Thursday 17 August 2017

अँग्रेजी में एडिट करने का अर्थ किसी रचनात्मक आलेख में यदि कोई तार्किक विसंगति पायी जाती है तो उसे ठीक करना भी होता है | पर साहित्य की कुछ विधाओं जैसे कवितायें ,नाटकीय संभाषण या स्वगत कथनों में लेखक के शब्द चयन और वाक्य संगठन को पर्याप्त स्वतन्त्रता दी जानी चाहिये | कई बार वहां अधिक कलम चलाने से कहा जानें वाला अभिप्रेत पाठक तक नहीं पहुँच पाता | द्रश्य ,काव्य या मंचीय रचनाओं में आंगिक मुद्राओं के द्वारा बहुत कुछ ऐसा कहा  सकता है जो शब्दों से अभिहित न हो पर जहां केवल शब्द ही पढ़ने के लिए हैं ,वहां शब्दों के चयन पर सम्पादक को एक नजर दौड़ानी ही होती है | शब्द चयन और वाक्य संगठन में लेखक के व्यक्तित्व की विशिष्टता झलकने लगती है | कई बार हम पाते हैं कि कुछ रचनाओं को पढनें के बाद हम रचनाकार की कथन शैली को अच्छी तरह पहचान जाते हैं | यह पहचान कभी कभी इतनी गहरी हो जाती है कि हम रचना का कुछ अंश पढ़कर ही बता सकते हैं कि यह अमुख रचनाकार की श्रष्टि है पर ऐसा तभी संम्भव हो पाता है जब हमारा अध्ययन विशाल हो और हमारा भाव बोध मानस तरंगों को उनकी सम्पूर्ण प्रवाहमयता में पकड़ सकने में समर्थ हो | अधिकतर देखा गया है कि कुशल सम्पादक महान लेखक नहीं बन पाते | पर इसके अपवाद भी हैं | आप जानते ही हैं कि विशाल औद्योगिक घरानें नयी तकनीक और वैज्ञानिक खोजों के लिए बहुत सुलझे और ऊँचें दिमाग ऊंची ऊंचीं तनख्वाहें देकर खरीदनें में लगे रहते हैं | ऐसा आवश्यक भी है क्योंकि प्रतिस्पर्धा की कटीली चोंटें  शीघ्र ही घटिया टेक्नालॉजी को काटकर फेंक देती हैं | पर उद्योग घरानें के बड़े बड़े वित्तीय निकायों और तकनीकी संस्थानों को सुव्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए जिस कौशल की आवश्यकता होती है वह कौशल तकनीकी व वैज्ञानिक दक्षता से अलग प्रकार का होता है | प्रबन्धन विज्ञान की न जानें कितनी शाखायें प्रबन्धन सूक्ष्मताओं की खोजबीन कर उन्हें एक सुनियोजित ढंग से कुशल प्रबन्धन के मानसिक शक्ति के रूप में परिवर्तित करती हैं | यही कारण है कि किसी विशाल उद्योग घरानें की कहानी किसी भी उद्योग के बोर्ड आफ डायरेक्टर्स के आस -पास घूमती रहती है |
                    साहित्यिक मैगजीन के एडिटर को विशिष्टतः अवैतनिक एडिटर को वित्तीय संसार की छोटी -बड़ी परिभाषाओं में घेरा नहीं जा सकता | उसे जो सबसे बड़ा लाभ होता है वह है उसके भाव बोध का उन्नयन | जितनी ही श्रेष्ट रचनाएँ उसके पास छपने के लिये आती हैं उतनी ही मात्रा में उसके भाव बोध की उत्कृष्टता बढ़ती जाती है | आत्मा का परिष्कार ,चेतना की प्रदीप्तीकरण प्रभावी  भाषा में बध्य प्रेरणात्मक विचारों और उद्दात उद्गारों के द्वारा ही सुनिश्चित किया जा सकता है | माटी का सम्पादक भी इस अमूल्य परिष्करण प्रक्रिया का लाभ उठाता है | यह तो एक निरन्तर दोहराया जानें वाला सत्य है कि आत्मा अमर है ,न तो इसका जन्म होता है न ही इसकी मृत्यु होती है | यह तो अविनाशी तत्व का अंश है और उसी अविनाशी तत्व में मिल जाना ही इसका स्वाभाविक धर्म है पर आत्मा को निवासके लिए ,यदि उसे परिभ्रमण करना है ,कोई सुगेह भी तो चाहिये और सुकाया के सिवाय और सुगेह हो