गुरु देवो भवः
इस
कहानी का सम्बन्ध बिहार में मोती हारी के नजदीक एक ग्राम मिसरौली से है ।
घटना वास्तविक है पर पात्रो वा स्थानों के नाम बदल दिये गये हैं ।
इन्जीनियर
श्री कान्त मिश्र से सम्बन्धित इस कहानी को उन्हीं के मुँह से लगभग 17
वर्ष पहले सुना था । सेवा निवृत्ति के बाद वह इस संसार को भी छोड़ चुके हैं
। पर जब कभी उनकी यह कहानी याद आती है मुझे उनमें मानवता का सजीव रूप
दिखायी पड़ता है । श्री कान्त जी नें कहा मेरे पिताजी 10 वीं पास करके
साइकिल के एक मिस्त्री के साथ काम करनें लगे थे । धीरे -धीरे उन्होंने छोटी
-मोटी मशीनों को ठीक करनें में भी महारत हासिल कर ली फिर उन्हें पटना की
सिलाई मशीन बनानें वाली एक फैक्ट्री में काम मिल गया । वहाँ से वे हरियाणा
में लक्ष्मी सिलाई मशीन की एक नयी फैक्ट्री खुलनें पर जूनियर इन्जीनियर के
पद के लिये अप्लीकेशन भेजी । उन्हें बुलाया गया और मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट
में उनका टेस्ट लिया गया । काम में तो वे होशियार थे ही फैक्ट्री में वे
जूनियर इन्जीनियर बन गये । अब तक उनके दो बच्चे हो चुके थे । मैं बड़ा था
लगभग पाँच साल का और एक थी तीन साल की मेरी छोटी बहिन कुसुमा । पिताजी को
फैक्ट्री में तीन कमरों वाला एक अच्छा मकान दे दिया गया और डिप्लोमा न
होनें पर भी जूनियर इन्जीनियर होने के नाते उनका रुतुवा बड़ा माना जाने लगा ।
माँ के साथ हम दोनों बच्चे उनके पास आ गये । मेरी माँ आठवीं पास थीं और
खाते -पीते पण्डितों के घर से थीं । उन्हें पहिनने खाने का शौक भी था और
ज्ञान भी । यह फैक्ट्री हरियाणा के जीन्द नामक शहर में खुली थी । पास में
ही एक अच्छा सा पब्लिक स्कूल भी था जिसमें कुछ नयी चाल -ढाल की पंजाबी
लडकियां छोटे बच्चों का क्लास लेती थीं । मेरे पिताजी नें मुझे प्री नर्सरी
क्लास में भर्ती करवा दिया । तीन साल तक कभी एक मास्टरनी कभी दूसरी
मास्टरनी पढ़ाती रही । अब मैं क्लास थर्ड में पहुँच गया था । स्कूल अब तक
काफी तरक्की कर चुका था और उसके संचालक परमानन्द ठकुराल प्रभावशाली लोगों
के सम्पर्क में आ गये थे । स्कूल अब एक बहुत अच्छी बिल्डिंग में शिफ्ट कर
दिया गया था और आठवीं तक के क्लास लगनें लगे थे । कहा जा रहा था कि एक दो
वर्ष में उसको केन्द्रीय बोर्ड से दसवीं तक मान्यता मिल जायेगी । हेड
मास्टर साहब एक बुजुर्ग थे जिनका नाम था नन्द किशोर शास्त्री और अधिकतर
अध्यापिकायें लेडीज थीं । जब मैं कक्षा तीन के इम्तिहान में बैठ गया और
चौथी में प्रमोट हुआ तो दोस्तों नें मुझे बताया कि एक नयी ईसाई मास्टरनी
आयी हैं और वह हमें अंग्रेजी और मैथमैटिक्स पढ़ायेगीं यहाँ मैं यह बता देना
चाहता हूँ न तो मैं अंग्रेजी में अच्छा था और न मैथमैटिक्स में मुझे इनका
बस काम चलाऊ ज्ञान था । कुछ दिनों के बाद मैनें जाना कि मेरी नयी मैडम का
नाम मिस जूलिया है । वे अभी अविवाहित हैं और जीन्द के छोटे से चर्च में
रहने वाले ईसाई पादरी फादर मैथ्यू की बेटी हैं । मैं अपनी कक्षा में आगे की
कुर्सियों में न बैठकर बीच में बैठता था और अपनी मैडमों से कोई भी बात
पूछनें में बहुत संकोची था । मैडम जूलिया कुछ पढ़ाने के बाद कुछ काम करनें
को देती थीं । और क्लास में ही वह काम करके दिखाना होता था । इस दौर में वह
मेरे काम को देखने के लिये मेरे पास खड़ी हुयीं । मैं बता ही चुका हूँ कि
ये दोनों ही विषय मुझे कठिन लगते थे जबकि हिन्दी और सामान्य ज्ञान में मैं
काफी तेज था । करीब दस दिन के बाद आगे पडी एक खाली छोटी कुर्सी की ओर इशारा
करते हुये मैडम जूलिया नें कहा - ' srikant come here ." फिर उन्होंने
