आप पूछ सकते हैं- और यह पूछना सर्वथा उचित ही होगा -हिन्दी में निकल रही न जाने कितनी पत्रिकाओं और प्रसारिकाओं के बावजूद 'माटी ' के प्रकाशन की क्या आवश्यकता आ पडी ?ऐसा तो नहीं कि यह पत्रिका आपकी पहचान शून्यता को भरने का खोखला उपाय है -या कि आपके व्यक्तित्व की पराजित मनोचेतना छपाई के माध्यम से कोई मनोवैज्ञानिक उपचार तलाश कर रही है ? और भी अनेक उलटे -सीधे ,उलझे -सुलझे प्रश्न इस बारे में उठाये जा सकते हैं। इस सन्दर्भ में मुझे मात्र इतना ही कहना है कि इस भू ग्रह पर मेरी जीवन यात्रा का अपना एक अनुभव है और वह मुझे विशिष्ट और निराला लगता है । भले ही दूसरों के लिये उसमें कुछ नया न लगे । मेरा विश्वास है कि इस धरती पर मेरे आगमन और सफर के दौरान संचित जीवन मूल्य बाहरी दुनिया से संचयित होने के बाद मेरी आन्तरिक चेतना की अग्नि में पककर मेरी अपनी विशिष्टता की छाप पा चुके हैं अतः मुझे उन जीवन मूल्यों को व्यक्त करने का और समकालीन सृजनात्मक मनीषा में समानान्तर उभर रहे साथियों के सहयोग पाने का पूरा अधिकार है ।' माटी 'का प्रकाशन इस दिशा में एक प्रारम्भिक कदम है । हो सकता है एक -एक कदम आगे बढ़कर हम मानव निर्माण की उस मंजिल पर बढ़ चलें जो कहीं मानव समानता के आदर्शों की ओर पहुँचाती है , हो सकता है कि कुछ सिर फिरे साथी मेरे साथ चल पड़ें और फिर काफिला बन जाये और फिर अकेला भी चलना हो तो उसमें संकोच क्या ? क्योंकि खोना कुछ है ही नहीं ,एकान्त में ही आत्म अनुभूति का सच्चा ज्ञान हो पाता है । न जानें मुझे ऐसा क्यों लगता है कि 'माटी' से कटकर कॉन्क्रीट की मीनारों पर जा खड़े हुये हैं ? हम से मेरा अर्थ है हिन्दी भाषा -भाषी राज्यों का मध्यम वर्गीय जन समुदाय । मध्यम वर्ग में भी यों तो कई स्तर हैं और सबसे निचले स्तर के घरों में अभी 'माटी ' की गन्ध आती है । पर ज्यों -ज्यों हम स्तर की ऊँचाई की ओर बढ़ते हैं यह गन्ध खडखडिया वाहनों की विषाक्त वहिर्गत साँसों में बदलती जाती है । माना कि तकनीकी युग में वृन्दावन में होने वाली रासलीला की कल्पना ,उपहास की बात बन जाती है माना कि संचार प्राद्योगिकी के युग में प्रवासी के गीतों की बात बचकानी लगती है माना कि अनुष्ठान से पवित्र नर -नारी सम्बन्ध की कल्पना प्रगतिशील कहे जाने वाले नर -नारियों के ओछे मजाक का विषय बन चुकी है पर मुझे कुछ ऐसा लगता है कि मैं अपनें पूरे जीवन भर अप्रगतिशील कहे जाने का बोझ उठाना अच्छा समझूँगा बजाय इसके कि मैं भारत के सांस्कृतिक अतीत और चिर प्रेरक जीवन मूल्यों से कट जाऊँ और मैं समझता हूँ कि मेरे जैसे कोटि -कोटि प्रौढ़ और बृद्ध तो इस चिन्तन में मेरे साथ खड़े ही होंगें पर सम्भवतः कोटि -कोटि तरुण भी इन मुद्दों पर मेरे साथ खड़े होनें में अपनी हेठी नहीं समझेंगें । यह सत्य है -अटूट और निर्विवाद सत्य- कि काल सबको खा जाता है पर यह भी उतना ही अटूट और निर्विवाद सत्य है कि मानव सभ्यता में कहीं कुछ ऐसा भी है जो कालजयी है और जिसके बिना सभ्य मानव की कल्पना भी नहीं की जा सकती । इन्हीं जीवन मूल्यों