ही क्या सकता है ? यह सुकाया मानव  काया ही है | सच पूछो तो सुसंगठित मानव देह चाहे वह नर की हो या नारी की अपने में अपार आकर्षण छिपाये है | कामायनी में मनु का चित्रण देखिये या श्रद्धा का ,रामायण में राम का चित्रण देखिये या या सीता का ,कृष्णायण में कृष्ण का चित्रण देखिये या रुक्मणी का सभी सौन्दर्य की कालजयी सुषमा से विभूषित हैं | माटी भी चाहती है कि विचारों की ऊर्जा सशक्त ,अर्थवान और सुसंगठित वाक्यों में की जाय | कोई विचार सूत्र रूप में भी पेश किया जा सकता है पर जन -जन तक पहुंचाने के लिये उस सूत्र को सहज ,सुलभ और तर्क संगत प्रणाली के द्वारा व्याख्यायित करना होता है | सामाजिक क्रान्तियों का सूत्रपात बहुधा उन् सशक्त और प्राणवान कृतियों से होता है जिसमें युगान्तकारी विचार प्राण आन्दोलित करने वाली भाषा शैली में व्यक्त किये जाते हैं | कई बार कुछ पत्रिकायें भी भाषा के प्रान्जलीकरण और विचारों के सशक्तीकरण का काम करती हैं | कौन हिन्दी साहित्य का अध्येता है जो यह नहीं जानता कि महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा सम्पादित सरस्वती पत्रिका के बिना आधुनिक हिन्दी का विकास या दूसरे शब्दों में खड़ी बोली का विकास राष्ट्रीय भाषा के रूप में होना सम्भव नहीं था ? मुझे स्पष्ट याद है कि मैनें अपनी तरुणायी के दौर मैं हिन्दी की कई पत्रिकाओं से काफी कुछ पाया है | और उनमें छपी विचारोत्तेजक रचनाओं ने मुझे जीवन की गहरी समस्याओं पर नये ढंग से सोचने पर विवश किया है | इस सन्दर्भ में धर्म युग और प्रतीक जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं के नाम उभरकर दिमाग में आ जाते हैं | इन दिनों भारत के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में हिन्दी भाषा का उच्चस्तरीय अध्ययन ,अध्यापन किया जा रहा है | मेरे पास सही आंकड़े तो नहीं हैं पर मैं समझता हूँ कि हिन्दी में सब मिलाकर सहस्त्राधिक शोध कार्य तो हो ही चुके होंगें | विश्वविद्यालयों की अपनी विभागीय पत्रिकायें भी छपती रहती हैं उनमें से कुछ सामान्य जन केलिए  पढ़ने लायक हों भी तो भी सामान्य जन की पहुँच वहां तक नहीं हो पाती | जो साप्ताहिक और पाक्षिक निकल रहे हैं उनमें अधिकतर राजनीतिक क्षेत्र से लाया गया कूड़ा -करकट ही छपता दिखाई पड़ रहा है | साहित्य अकादमी के पुरुष्कारों से सम्मानित  साहित्यकारों की रचनायें भी यदि समर्थ प्रकाशकों के पास न जायें तो अपनी छपाई का खर्चा नहीं निकाल पातीं | अंग्रेजी समझनें वालों की संख्या 10 प्रतिशत से भी कम है फिर भी अंग्रेजी का साहित्यकार और अंग्रेजी की पत्रिकाएं हिन्दुस्तान में अपनी धूम मचायें हैं | मुझमें उस धूम के प्रति कोई ईर्ष्या भाव नहीं है पर न जाने क्यों मैं हिन्दी भाषा -भाषी जनता से यह अपेक्षा करता हूँ कि वह इस धूम को नगाड़े पर टंकार देकर ललकारें | हिन्दी साहित्य की प्रेरक गौरव गाथा यदि फिर से पुनर्जीवन नहीं पाती तो यह हम कोटि -कोटि हिन्दी भाषियों के लिए कलंक की बात रहेगी | सम्मानजनक अस्तित्व सरंक्षण के रण -रक्षण में माटी को आप सदैव अगली पंक्ति में खड़ा पायेंगें | जय -पराजय विधि के हाँथ में है | 

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