स्टेशन से उतर कर थोड़ी ही दूर पर एक खड़ंजे वाले रास्ते पर चलकर दांयीं ओर बहुत लम्बे -चौड़े मैदान में कुछ कमरों की इमारत दिखाई दी | दो खम्भों के ऊपर डाले एक सपाट लिन्टर के ऊपर मोटे अक्षरों में लिखा था -भगवत दयाल इण्टर कालेज पटियाली | दिन के लगभग बारह बजे होंगें और मैं कुछ अनजाने स्थान की अपरचित स्वागत पद्धति की प्रतीक्षा करता हुआ प्राचार्य के कमरे की पूछ -तांछ करता हुआ आगे बढ़ा | दफ्तर के एक बाबू ने बताया कि प्राचार्य जी घर पर हैं क्योंकि अभी प्रवेश का समय चल रहा है और उनका आना आवश्यक नहीं है | मैनें उन्हें बताया कि मैं उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलना चाहता हूँ | एक चपरासी मेरे साथ मुझे प्राचार्य के मकान तक ले जाने के लिये भेज दिया गया | चलते -चलते गाँव की मुख्य सड़क से मैनें आस -पास देखा और मुझे लगा कि वह एक खाता -पीता गाँव है और सभी मकान पक्के व लम्बे -चौड़े हैं | सड़क के दोनों ओर मिठाई व फल की दुकानें थीं | गाँव काफी दूर तक फैला था ,पर प्राचार्य जी का घर सड़क के पास ही एक काफी बड़े भू -भाग में था | उसमें गाँव का खुलापन और शहर की परिष्कृति ,दोनों का ही आभाष मिलता था | चपरासी ने मुझे बाहर खड़ा कर अन्दर जाकर मिश्रा जी को बताया कि मैं कानपुर से कैलाश नाथ जी का पत्र लेकर आया हूँ | मिश्र जी स्वयं उठकर आ गये और मुझे बड़े प्यार के साथ अन्दर ले गये | बैठक में कुछ कुर्सियां थीं और तख़्त पर दरी चादर बिछी थी , जिस पर वे बैठे हों या लेटे हों उन्होंने मुझे कुर्सी पर बिठाकर पत्र पढ़ा और कहा कि मैं सात जुलाई को कालेज में आ जाऊँ जहाँ मुझे नियुक्ति पत्र दे दिया जायेगा | यह सम्भवतः 29 या 30 जून 1956 की बात है | मैनें कहा कि क्या साक्षात्कार की कोई प्रक्रिया पूरी करनी होगी , तो उन्होंने बताया कि आठ -दस लोगों को 7 जुलाई को दस बजे बुलाया गया है , पर वे सब के सब तृतीय श्रेणी में हैं ,यद्यपि उनमें से कई को कुछ वर्षों का अध्यापन अनुभव भी है ,क्योंकि कैलाश ने मेरे लिये इतने प्रशंसा भरे शब्द लिखे हैं इसलिये वे मुझे ही कालेज का एक अभिन्न अंग बनाना चाहेंगें | इसके बाद उन्होंने मेरे लाख एतराज करने पर भी जलपान की व्यवस्था की और बाद में बाहर बैठे चपरासी को बुलाकर कहा कि वे मुझे ले जाकर कालेज मैनेजमेन्ट प्रधान प ० भगवत दयाल जी से मिला दें | (क्रमशः )
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