Sunday 23 July 2017

 औरंगजेब के कट्टर इस्लामी जनून के कारण हिन्दुस्तान के इस्लाम से इतर अन्य दार्शनिक विचारधाराओं के अनुयायी दूसरी या तीसरी श्रेणी के नागरिक बन गए हैं | जजिया कर तो उन पर लगा ही है साथ ही ऊँचे पदों पर भी उनकी नियुक्ति रुक गयी है | औरंगजेब कट्टर मुल्लाओं  की चपेट में है | शरीयत की गलत - सलत व्याख्या की जा रही है | सर क़त्ल किये जा रहे हैं | मन्दिर गिराये जा रहे हैं ,गुरु तेगबहादुर के दोनों पुत्रों को दीवार में जीवित चुनवा दिया गया | उन्होंने सर दिया पर सार न दिया | ऐसे में माता भवानी के पुजारी समर्थ रामदास से शक्ति प्राप्त करने वाला प्रेरणा पुरुष शिवाजी राजे महाराष्ट्र में स्वतंत्रता का बिगुल बजा देते हैं | महाराज जय सिंह द्वारा आदरपूर्ण बराबरी के व्यवहार की आशा पर शिवाजी उनके साथ दिल्ली आये थे पर औरंगजेब के दरबार में उन्हें पांच हजारी पंक्ति में खड़ाकर उनका घोर अपमान किया गया |
              कवि भूषण ने लिखा है -
                                                 " सावन के आगे ठाढ़े रहिबे के जोग ,
                                                     ताहि खड़ो कियो जाय प्यादन के नियरे |"
शिवाजी ने भरे दरबार में ही निडर होकर अपना विरोध और क्रोध प्रकट किया |उन्हें महाराज जय सिंह के कहने पर महाराज जय सिंह के महल में ही कैद कर लिया गया | | शिवाजी राजे किस प्रकार मिठाई के लम्बे -चौड़े झाले में छिपकर नजर कैद से मुक्त हो गए इसका विस्तृत विवरण 'माटी ' के पाठकों ने इतिहास के पन्नों में पढ़ा ही होगा | हिन्दू जाति के इस सिर मौर वीर का संरक्षण पूरी सतर्कता के साथ हिन्दू संस्कृति के चिन्तक ,विचारक और संरक्षक करते रहे | एक लम्बे अरसे के बाद एक छद्म वेश में शिवाजी राजे माँ जीजाबाई के सामने उपस्थित होकर कोई भिक्षा पाने की प्रार्थना करने लगे | उनका वेष परिवर्तन इतनी कुशलता से हुआ था कि स्वयं उनकी माँ ही उन्हें प्रथम द्रष्टि में पहचान नहीं पायीं | अपनी लम्बी गुप्त यात्रा के दौरान शिवाजी ने भारत की लक्ष- 2 जनता के हृदय के भावों को पूरी तरह समझ लिया था | वे आश्वस्त थे कि औरंगजेब की कट्टर इस्लामी नीति के खिलाफ उन्हें न केवल हिन्दुओं का व्यापक समर्थन मिलेगा बल्कि सहिष्णु मुसलमान भाई भी उनका पूरा साथ देंगें | हिन्दुस्तान में जन्में पले पुसे और अकबरी परम्परा के मुस्लिम वर्ग सहकारिता और सह अस्तित्व को कैसे नकार सकते हैं | शिवाजी राजे का जय रथ माँ जीजाबाई का आशीर्वाद लेकर और समर्थ रामदास से शक्ति पाकर विजय यात्रा पर निकल पड़ा | मुग़ल साम्राज्य की सारी फ़ौज उन्हें पस्त करने में लगा दी गयी स्वयं शहनशाह औरंगजेब वर्षों दक्षिण में टिके रहे ताकि शिवाजी को पकड़कर कैद कर लिया जाय या मार दिया जाय पर भारत का भविष्य अभी एक नयी गुलामी आने की प्रतीक्षा कर रहा था | शिवाजी द्वारा स्वतन्त्र स्थापित राज्य औरंगजेब के लिए न मिटने वाला सरदर्द बन गया | काशी में शिवाजी को क्षत्रियत्व प्रदान कर उन्हें चक्रवर्ती सम्राट के रूप में विभूषित किया गया | वे आज तक छत्रपति शिवाजी महाराज के नाम से जाने जाते हैं | शिवा राजे तो उनके प्रारम्भिक विजय काल का सम्बोधन था | महाकवि भूषण को पहली बार दक्षिणावर्त की धरती पर पहली बार एक ऐसा जननायक देखने को मिला जिसमें श्री राम की वीरता और श्री कृष्ण की उदारता दोनों आदर्श रूप में समन्वित हुयी थीं | इतिहास का सत्य तो इतिहासकार जानें पर जन श्रुतियाँ तो यह कहती है कि शिवाजी ने एक के बाद एक बावन विजयें हासिल कीं | 'माटी ' कोई इतिहास की पत्रिका नहीं है ,इतिहास का धूमिल आधार पाकर शब्द शिल्पियों की कल्पनायें और अधिक रंग बिरंगी दिखायी पड़ने लगती हैं | 'माटी 'नहीं जानती कि वे 52 किले कौन कौन से थे ?