Sunday, 11 December 2016

                            सम्पादकीय अभिव्यक्ति में सृजनात्मक अभिव्यक्ति की सी सहजता ला पाना लगभग असंभ्भव सा हो जाता है यही कारण है कि अधिकतर सम्पादकीय पत्रिकाओं के कलेवर में सिमटे हुये लेखों,आलेखों और अन्य विविध संरचना प्रकारों पर छोटी -मोटी टिप्पणियां देकर समाप्त कर दिये जाते हैं । 'माटी' इस दिशा में सम्पादन और सृजन दोनों का संतुलन बनाये रखने का प्रयास करती रही है । इस प्रयास की अपनी सीमायें हैं । पर यदि असीम का निर्वाध प्रसार हमें मुक्त करता है तो सीमान्तों से घिरा सजा संवरा सौन्दर्य भी हमें मुग्ध कर लेने की क्षमता रखता है । आज के बदलते युगीन परिद्रश्य में एशिया महाद्वीप के कुछ विशाल भूखण्ड संयुक्त राष्ट्र अमरीका और योरोपीय महासंघ को अपना अभिमान छोड़ देनें के लिये विवश कर रहे हैं । उन्नीसवीं शताब्दी यदि योरोप की थी तो बीसवीं शताब्दी संयुक्त राष्ट्र अमरीका की । अब ऐसा लगनें लगा है कि इक्कीसवीं शताब्दी में उच्चतम स्थान की ओर एशिया महाद्वीप के कुछ भू -भाग दावेदार बन जायें । सुदूर अतीत में भारत नें जो गौरव पाया था और जिस गौरव से क्षीण होकर वह काफी लम्बे काल तक उपेक्षाऔर अपमान का शिकार होता रहा  वह गौरव या कम से कम उस अद्दभुत गौरव की स्वर्णिम चमक अब उस तक पहुंचने लगी है । आर्थिक प्रगति का बीसवीं शताब्दी के नवें  दशक से प्रारम्भ होनें वाला अध्याय निरन्तर विस्तार पाता जा रहा है और संसार के विकसित कहे जानें वाले देश चकित होकर भारत की विकास संभ्भावनाओं के प्रति हल्की -फुल्की प्रशंसा की बातें करने लगे है । हमें इस प्रशंसा से प्रमादग्रस्त होकर प्रगति के रास्ते से भटक जाना आत्मघात जैसा ही होगा । कैसे और कब ये हल्की -फुल्की प्रशंसा ठोस और वास्तविक प्रशंसा में बदले इस दिशा में ही भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली प्रत्येक केन्द्रीय और राज्य स्तरीय सरकारों को प्रयत्नशील रहना होगा । जनतन्त्र में कुछ छोटे -मोटे आर्थिक उपादानों की समीचीनता पर भिन्न -भिन्न राजनीतिक विचारधारायें प्रश्न चिन्ह लगाती चलती हैं । पर हर राजनीतिक पार्टी का यही लक्ष्य होता है और होना ही चाहिये कि देश किस प्रकार आर्थिक प्रगति के शिखर पर पहुँच जाये । एक समय था जब मानव हिन्दू इकनामी के नाम पर आर्थिक प्रगति को दो या तीन प्रतिशत आर्थिक विकास दर से अधिक कभी  नहीं आका  जाता था । और अब नौ प्रतिशत का स्तर छू लेनें के बाद विदेशी अर्थशास्त्रियों की निगाहें प्रशंसा भरे आश्चर्य से हमारी ओर देखनें लगी हैं । हिन्दू इकनामी के लिये पाया हुआ यह नया गौरव समूची हिन्दुस्तानी जनता के लिये एक ईश्वरीय वरदान है।  हमें यह कभी भूलना नहीं चाहिये कि आर्थिक सम्पन्नता के बिना जनतान्त्रिक स्वतन्त्रता के और सभी दावे खोखले लगनें लगते हैं। सामरिक श्रेष्ठता और उच्चतम वैज्ञानिक उपलब्धि भी सुदृढ़ आर्थिक तन्त्र के अभाव में धराशायी हो जाती है । यूनाइटेड स्टेट आफ सोवियत रशिया का विघटन मूलतः आर्थिक आधार का लचर होना ही था हमारे पड़ोसी और हमसे अधिक विशाल भू भाग और आबादी रखने वाला महादेश चीन U.S.S.R. के विघटन से ही सबक सीख कर