हिन्दी कहा इस कुर्सी पर बैठो । अब यहीं आगे से बैठा करो । सकपका कर मैं
कुर्सी पर बैठ गया । मैडम जूलिया नें मेरी कापी ली कुछ करेक्शन किये और
पूछा कि घर में कोई पढ़ा -लिखा है । मैंने बताया कि मेरे पिता जूनियर
इंजीनियर हैं और मेरी माँ भी पढी -लिखी हैं । उन्होंने कहा श्रीकान्त बेटे
कहाँ रहते हो ?मैनें कहा लक्ष्मी स्वेविंग मशीन के कैम्पस में मिले एक
क्वार्टर में रहता हूँ । मैडम जूलिया नें कहा ठीक है अपनी माँ को यह कॉपी
दिखाना और वे तुम्हें जो गल्तियां हैं बता देंगीं । मैनें घर जाकर अपनी माँ
को सब बातें बतायीं और उन्होंने पिताजी से कुछ बातचीत की । उस दिन के बाद
मेरी माता जी और पिता जी दोनों मुझे घर के दिये हुये काम में मदद करनें लगे
। करीब एक महीनें के बाद मैनें पाया कि मैडम जूलिया जो पहले सलवार और
कुर्ता पहन कर आती थीं अब पैंट और हाफ शर्ट पहन कर आने लगी हैं । हम सब
बच्चों पर इस पहनावे का अच्छा खासा रौब पड़ा क्योंकि वहाँ पर और कोई मैडम
पैन्ट शर्ट नहीं पहनती थीं । समय गुजरता गया मैडम जूलिया मेरी कापियां
देखती रहीं और उनके रिमार्क्स (Fair ) फेयर से (Satisfactory )
सैटिस्फैक्टरी होते हुये (Good ) गुड तक पहुँच गये । इस बीच मैं चौथी पास
कर पांचवीं में प्रमोट कर दिया गया । पांचवीं में भी मैथमेटिक्स और
अंग्रेजी पढ़ाने के लिये मैडम जूलिया को मेरे क्लास की जिम्मेवारी सौंपी गयी
थी । दरअसल वह अँग्रेजी साहित्य और मैथेमैटिक्स के साथ ग्रेजुएट थीं और
साथ ही एजुकेशन की डिग्री भी उनके पास थी । वे दसवीं तक इन दोनों विषयों की
क्लास लेने में सक्षम थीं । उनकी योग्यता के प्रति सारा मैनेजमेंट आश्वस्त
था और यद्यपि ईसाई होने के नाते अन्य अध्यापिकायें उन्हें अपनें से कुछ
अलग समझती थीं पर उनके मिलन सार स्वभाव नें किसी को उनका विरोधी नहीं बनाया
था । हाँ क्रिश्चियन होने के नाते उनका पहनावा औरों से कुछ अलग जरूर था ।
कक्षा पाँच में मैं उनके और नजदीक आ गया वे अक्सर मुझे बुलाकर घर में किये
गये काम को बार -बार देखती और नये -नये सुझाव देतीं । लक्ष्मी सिलाई
फैक्ट्री का कैम्पस उसी रास्ते पर पड़ता था जिससे होकर चर्च वह जाती थीं ।
एक दिन स्कूल में जल्दी छुट्टी हो गयी । स्टाफ को मैनेजमेन्ट के प्रधान नें
किसी फंक्शन की बातचीत के लिये रोक लिया था । मैं चार बजे के करीब घर से
निकल कर फैक्टरी के मेन गेट से बाहर आकर सड़क के पास एक खुले मैदान पर खेलने
के लिये जा रहा था । रास्ते में गुजरते हुये मैडम जूलिया नें हमें देख
लिया और हाथ से मुझे पास आने का इशारा किया । मैं दौड़कर उनके पास गया
उन्होंने कहा ," श्रीकान्त ,You Live here ." मैनें कहा Yes mam ! उन्होंने
कहा ," Your mother is at home?"मैनें कहा ,"Yes Mam ! उन्होंने कहा चलो
घर चलते हैं । I would like to meet your mother . मेरी माँ मैडम जूलिया
से कुछ ही वर्ष बड़ी होंगीं । बिहारी पण्डितों में सत्रह -अठ्ठारह की उम्र
आते -आते शादी हो जाती है और चौबीस पच्चीस होते -होते दो एक बच्चे हो जाते
हैं । पैन्ट पहन कर आती हुयी मेरी मैडम को देखकर पहले तो मेरी माँ कुछ
संकोच में आ गयीं फिर उन्होंने कहा श्रीकान्त जा कुर्सियां उठा ला यहीं
बाहर खुले में बैठेंगें । मैडम जूलिया की सरल बातचीत और सहज स्वभाव नें
मेरी माँ का मन जीत लिया उन्होंने मेरी माँ को बताया कि श्री कान्त का
दिमाग अच्छा है यदि इस पर ध्यान दिया जाय तो यह क्लास के सबसे अच्छे बच्चों
में आ सकता है । साथ ही उन्होंने मेरे सरल स्वभाव की प्रशंसा भी की ।
आज्ञाकारी और झगड़े फसाद से दूर रहने वाले विद्यार्थी मैडम जूलिया को पसन्द
थे ।