पर कुछ प्रसिद्ध विजयों से इतिहास के पन्नें भरे पड़े हैं जैसे सिंहगढ़ की विजय ,या पुरन्दर की विजय आदि आदि | कहते हैं महाकवि भूषण  ने इन्ही बावन विजयों के आधार पर शिवा बावनी लिखी जिसका एक एक सवैय्या छंद  हिन्दी भाषा का का सबसे चमकदार नगीना है | कौन  हिन्दी भाषा -भाषी प्रेमी है जो शिवा बावनी पढ़कर वीर काव्य के प्रभाव से अछूता रह जाय | और विजयों से भी अधिक था खुंखार कट्टरपन्थियों के लिये शिवाजी नाम का आतंक | उनके नाम से ही मुसलमान ,नवाब ,सेनापति और शासक थर्रा उठते थे | उनके नाम का यह आतंक मुसलमान शासकों के घरों में घुसकर उनकी बेगमों का दिल भी दहला देता था तभी तो भूषण ने शिवाजी के नाम से त्रास को अविस्मरणीय पंक्तियों में चित्रित किया है |
"ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहन वारी
ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहाती हैं |
कन्द मूल भोग करें ,कन्द मूल भोग करें
तीन बेर खाती, वे तीन बेर खाती हैं |
सरजा शिवाजी शिवराज वीर तेरे त्रास
नगन जडाती तै वे नगन जडाती हैं |"
                 छत्रपति शिवाजी की मृत्यु के बाद भी उनके वीरत्व और स्वाभिमान की परम्परा मराठा साम्राज्य के कर्णधारों की सबसे मूल्यवान धरोहर बनी रही ,जब मराठा साम्राज्य की शक्ति पेशवाओं के हाँथ में आयी तब मराठा साम्राज्य का आतंक ,दिल्ली के सिंहासन पर बैठे नपुंसक सम्राटों को सदैव नतमस्तक किये रहता था | पेशवा बाजी राव प्रथम और द्वितीय की तुलना तो महान विजेता सम्राट स्कन्दगुप्त से की जाती है | अश्वारूढ़ विशाल मराठा वाहिनी रात रात भर में सैकड़ों मीलों का सफर कर शत्रु सेनाओं को रौंद कर रख देती थी | हिन्दी कविता प्रेमी सभी उस दोहे से परिचित होंगें जो ओरछा के राजा छत्रसाल ने पेशवा बाजीराव को लिखा था | जनश्रुति है और अधिकतर इतिहासकार इस जनश्रुति से सहमत हैं कि जब छत्रसाल की सेना चारो ओर मुग़ल सेना से घेर ली गयी और पराजय उनके सामने मुंह बाये खड़ी हो गयी तो उन्होंने  एक कुशल अश्वारोही को कविता की दो पंक्तियाँ लिख कर हिन्दू धर्म रक्षक बाजी राव पेशवा के पास लिख भेजी | दोहा इस प्रकार था |
" जो गति ग्राह गजेन्द्र की ,सो गति बरनऊ आज \
बाजी जाति बुन्देल की ,वाजी राखौ लाज |"
                                         जिस समय यह पत्र बाजीराव को मिला उस समय उनकी विशाल सेना ओरछा से सैकड़ों मील दूर थी पर बुन्देल की लाज तो रखनी ही थी | रातोंरात घोड़ों के खुरों से सैकड़ों मील धरती की परतें उघड़ गयीं | मुग़ल सेना दोहरी मार से पिटकर पराजित होकर भागी | न जानें कितने अस्त्र -शस्त्र और भार असवात छोड़ गयी | शव सड़ते रहे ,घायल तड़पते  रहे | भूषण जी ने इन छत्रसाल की गुणगाथा में भी कुछ अत्यन्त प्रभावशाली वीर छंद ,सवैये लिखे हैं | सभी हिन्दी कविता प्रेमी ऐसी पंक्तियों से परिचित हैं |
" रैया राव चम्पत के छत्रसाल महाराज
भूषण सकै करि बखान कोऊ बलन को
पक्षी पर छीने ऐसे परे पर छीने वीर
तेरी वरछी ने वर छीनें हैं खलन के |"
