और कोई दूसरा खिलौना खरीद दूंगीं | भारत की निम्न तपके से आने वाली उस सच्ची नारी ने मेरा मन हिला दिया, मैनें दुकानदार से कहा कि वह बच्चे को खिलौना दे दे , मैं उसकी कीमत पच्चीस रुपये चुका दूंगा | उस ग्रामीण बाला ने कहा नहीं भैय्या यदि आप नहीं मानते तो मैं बीस रुपये दुकानदार को दे देती हूँ जो मेरे पास है बाकी के पांच रुपये आप दे दीजिये | मुझे उस स्वाभिमानी नारी की बात ठीक लगी और मैनें बीस में पांच रुपये जोड़कर रबर का कंगारू उस बच्चे को दिला दिया | बच्चे का मुंह हंसी से भर उठा और मेरे मन में पुलक की एक लहर उठी उसका सुख मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ | बात आयी -गयी हुयी | वर्ष पर वर्ष बीतते चले गये | मैं सेवा निवृत्त होकर अपने बेटे -बेटियों के शादी -व्याह से फुरसत पाकर पोते -पोतियों के साथ समय बिताने लगा, अब मैं पैसठ साल का हो चुका था | एक दिन दिल्ली के एक कालेज से मेरे एक मित्र ने अपनी सेवा निवृत्ति के विदाई अवसर पर मुझे आमन्त्रित किया ,मैं दिल्ली जानें की योजना बना ही रहा था कि मेरा दस वर्षीय पोता मृगांक हठ करने लगा कि वह भी मेरे साथ दिल्ली जायेगा और शाम तक मेरे ही साथ हरियाणा लौट आयेगा | अब सभी सद्गृहस्थ यह जानते ही हैं कि बाबा और पोता का सम्बन्ध एक अटूट प्यार से जुड़ा रहता है ,मैं मृगांक की बात मान गया | विदायी समारोह के पश्चात  मेरे मन में आया कि मृगांक के लिये एक दो खिलौनें खरीद लिये जांय ,चांदनी चौक में काफी तलाश के बाद सड़क के एक कोनें में खिलौनों की एक दुकान दिखायी दी | दुकान छोटी थी मगर सजी -बजी थी | दुकान के बाहर शीशे से ढकी विन्डोज में धातु के बनें खूबसूरत खिलौनें सजे हुये थे | चमकदार स्टील से बनें एक कंगारू को खिड़की में खड़ा देखकर मृगांक वहीं रुक गया ,मैनें मन बना लिया कि मृगांक को वह खिलौना खरीद कर दे दिया जाय | मैं सीढ़ियों से चढ़कर अन्दर जानें को ही था कि दुकनदार का एक नौकर तेजी से चलकर बाहर आया और उसने कहा कि मालिक आपको अन्दर बुला रहे हैं | मुझे अचरज हुआ कि इस दुकान में मेरी पहचान कैसे हो गयी ,अन्दर जानें पर काउन्टर के पीछे खड़े एक अर्धवयस्क सज्जन ने मुझसे पूछा कि क्या मैं अमुक प्रोफ़ेसर हूँ और अमुक शहर से आ रहा हूँ | मैनें बताया कि हूँ तो मैं वही पर अब और कुछ न होकर केवल एक बुजुर्ग नागरिक हूँ | दुकान मालिक ने मुझसे पूछा जो बच्चा मेरे साथ है क्या वह मेरा पोता है ,मैनें बताया कि चि. मृगांक के हठ के कारण मुझे उसको साथ लाना पड़ा | दुकान मालिक ने कहा कि वह मेरे शहर के पास के ही एक ग्राम टिटौली का निवासी है और उसका नाम सुरेश बुधवार है | मैनें पूछा कि वह मुझे कैसे जानता है | सुरेश ने बताया कि लगभग 40 वर्ष पहले मैनें उसके लिये एक खिलौना खरीदनें में मदद की थी | मुझे वह पुरानी घटना याद आ गयी | और मैं सोचने लगा कि इस संसार के सफर में कौन कब मिल जाय और कब बिछुड़ जाय कहा नहीं जा सकता ,मैनें कहा कि अच्छा बेटे सुरेश तुम टिटौली से यहाँ कैसे आ गये ? उसने कहा सर पिताजी और माता जी गुजर गये ,जमीन तो ज्यादा थी नहीं और चाचा जी उसका काम सम्भाल रहे हैं | मैं नौकरी की तलाश में दिल्ली चला आया ,यह दुकान अजीज मियाँ की है उन्होंने मुझे सफाई करने और ग्राहकों को खिलौना दिखाने के लिये रख लिया | धीरे -धीरे मुझे खिलौने के पूरे व्यापार का ज्ञान हो गया ,अजीज मियाँ मुझ पर भरोसा करने लगे | खरीद -फरोख्त मेरे द्वारा होने लगी | अजीज मियाँ के दोनों बेटे जवान होकर अब मुरादाबाद से बर्तन मंगाकर और बनवाकर अरब देशों में भेजते हैं | करोल बाग़ में उनकी बड़ी -बड़ी दुकानें हैं | अजीज मियाँ अब बहुत बूढ़े हो गये हैं और वे अब घर पर ही रहते हैं | उन्होंने यह दुकान मुझे किराये पर दे दी है ,अच्छा काम चल रहा है | भगवान् ने चाहा तो अजीज मियाँ की मेहरबानी से एक दिन यह दुकान खरीद लूँगां फिर सुरेश बुधवार ने अपनी जेब से एक हजार रुपये का नोट निकालकर संकोच भाव से कहा कि वह मेरा कर्ज उतारना चाहता है | मैनें कहा कि सुरेश एक बुजुर्ग अध्यापक को शर्मिन्दा करना चाहते हो ,उसने नोट जेब में रख लिया और काऊन्टर के पीछे से निकलकर और बाहर आकर मेरे चरण स्पर्श किये और कहा भगवान ने चाहा और मेरी जिन्दगी रही तो मेरे द्वार पर आकर बेटा होने का फर्ज निभायेगा | फिर उसने संकोच से कहा प्रोफ़ेसर साहब मेरी एक प्रार्थना है , अस्वीकार मत करियेगा यह कहकर उसने अपने नौकर से कहा कि चमकते स्टील का कंगारू पैक कर दे यह कंगारू उसकी तरफ से उसके छोटे भाई चि ० मृगांक को भेंट किया जायेगा |
                                    चाहते हुये भी मैं इनकार न कर सका ,इस बात को भी लगभग एक दशक बीत चुका है मृगांक अब बायलॉजी में एम.एस.सी. का विद्यार्थी है | मेरे कमरे के शो रूम में बहुत से उपहार और स्मृति चिन्ह रखे हैं पर मृगांक स्टील के इस कंगारू को अपने लिये एक अमूल्य निधि के रूप में स्वीकार करता है |
                                  अभी तक मैं जी रहा हूँ और उस दिन की प्रतीक्षा है जब सुरेश बुधवार मेरे द्वार पर दस्तक देगा | हे प्रभु मेरी इस अन्तिम इच्छा को साकार करने की कृपा करना | वयोवृद्ध अध्यापक के पास आप के चरणों में नमन करने के अतिरिक्त और कोई गर्व करने की धरोहर भी तो नहीं है |

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