संसार में और कहीं कुछ रुक जाये पर समय की गति कभी नहीं रुकती । घड़ी टिक
-टिक करती रही और महीनों पर महीनें और फिर तीन वर्ष निकल गये । अब मैं
सातवीं पास कर आठवीं में आ गया था और क्लास के सबसे अच्छे चार -पांच बच्चों
में मेरा सुमार होने लगा था । मैडम जूलिया इस बीच मेरी माँ की अच्छी -खासी
दोस्त बन चुकी थीं । वे अनेक बार घर आकर माँ को नयी -नयी खानें की चीजें
बनाने का नुस्खा बताती थीं और कई बार उनकी बनायी हुयी चीजों का स्वाद भी
लेती थीं । उनकी प्रशंसा से माँ बहुत खुश होती थीं । मैं तो उनका चहेता
विद्यार्थी बन ही गया था । आठवीं क्लास को शुरू हुये लगभग एक महीना हुआ था
पता चला कि मैडम जूलिया अब हमें नहीं पढ़ायेंगीं उनकी जगह मैडम सुरेखा अरोड़ा
आ रही हैं । पता चला कि मैडम जूलिया की शादी तय हो गयी है और उनका होने
वाला पति आस्ट्रेलिया की एक बड़ी कम्पनी में इन्जीनियर है वे उसी के साथ
जाकर रहेंगीं । जाने के एक दिन पहले मैडम जूलिया मेरे घर आयीं ,माँ से
मिलीं और मेरे सिर पर हाथ रखकर कहा ," श्री कान्त keep rememberig me,
when I come back to India .I will meet you all in the school."
आठवीं पास करके नवीं और दसवीं में मैं स्कूल के टॉपर्स में मैं गिना जाने
लगा । इस बीच स्कूल दसवीं से आगे बढ़कर प्लस टू तक पहुँच गया था और उसे
केन्द्रीय बोर्ड की मान्यता भी मिल गयी थी । लगभग चार वर्ष बाद जब मैं
बारहवीं कक्षा के इम्तिहानों के लिये होनें वाली तैयारी में जुटा था स्कूल
में काफी चहल -पहल हुयी । पता चला कोई मैडम जूलिया अपनें पति इन्जीनियर
हूबर्ट के साथ स्कूल देखने आयी हैं । मैनेजमेन्ट के प्रधान उन्हें घूम -घूम
कर सारा स्कूल दिखा रहे हैं । मैडम जूलिया नें अपनी एक पुरानी कुलीग से
पूछा कि क्या श्री कान्त नामक लड़का अभी इस स्कूल में है ?उसकी कलीग नें
बताया कि श्री कान्त स्कूल का टॉपर विद्यार्थी है और आज से बारहवीं कक्षा
के इम्तिहान के लिये उसकी प्रिपरेशन लीव हो रही है । आज उसका आख़िरी क्लास
है और मैडम सुरेखा मैथमैटिक्स के कुछ प्रश्न समझा रही हैं । इन चार वर्षों
में मैं काफी लम्बा हो गया था । होंठों पर हल्के -हल्के रोयें निकल आये थे
और जेन्डर डिफरेन्सेस का भी मुझे ज्ञान हो गया था । मैडम जूलिया क्लास में
आयीं । उनके इन्जीनियर हसबैण्ड आफिस में ही बैठे थे । मैनें उन्हें देखा
पर मैनें न पहचाननें का बहाना किया । उन्होंने मुझे पहचान लिया और कहा ,
"श्री कान्त ,Well you have grown big . Please convey my Namaste to your
Mother ." किशोरा अवस्था के उस दौर में मैं सिर्फ यही कह पाया ,"Sure madam
sure ." आज मैं सोचता हूँ कि ये मेरी कितनी बड़ी नालायकी थी कि जीवन बनानें
वाली उस श्रेष्ठ अध्यापिका के प्रति मैं अपना आभार भी नहीं व्यक्त नहीं कर
सका । समय अबाध गति से बहता रहा । मैडम जूलिया के बनाये हुये आधार नें
मुझे इतना समर्थ कर दिया था कि मैं टेन प्लस टू के बाद रुड़की यूनिवर्सिटी
के सिविल इन्जीनियरिंग के कम्पटीशन में आ गया । डिग्री लेकर मैनें पोस्ट
ग्रेजुएशन किया और फिर सरकारी नौकरी में प्रवेश करके पंजाब के चीफ
इक्जीक्यूटिव इन्जीनियर के पद पर पहुँचा । आज पांच सितम्बर को अध्यापक
दिवस है । मैं सेवा निवृत्त हो चुका हूँ । मेरा पोता सन्दीप आज उसी स्थिति
में है जिसमें मैं साठ साल पहले था । मैडम जूलिया ,तुम इस संसार में हो या
नहीं ? मैं नहीं जानता पर जहाँ कहीं भी हो अपनें इस विद्यार्थी के प्रणाम
को स्वीकार करना । धिक्कार है उस कृतघ्न राष्ट्र को जो अपनें आदर्श गुरुओं
का आदर करना नहीं जानता ।
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