Friday, 16 December 2016

एक मात्र सत्य

कल तक
इन वाणों की नोकों से
सहस -सहस शत्रु -सिर
छेदे थे
कल तक
इस धनु प्रत्यन्चा से
खींच शर
लाखों लक्ष्य भेदे थे
कितना अभिमान था
अप्रतिम ,अपराजित होनें का
मिथ्या दंभ्भ ढोनें का ।
 शरों की नोंकें आज भोंडी हैं
धनु की प्रत्यन्चा अलसायी है
लक्ष्य की खोज में लगी
बूढ़ी आँखों पर

बदली सी छायी है ॥
गोपियाँ लुट रहीं
विनत नेत्र कुन्ती पुत्र हारे हैं
गीता के गवैय्या से
दूर हो
निपट बेसाहारे हैं ॥।
 दस -सिर नें
काल को पाटी बाँध
एक भ्रम पाला था
प्रकृति नें उसे किसी ,
अमिट ,अविनश्वर
साँचें में ढाला था
दस सिर धूल में डोले थे
वेदों का सार तत्व बोले थे
सभी कुछ असत्य है
काल का कालातीत
अनवरत ,अप्रतिहत प्रवाह ही
एक मात्र सत्य है ॥।


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