अलग -अलग समाजों की अलग -अलग धार्मिक ,दार्शनिक मान्यतायें हैं । चेतन की उत्पत्ति और फिर एक अकल्पनीय अन्तराल के बाद मानव जाति का अवतरण न जानें कितनी अबूझ व्याख्याओं से घिरता -उलझता रहा है । पर अब विचारकों ,दार्शनिकों और समाजशास्त्रियों का लगभग सर्वमान्य सिद्धान्त यह है कि मानव जाति निरन्तर सभ्यता के नये और ऊँचें पायदानों पर अग्रसर हो रही है और पायदानों की यह ऊँचाइयाँ पिछले छूट गये सारे पायदानों पर सहेज कर रखे गये जीवन मूल्यों को चुनौतियाँ देनें लगी हैं । भारत के अधिकाँश परम्परावादी धार्मिक उपदेशक बार बार यह दोहराते रहते हैं कि नवजात शिशु सांसारिकता से मुक्त रहकर निश्च्छल भोला और सन्त स्वभावी भगवान् के सानिध्य की सुधि बटोरे रहता है । बड़ा होकर मानव माया की भ्रामक कोहिलकाओं में श्रष्टिकर्ता से अपनी डोर तोड़कर ऐन्द्रिक प्रलोभनों में भूल -भटक जाता है । कई समर्थ पाश्चात्य कवि ,विचारक और तत्वखोजी भी इस विचार धारा के समर्थक पाये जाते हैं । अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि Words Worth नें तो इस धारणा को अपनी बहुचर्चित कविताओं में बहुत प्रभावशाली अभिव्यक्ति दी है । सुशिक्षित 'माटी ' के पाठकों को मैनें स्वयं कई बार उनकी कविता की यह पंक्ति दोहराते हुये सुना है । " Trailing clouds of glory do we come from God,that is our home ." भारत के सन्त और महात्मा तो सारे संसार को माया का प्रपंच ही मानते हैं और इससे मुक्त होकर परम तत्व में लींन होनें को ही जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य मानते हैं । पर न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि बुद्धि का विकास ही मानव सभ्यता को और अधिक उत्कृष्टता की ओर ले जा सकता है । और बुद्धि के विकास का अर्थ है मानव जीवन को और अधिक सुखद बनानें के लिये नयी -नयी प्रकार की सुविधाओं का संचयन । धरती के खनिज यदि समाप्त हो जायँ तो अन्य ग्रहों के गर्भ गृह में छिपे खजानों की तलाश कर उनका दोहन करना और मानव के सुख के लिये उनका कल -कारखानों और उड़ान यानों में प्रयोग । यदि बचपन का भोलापन ही मानव का लक्ष्य होता तो राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों की सारी बड़ी -बड़ी पोथियाँ कूड़े के ढेर में फेंक दी जातीं । उपदेश अपनी जगह हैं ,पूजा -पाठ अपनी जगह है धर्म सम्प्रदाय अपनी जगह है पर धरती का सुख भी अपनी एक ठोस दार्शनिकता लेकर खड़ा है । खच्चर गाड़ी से लेकर उड़न तश्तरियों तक का सारा फैलाव मानव बुद्धि के बल पर इन्द्रिय सुख की तलाश ही है । यह कहना कि इन्द्रिय सुख केवल एक मरीचिका है व्यास पीठ से कहा जानें पर रुचिकर अवश्य लगता है पर मानव का सारा जीवन तो वास्तविकता के धरातल पर इन्द्रिय सुख की तलाश में ही कटता है । चलो यह तो हुयी बढ़ती हुयी उमर के साथ मष्तिष्क में चलती हुयी वैचारिक उधेङ -बुन की एक झलक। अब चलते हैं मानव जीवन की नाटकियता के कुछ पहलुओं पर प्रकाश डालनें की ओर । किशोरावस्था से कुछ पहले ही स्वांग ,नौटंकी ,भड़ैती ,प्रहसन और नाटक देखनें का शौक लग गया था । खुले मंच पर बीसवीं शताब्दी के पांचवें -छठे दशक में नगाड़े ,तबलों और ढोलों की भारी -भरकम चापों पर नारी वेश में सजे पुरुष अभिनयकार मन को भानें लगे थे । कुछ और बड़ा होनें पर सिनेमायी पर्दों पर मूक छवि चित्र प्रभावित करने लगे और फिर आयी बोलते हुये चल चित्रों की छवीली झाँकीं । जहाँ पहली बार नारी का अभिनय नारी नें करना शुरू किया । प्रारम्भ में कम से कम उत्तर भारत के कुलीन परिवारों में नारी का पर्दे पर अवतरण अभिजात्य परम्परा का सूचक नहीं था पर फिर तो परदे पर रूप की छटा फेंक कर दर्शकों का मन लुभाना पूजा -पाठ से भी अधिक पवित्र कार्य मान लिया गया । हम सिर्फ यह कहना चाहते हैं कि जैसे मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन के नाटकीय उतार -चढ़ाव बदलते रहते हैं वैसे ही सभ्यता द्वारा स्वीकृत सामाजिक मान्यतायें भी अपना रूप बदलती रहती हैं । आज तो