नयी आर्थिक रणनीतियां तैय्यार करने में सफल हुआ है । आधुनिक चायना अब गौतम बुद्ध के मध्यम मार्ग से अलग हटकर वैभव को ही गौरव माननें के लिये प्रस्तुत दिखायी पड़ता है और इसी लिये यह नारा दे रहा है " To be wealthy is desirable ,to be prosperous is honourable." जनतन्त्र को एक राजनीतिक पार्टी के जनतन्त्र में बदलकर चाइना नें आर्थिक प्रगति की आश्चर्यजनक मिशाल पेश कर दी है । विश्व में 1/ 5 प्रतिशत मानव  जाति को अपनें में समेटे चीन का विशाल भू -भाग इन दिनों हर चौथे वर्ष अपनी आर्थिक सम्पन्नता को दुगना करता जा रहा है और निश्चय ही आज विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति अमरीका के वर्चस्व को एक गहरी चुनौती पेश होनें जा  रही है । हिन्दुस्तान का जनतन्त्र स्वतन्त्रता की परिभाषा को अभिव्यक्ति और विचारधारा की स्वतन्त्रता के साथ जोड़कर देखता है । यही कारण है कि भारत में अनेक राजनीतिक पार्टियां हैं और उनमें सत्ता प्राप्ति के लिये सदा जोड़ -तोड़ होते रहते हैं । इन परिस्थितियों में एक पार्टी जैसा आर्थिक विकास संभ्भव नहीं हो पाता पर जनतन्त्र की सच्ची राह पर चलते हुये भी भारत नें जो  कर दिखाया है वह भी सचमुच आश्चर्यजनक ही है । विचारकों में दोनों मत प्रचलित हैं । कुछ कहते हैं इतिहास अपनें को सदैव दोहराता है । कुछ कहते हैं इतिहास अपनें को कभी नहीं दोहराता । पर हम भारतवासी कालचक्र में विश्वास करते हैं । काल निरन्तर चलायमान है और वह एक सीधी रेखा में नहीं चलता ,उसकी गति चक्राकार है । जो शीर्ष बिन्दु पर है वह चक्राकार गतिमयता में नीचे आ जाता है और अधोस्थित बिन्दु ऊर्ध्वगामी गति अर्जित कर लेता है । कभी ब्रिटिश साम्राज्य में सूरज नहीं डूबता था आज कॉमन वेल्थ गेम्स  में भी वह शीर्ष स्थान पाने का अधिकारी नहीं रहा है । क्या पता कुछ एक दशकों की  दौर  में भारत चीन को पछाड़ कर आज विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में लगे वैज को उतारकर विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति होने के वैज पानें का अधिकारी बन जाय । संसार के कुछ प्रसिद्ध अर्थशात्री जिनमें हमारे देश के पूर्व प्रधानमन्त्री मन मोहन सिंह भी हैं ऐसा मान कर चल रहे हैं कि 2050 तक भारत विश्व आर्थिक परामिड के सबसे ऊँचे शिखर पर जा खड़ा होगा । "माटी ' के अनेक वयः प्राप्त रचनाकार तब तक शायद न रहें पर उनके लिये इससे बड़ा सन्तोष और क्या हो सकता है कि राष्ट्र की भावी सन्तति शताब्दियों से भुगत रहे गरीबी के शाप से मुक्त हो जायेगी । आर्थिक सम्पन्नता और सामरिक अजेयता पाकर भी भारत दंभ्भ की डीगें नहीं हांकेगा ब्रिटिश साम्राज्य सा ही और अमरीका की अप्रत्यक्ष राजनीतिक साजिशें उसके भविष्य के इतिहास का अंग नहीं होंगीं । ऐसा इसलिये होगा कि भारत के पास भरत हैं ,बुद्ध हैं ,गान्धी हैं ,और हैं उसके वे पूज्य सहस्त्रों त्यागी महापुरुष जो अखबारी चर्चा से दूर मानव कल्याण के लिये अपना सर्वस्व निछावर कर रहे हैं । 'माटी ' का संपादक इसी अचर्चित पंक्ति में खड़ा होकर अपनें को गौरवान्वित अनुभव करेगा । 

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