में है नर -नारी के शारीरिक सम्बन्ध की नैष्ठिक पवित्रता । इन्हीं जीवन मूल्यों में है पशु प्रवृत्ति से पायी गयी काम चेतना पर सभ्यता द्वारा निर्धारित संयम व्यवस्था । इन्हीं जीवन मूल्यों में शामिल है वैभव के बेलगाम प्रदर्शन पर ज्ञानी पुरुषों का आक्रोश और सच्चे सन्तों द्वारा उसकी भर्त्सना । वैदिक ऋचाओं से लेकर बुद्ध और गांधी तक आने वाली अपरिग्रह की विचाधारा यदि आधुनिक अर्थशास्त्र नकारता है तो उसे 'माटी 'स्वीकार नहीं करती । 'माटी ' का और 'माटी ' से जुड़े हुये सामान्य जन व मनीषियों का यह निरन्तर प्रयास रहेगा कि जनता के लिये विधि पूर्वक भेजे गये सौ पैसे सत्रह या पाँच बनकर उन तक न पहुँचें । इस दिशा में निन्यानवे का चक्कर 'माटी 'स्वीकार करती है । सौ की पूरी संख्या तक पहुंचानें के लिये वह सदैव संकल्पित रहेगी । यक्ष के प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठिर का यह बताना कि दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य यही है कि लोग अपने आस -पास निरन्तर मरते हुये व्यक्तियों को देखते हैं और फिर भी वे दुष्कर्मों की ओर और तेजी से झुकते हैं यह मानकर कि मृत्यु उनके पास आयेगी ही नहीं । हमें इन पथ भ्रष्ट नर पशुओं को मृत्यु का यह अहसास देना है जो उन्हें आचरण की पवित्रता पर सोचनें को बाध्य करे । हमारा प्रयास है कि 'माटी 'आप तक ताजी कटी हुयी फसलों की सुगन्ध को पहुचाये । हमारा प्रयास है कि 'माटी 'आपको ' तमसो मा ज्योतिर्गमय 'के व्यवहारिक रूप से रूबरू करे । हमारा प्रयास है कि 'माटी 'बिल्लेसुर को विल्वेश्वर और बलचनमा को बालचंद्र के रूप में देखने के लिये प्रेरित करे पर उन्हें अपनी मिट्टी में ही खड़ा करके विकसित होनें दे । हम जानते हैं कि यह भगीरथ प्रयास है । हम जानते हैं कि यह टिटहरी का समुद्र भर देने का निष्फल प्रयास है । हम जानते हैं कि यह गिलहरीका लोटपोट कर सेतु निर्माण में सहयोग करने की सी हास्यास्पद योजना है पर फिर भी न जाने क्यों 'माटी ' का संयोजक मण्डल और प्रेरक पुरुष चक्र मर मिटने की अदम्य लालसा लेकर आगे चल पड़ा है । अधूरे प्रयासों की श्रृंखला भी मानव विकास की चिरन्तन प्रक्रिया में अनुल्लेखनीय नहीं मानी जानी चाहिये । और फिर क्या पता अमस की पर्तों में ज्योति किरण कोई मार्ग बना ही ले । यह ठीक है कि हम सब मिट्टी के मटके हैं पर क्या यह आश्चर्य नहीं है कि मिट्टी का मटका भी राम -राम बोल लेता है । कवि की यह पंक्ति 'Dust Thou art ,to dust returneth ." एक अकाट्य सत्य है । पर एक ऐसी माटी भी होती है जो कभी नहीं मरती -जो मरण में से भी चिरन्तन जीवन के बीज स्फुरित करती है । 'माटी 'उपनिषद के मनीषियों को जन्म नहीं दे सकती ,न ही 'माटी ' के माध्यम से बुद्ध ,गांधी , मार्टिन लूथर या मण्डेला आ पायेंगें पर 'माटी ' निश्चय ही किसी सूरदास (रंगभूमि ),बावन दास (मैला आँचल ),किसी पवेल (माँ )किसी दशरथ मांझीं (बिहार )या किसी बिलकिस बानों (गुजरात )को आगे ला पायेगी ऐसा हमारा विश्वास है ।
No comments:
Post a Comment