Wednesday, 31 August 2016

                       पौराणिक साहित्य के बहुचर्चित कथाकार नरेन्द्र कोहली जी की कल्पना है कि श्रष्टि नियन्ता एक बहुत बड़ा उपन्यासकार है । वह न जाने कितनें पात्रों का सृजन करता है  और कथा सूत्र से उसका सम्बन्ध विच्छेद हो जाने पर उन्हें समाप्ति की ओर मोड़ देता है । संसार का घटनाक्रम इन्हीं जीवन्त अर्धमृत या असमय समाप्त कर दिये जाने वाले पात्रों के संयोजन और बिखराव को दर्शाता हुआ चलता रहता है । सत्य यह है कि मानव प्रकृति की कोई प्रामाणिक व्याख्या प्रस्तुत  नहीं की जा सकती । जितनी भी व्याख्यायें अतीत से लेकर वर्तमान  तक प्रस्तावित की गयी हैं उनमें केवल आंशिक सत्य ही  है । मानव  प्रकृति में परस्पर  विरोधी विचार श्रखलाओं का इतना गूढ़ गम्फन मौजूद है कि उसका कोई शत -प्रतिशत वैज्ञानिक विश्लेषण संभ्भव ही नहीं हो सकता । योजनाओं की सफलता या आंशिक अथवा सम्पूर्ण सफलता कई  बार सांस्कृतिक टकराव के उन कारणों से उत्पन्न हो जाती है जिन पर मानव जाति का कोई अधिकार ही नहीं रह पाता । इसीलिये संसार के हर धर्म में दैव की परम्परा विद्यमान है । दैव को  कई बार  भाग्य के नाम से भी सम्बोधित किया जा सकता है । पूरी योजनायें अपनी सम्पूर्ण वैधानिक ताम -झाम के बावजूद न जाने कितनी बार नकारात्मक प्रभाव उपस्थित करती हैं । ऐसा इसलिये है मानव समूहों के भिन्न -भिन्न सांस्कृतिक पैरोकार लक्ष्यों की एकता को निरन्तर चोट पहुँचाते रहते हैं । हम क्या चाहते हैं और हमारे सम्पूर्ण प्रयास हमारी चाह को साकार करने के लिये प्रयत्नशील होकर भी नाकाराकत्मक उपलब्धि क्यों देते हैं । इसकी कोई शत -प्रतिशत वैज्ञानिक व्याख्या नहीं की जा सकती है । यहां हमें दैव या भाग्य का आलम्बन स्वीकार करना होता है । राष्ट्रों की मित्रता या और वैमनष्य भी मानव समूहों की इसी प्रकृति से निर्धारित होता है । यह तो बार -बार कहा ही जाता है कि राजनीति में कोई भी सदैव स्थायी रहने वाला मित्र या शत्रु नहीं होता पर ऐसा कहनें में भी एक बहुत बड़ा सत्य छिपा हुआ है कि मानव समूहों की मित्रता या वैमनस्य भी किसी स्थायी आधार पर सुनिश्चित नहीं होते । यह कहना कि पाकिस्तान कभी भी भारत का निश्च्छल साथी नहीं बन सकता या चीन कभी भी भारत की प्रभुता को खुले दिल से स्वीकार नहीं कर सकता एक सामान्य धारणा पर ही आधारित है । मानव इतिहास में दस ,बीस या पचास वर्ष की अवधि का क्षणिक महत्त्व ही होता है । कई पीढ़ियों के बाद अप्रत्याशित बातें होती दिखायी पड़ती हैं । किसी छोटे से राष्ट्र में अचानक कोई विश्व का सबसे बड़ा खिलाड़ी निकल आता है या किसी उपेक्षित मानव समूह में कोई आदर्श इतिहास पुरुष उभरकर दिखायी पड़नें लग जाता है । विज्ञान ,टेक्नालॉजी और अन्तरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में भी अनजाने क्षेत्रों से अद्द्भुत प्रतिभायें निखरती दिखायी पड़ती हैं । इन सब पर विज्ञान की कार्य कारण परम्परा पूरी तरह से लागू नहीं की जा सकती । यहां पर हमें दैव या भाग्य का अस्तित्व स्वीकार करना पड़ता है । जिस प्रकार गगन में बनती -बिगड़ती निहारिकायें व्यख्याओं से घिर कर भी व्याख्याओं का उपहास उड़ाती हैं उसी प्रकार मानव जाति को प्रभावित करने वाली सांस्कृतिक घटनायें भी  चिन्तन  के सारे दायरो से आगे निकल जाती हैं । इसीलिये अपनी पूरी सामर्थ्य लगाकर भी नास्तिकता की धारणा मानव समाज को अपनी जकड में बाँध कर नहीं रख सकती । दैव या भाग्य या प्राकृतिक विधान या संयोग जैसी शब्दावलियाँ इसी सत्य को अभिभाषित करती हैं कि कोई भी लक्ष्य केवल राजनीतिक प्रयासों से नहीं पाया जा सकता उसके लिये समय का देवता ही प्रबल सहायक के रूप में यदि खड़ा हो जाय तो उपलब्धि की चरम सीमा भी पायी जा सकती है । स्वातंत्रत्योत्तर भारत में सारी गन्दगी के बावजूद राजनीतिक उत्थान के कुछ सार्थक प्रयास किये गये हैं और उसके अपेक्षित परिणाम भी मिले हैं पर अपेक्षाओं का दायरा गन्तीय विधान से नहीं बढ़ता बल्कि अपनी बढ़त के लिये ज्यामतीय विधान की प्रक्रिया का चुनाव करता है । अतः लक्ष्य के सम्पूर्ण प्राप्ति की संकल्पना आदर्श की संरचना की तरह केवल एक आभाषित सत्य है । भारत में इसीलिये मनुष्य के सारे प्रयासों को प्रभु को समर्पित कर देने की सांस्कृतिक परम्परा को भारत नें स्वीकारा है फिर भी मानव होकर हम हाँथ पर हाँथ धर कर नहीं बैठे रह सकते । लक्ष्य की ओर चलना ही हमारा उद्देश्य है । एक पीढी अपनें भीतर की ऊर्जा आने वाली पीढी को दे देती है और इस प्रकार कर्म की मशाल निरन्तर जलती रहती है । प्रकाश का यह वृत्त चारो ओर अँधेरे से घिरा होता है । पर उसकी सीमाओं में उसके प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता । जय प्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रान्ति अपनी ईमानदारी के बावजूद अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं कर पायी थी । हम सब भी सम्पूर्ण मानव को विकसित करने के प्रयास में कहाँ तक सफल हो पायेंगें यह तो भविष्य ही बतायेगा । दैव जानता हो तो जानें पर हम सब आदर्शों की ओर चलते तो रहेंगें पर परिणाम के विषय में केवल यही कहते रहेंगें " नैवं जानाति ,नैवं जानाति ।"

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