परिस्थितियां यह हैं कि अधिकाँश सभ्य कहे जानें वाले देशों का राजतन्त्र रंग कर्मियों के आस -पास घूमता है । अधेड़ होते ही नाटक देखनें का शौक भी समाप्त प्राय हो चला । जीवन नाटक के अनेक द्रश्य और कुछ एक्ट ख़त्म हो जानेंके बाद सांसारिकता से अरुचि होनें लगती है । व्यक्तिगत रूप से सांसारिकता से मुक्त होकर भी राजनीति की सांसारिकता में भी मन रमनें लगता है । भारत की राजनीति में आजकल इतनें नाटकीय द्रश्य उभर कर आ रहे हैं कि उन्हें देखकर पिछली देखी गयी सारी नौटंकियां और नाटक फूहड़ से दिखायी पड़नें लगते हैं । देश की 'माटी ' नें न जाने कितनें प्रातः स्मरणीय महापुरुष पैदा किये । आंधियां आयीं और चली गयीं । अन्धड़ उठे , काफी कुछ बटोर कर ले गये । हर काल में राजनीतिक नाटकों का कथ्य और कलेवर बदलता रहा । यह तो इतिहासकार ही बतायेंगें कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद भारतवर्ष में केन्द्र और राज्य के स्तर पर जो शासन तन्त्र आये हैं उनमें नाटकीयता की मात्रा पहले युगों से अधिक है या कम पर 'माटी ' के संपादक को तो ऐसा लगनें लगा है कि भारत की राजनीति की नाटकीयता इतनी लुभावनी हो उठी है कि इसमें रामनवमी और जन्माष्टमी से भी अधिक आनन्द आने लगा है । लक्ष्य -लक्ष्य भारत की अभाव ग्रसित नर- नारी तमाशायी आनन्द में अपना दुःख भुलानें का एक निरन्तर चलने वाला स्वांग देखते रहते हैं और इस प्रकार उनकी जीवन लीला समाप्ति की ओर बढ़ती जाती है । सनातन धर्म यह मानता है कि हर युग में धर्म के उत्थान ,सज्जनों की सुरक्षा और अन्यायियों के विनाश के लिये महाशक्ति नया -नया रूप लेकर अवतरित होती रहती है । भारतवर्ष में न जानें कितनें ऐसे अवतरण और संस्करण हैं जो अपनें को परम चैतन्य का भेजा हुआ दूत मान रहे हैं पर उम्र की बढ़ती हुयी दहलीज पर खड़ा होकर मेरी आँखों का धुँधलापन उनमें ईश्वरीय झलक नहीं देख पाता । मुझे तो सिर्फ मिट्टी के भांडों पर होशियारी से की गयी चमक -दमक भरी सुनहली परते हीं दिखायी पड़ती हैं । मुझे तो अब भी खेतों -खलिहानों में ,गली -वीथियों में ,श्रमरता मजदूर और मजदूरनियों में और मर्यादित आचरण करती हुयी गृहस्ती चलाने वाली भारत की करोड़ों बहन -बेटियों में सच्ची मानव सभ्यता की पवित्र झलक देखनें को मिलती है । राजनीति की झांकियां देखते जाइये पर हमें उनकी लुभावनी झलक में अपनें सन्तुलन को खोना नहीं चाहिये । मेरा यह मानना है कि दिल्ली और लखनऊ की सरकार हमारे भाग्य का निर्माण नहीं कर सकतीं । । यह सरकारें तो सामयिक मूल्यों को केवल एक तीब्र गतिमयता ही प्रदान कर सकती हैं और ऐसा भी तब जब उनमें स्वयं आचरण ,चिन्तन और निर्माणी संकल्पों का साहस हो । अपना भाग्य तो हमें स्वयं बनाना है । मैं चाहूँगा कि 'माटी ' के युवा पाठक -पाठिकाओं के बाबा ,दादा और नाना इस आशा के सहारे लम्बे जीवन की कामना न करें कि उन्हें सरकार से 300 ,500 या 700 की बुढापा पेन्शन मिलती रहेगी ।वे ऐसा गर्व भरा लम्बा जीवन जीनें के हकदार बनें जो अपनें स्वजनों पर अधिकार पूर्ण दायित्व लादकर भारतीय मर्यादा में श्री वृद्धि करें । पराश्रित ,भले ही वह राजाश्रय क्यों न हो जीवन की नकारात्मक स्वीकृति है । जीवन नाटक में सार्थक अभिनय का तभी कोई अर्थ रह जाता है जब हम भिखारी का कोई भी वेष स्वीकार करनें के लिये परिस्थितयों से बाध्य न हों । स्वाभिमान की इस ललकार के साथ 'माटी 'युवाओं को अपनें बुजुर्गों के प्रति सहज भाव से अपना उत्तरदायित्व निभानें का आवाह्न करती है और वार्धक्य की मार झेल रहे भाई -बहनों से भी यह आश्वासन चाहती है कि वे यथा संभ्भव अपनें शेष जीवन को स्वावलंबन के यापन करनें की आशावादिता को बढ़ावा दें । कभी सहस्त्रों वर्ष पूर्व भादौं की एक अंधेरी अधरात में भारतवर्ष के उत्थान की एक चमत्कारी आभा झलकी थी । कहीं कुछ ऐसी ही आभा यदि फिर से झलकने लग जाय इसी आशा के साथ 'माटी ' का संपादक अपनें पाठकों के साथ रूबरू हो रहा है ।
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