Wednesday, 11 January 2017

                                  हम वैज्ञानिक सोच और कार्य कारण विश्लेषक द्रष्टि का समर्थन इसलिये करते हैं क्योंकि इनके द्वारा भौतिक सत्य के निर्विवाद रूप तक पहुँचा जा सकता है । आत्मा की उल्लिखित ऊँचाइयों के लिये ज्ञान मार्ग एक सीमा तक ही हमें ऊपर पहुँचा पाता है । इस ऊंचाई के बाद अन्तर्साधना के द्वारा ही चेतना  के रहस्य भरे ऊँचें द्वार खुल पाते हैं । पर इन दिनों ऐसा लग रहा है कि विज्ञान भी एक आकर्षक साज -सज्जा से विभूषित होकरअरब -खरब पतियों के लालसा जाल में फंस गया है । अकाट्य प्रमाण पर आधारित होनें के कारण ही विज्ञान द्वारा पाये गये निष्कर्ष प्रबुद्ध समाज में स्वीकृत हो पाते है । यही कारण है कि जब आइंस्टाइन से परम सत्ता के अस्तित्व के विषय में प्रश्न किया गया तो उन्होंने उत्तर में कहा कि उन्हें किसी ऐसे मूर्त आकार में विश्वास नहीं है जो प्राणियों  के कर्मों   का लेखा -जोखा लिखकर विश्व विधान रच रहा हो । ऐसा इसलिये है क्योंकि उनकी गगन भेदी वैज्ञानिक द्रष्टि अभी तक इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं देख सकी है । पर उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें एक ऐसी परमसत्ता में विश्वाश अवश्य है जो इस आश्चर्यजनक ब्रम्हाण्ड को इतनें नियमित रूप से संचालित कर रही है । कल्पनातीत व्योम का प्रस्तार और असंख्य आकाश गंगाओं का संकुचन ,प्रस्फुटन और विघटन प्रकृति के किसी नियामक के बिना असम्भव ही  लगता है | इस आकाशव्यापी ,ब्रम्हाण्डीय विस्तार में ही उन्हें परम सत्ता के संगीतमय स्वर सुनायी पड़ते हैं । कुछ ऐसी ही बात महापुरुष गौतम बुद्ध नें भी अपनें शिष्यों से कही थी । सृष्टि संचालक के किसी शरीरी आकृति की संकल्पना के विषय में मौन रहकर बुद्ध नें असीमित विस्तार वाली प्रकृति की नियमितता से पाठ सीखनें की बात कही थी और अष्टपंथी अनुशासित जीवन पद्धति को स्वीकार करने पर बल दिया था । महान तपस्वी और महान वैज्ञानिक ,समग्र द्रष्टि से देखने पर एक ही कोटि के दिव्य चेतना पुंज होते हैं । उनकी उपलब्धियां अकाट्य होती हैं । विज्ञान का सत्य तो इतना वस्तुपरक होता है कि अपनी अन्तिम ऊंचाई पर वह अंकगणित की निर्विवादिता को भी धूमिल कर देता है ।(क्रमशः )




                   

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