                                                  पर हम बात कर रहे थे महाकवि भूषण और उनकी भाभी द्वारा किये उनके तिरष्कार की ,हम फिर से दोहराते हैं कि इतिहास का सत्य साहित्य का सत्य नहीं होता है ,सच पूछों तो इतिहास का सत्य स्थिर होता है | जबकि साहित्य का सत्य चेतन होता है ,वह फलता -फूलता ,बढ़ता और विस्तारित होता है | जनश्रुति कहती है कि शिवाजी के सुपुत्र साहू जी और अन्य समर्थ मराठा सरदारों ने शिवा बावनी के एक एक छंद पर एक एक हाथी देकर उन्हें पुरष्कृत किया | जनश्रुति यह भी कहती है कि महाराज छत्रसाल ने स्वयं उनकी पालकी उठाने में हाँथ लगाया | "माटी " के पाठक साहित्य की ऊँचाइयों और गहराइयों से परिचित हैं | जनश्रुति में जनकल्पना के पंख लग जाते हैं तो वह गगन बिहारी बन जाती है | वह सुरसा के मुंह का प्रसार पा जाती है और उसमें सभी असंभव सम्भव हो जाता है | तो जनश्रुति कहती है कि महाकवि भूषण बावन गजों की पंक्ति लेकर आगे के सबसे ऊँचे गजराज की पीठ पर बैठ कर त्रिविक्रमपुर पहुंचें ,कहाँ से और कैसे निर्विघ्न पहुँच गए यह हाथियों के महावत जानते होंगें | पर उनके पहुंचने की खबर पाकर त्रिविक्रमपुर की बाजार ,गलियों और नुक्कड़ों पर भीड़ उमड़ पडी | हांथियों की पंक्ति भीड़ से रास्ता बनाती हुयी मतिराम त्रिपाठी के अगले द्वार पर पहुँच गयी | वृद्धा माँ तो कुछ सुन समझ नहीं पायी पर भाभियाँ और उनके बाल -बच्चे घबरा कर कक्ष में छुपने के लिए भगे | उन्हें भ्रम हुआ कि शायद कोई नवाबी या लुटेरी मुस्लिम सेना का कोई सिपह सालार उनका घर और नगर लूटने आया है | बूढ़ी स्त्रियों ,मर्दों और बच्चों को मार दिया जायेगा | नवयुवक यदि बच निकले तो उनका भाग्य नहीं तो कुत्तों और सियारों का भोजन बनेंगें ,और नवयुवतियाँ भेड़िया सिपाहियों के लिये कामेच्छा पूर्ती का साधन बनेंगीं | पर मतिराम त्रिपाठी और उनके अग्रज जिनका नाम शायद मैं गलत हूँ कृपा राम था ,वीर पुत्र और वीर बन्धु थे | उन्होंने छत पर चढ़कर हस्तियों की उस लम्बी पंक्ति को देखा | उन्होंने देखा कि सबसे आगे सबसे ऊँचे गजराज पर उनका सबसे छोटा भाई भूषण बैठा है ,उसके सिर पर छत्र लहरा रहा है ,वह राज कवि के वेष कीमती वस्त्र पहनें है | उसका महावत भी एक विशेष पगड़ी धारण किये हुये है | उन्हें भ्रम हुआ कि कहीं वह कोई सपना तो नहीं देख रहे हैं | उन्होंने फिर आँखें मलीं | हस्ति पंक्ति कुछ और नजदीक आ गयी थी | अरे हाँ यह तो भूषण ही है ,आश्चर्य से फटती  हुयी आँखें लिये वह सीढ़ियों से शीघ्रता से उतर कर नीचे आये | कृपा राम और मतिराम ने अपनी अपनी गृहणियों और बच्चों को कक्ष से बाहर आने को कहा ,चिल्लाते गए कि छुटुवा आ गया है | माँ ने नहीं सुना  पर उन्होंने जोर से चिल्लाकर कहा , " अम्मा छुटुवा आ गया ,भूषण घर आ गया ,धन्य हुए हमारे भाग्य | "भूषण का गजराज द्वार पर पहुंचा | उसने सूंड़ उठाकर भाइयों का अभिवादन किया | भाइयों ने कुछ देर भूषण के नीचे उतरने की प्रतीक्षा की ,तब भूषण ने कहा भाभियाँ कहाँ हैं ?छोटी भाभी से कहो कि थाली में थोड़ा सा नमक डाल कर द्वार पर आये और मुझे नीचे उतरने का हुक्म दे | साहित्यकार यह नहीं बताते कि छोटी भाभी नमक लेकर आयी या नहीं आयी हाँ यह अवश्य बताते हैं कि सिर ढके मुखड़ों के नीचे झुकाकर सुख के आंसू द्वार की देहरी पर टप -टप  गिर पड़े | महाकवि भूषण महावत द्वारा हाथी को बिठाल कर नीचे उतारे गये | उन्होंने ज्येष्ठ भ्राताओं और भाभियों के चरण स्पर्श किये और वृद्धा माँ के पैरों पर गिरकर काफी देर चुपचाप रोते रहे | "माटी ' नहीं जानती कि वे क्यों रोये ?शायद दिवंगत पिता की याद में ,शायद अपरम्पार भगवत कृपा की कृतग्यता के रूप में ,शायद महानायक अद्वितीय अश्वारोही ,हिन्दू धर्म उद्धारक छत्रपति शिवाजी की पावन स्मृति में | 'माटी 'के पाठक इस बारे में स्वतन्त्र निर्णय लेने के लिये पूर्ण रूप से बन्धन मुक्त हैं |









                     

No comments:

Post a Comment