विश्व के सभी समर्थ भाषाओं के महाकाव्यों में युद्ध में दिखायी गयी वीरता और निडरता को मानव जाति के सर्वश्रेष्ठ गुण के रूप में चित्रित किया गया है । भारत के महाकाव्यों के नायक या यूनानी महाकाव्यों के नायक महान युद्धों में अपनी अद्दभुत वीरता ,युद्ध कौशल और शस्त्र चालन निपुणता में अमर कीर्ति के अधिकारी बने हैं । विश्व के सभी देश इस होड़ में लगे रहते हैं कि वे अपने को दूसरे देशों से अधिक शूरवीर ,बहादुर और रणनीति मर्मज्ञ मान लिये जायँ । हिटलर और मुसोलनी के काल में तो आदर्शहीन हत्यारा बनना ही जर्मनी और इटली को फासी और नाजी फौजियों का धर्म बना दिया गया था । अब कुछ स्थिति बेहतर है पर फिर भी औसत ब्रिट अपने को औसत भारतीय से बहादुर समझता है । और औसत अमेरिकन फ़ौजी अपने को अन्य देश के सभी फौजियों से बेहतर रणनीति का सूझ -बूझ रखने वाला मानता है । चीनियों की हेकड़ी की बात ही क्या की जाय उनका ख्याल है कि धरती पर उनकी जैसी लड़ाकू कोई कौम ही नहीं है । बुद्ध आये चले गये 'ईसा आये चले गये ,गाँधी आये चले गये । प्यार ,शान्ति और अहिंसा के गीत चारो और सुनायी पड़ते हैं पर जमीनी हकीकत कुछ और ही बताती है । । दुनिया का हर छोटा -बड़ा देश युद्ध की तैय्यारी में लगा रहता है । छोटे देश जनता कल्याण के कामों पर इतना खजाना ख़त्म नहीं करते जितना कि सामरिक हथियारों की विक्री पर । तकनीकी द्रष्टि से पूर्ण विकसित न होने के कारण कुछ बड़े देश भी रक्षा मंत्रालय पर राष्ट्रीय आय का काफी बड़ा प्रतिशत खर्च कर देते हैं । विकसित देश अपनी निरन्तर परिशोधित टेक्नालॉजी से नये -नये सामरिक शस्त्रों का निर्माण कर अविकसित देशों में संघर्ष कराने का षड्यंत्र रचते रहते हैं ताकि उनके शस्त्र ,वायुयान और नर संहार के बेधक और अचूक Weapons अधिक से अधिक संख्या में बिक सकें । सामरिक द्रष्टि से दुनिया के दो तीन सबसे विकसित देश ,संयुक्त राष्ट्र अमरीका ,रूस और चीन अपनी अधुनातन संहारक टेक्नालॉजी का नाजायज फायदा उठाकर दुनिया के चौकीदार बनने की कोशिश कर रहे हैं । फ्रांस ,जर्मनी और इंग्लैण्ड सामरिक श्रेष्ठता की द्रष्टि अब अधिक महत्व नहीं रखते पर फिर भी वे टेक्नालॉजी की उस सीढ़ी पर खड़े हैं जहाँ से वे अपनी आवश्यकताओं के लिये अपने साधनों से ही पूर्ति कर सकते हैं । एशिया में भारत और पाकिस्तान शान्ति की बातों के बीच एक दूसरे को अपनी घुड़कियाँ दिखाते रहते हैं पर उनकी अपनी देशी टेक्नालॉजी या तो अविकसित है या अर्ध विकसित है । पकिस्तान तो जहाज़ों ,शस्त्रों मारक आयुधों ,और अन्य सभी आधुनिक संहारक प्रणालियों के लिये अमरीका पर पूरी तरह निर्भर है और अमरीका है जो उसे नये -नये किस्म के जहाज़ों ,टैंकों और बेधक तोपों से लैस करता रहा है । ऐसा वह यह कहकर करता रहा है कि इन आधुनिक जहाज़ों और शस्त्रों के बल पर पाकिस्तान तालिबान के खिलाफ अमरीका की मुहिम को और तेज कर आतंकवादियों का नेट वर्क तोड़ देगें । पर भारत के विदेश मन्त्री न जाने कितनी बार दोहरा चुके हैं कि अमरीका से पाये हुये जहाज़ों और हथियारों का प्रयोग भारत के खिलाफ भी किया जा सकता है और अमरीका को मिलिट्री सामान की किसी भी नयी सप्लायी के पहले भारत से सलाह -मशविरा करना चाहिये पर संयुक्त राष्ट्र अमरीका आज दुनिया का हेड कानिस्टिबिल है उसे किसी से सलाह -मशविरा करने की क्या जरूरत । इधर भारत के पड़ोसी चीन नें भी अपने डिफेन्स बजट को इतना बढ़ा दिया है कि अमरीका स्वयं उससे चिन्तित होने लगा है हमें देखना है कि इस सन्दर्भ में भारत की क्या स्थिति है । सत्य यह है कि पिछले 65 -66 वर्षो में हमनें जो भी छोटी -बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी हैं वे सभी पाकिस्तान के साथ हुयीं । कहने को हम भले ही कहते रहें कि हमनें कोई निर्णायक विजय हासिल कर ली है पर वास्तव में हमारी समस्यायें अभी ज्यों की त्यों मुँह बाये खड़ी हैं । कश्मीर की चुनौती और पूर्वी सीमान्त प्रदेशों की चुनौती तो हमारे सामने है ही अब नक्सलवादी आतंक वाद भी एक गहरी चुनौती बन कर उठ खड़ा हुआ है । यह ठीक है कि हमारे सिपाही दुनिया के सबसे वीर सिपाहियों में से हैं पर मात्र वीरता के बल पर आज के युग में कोई युद्ध नहीं जीता जा सकता न ही किसी अन्य देश से आक्रमण हो जाने पर अपनी रक्षा की जा सकती है । भारत की पराधीनता इतिहास का प्रारम्भ ही उस समय हुआ था जब भारत के नये मारक हथियारों और बेधक तोपों की खोज धीमी कर दी थी और ढाल ,तलवार ,तीर ,वरछे से आगे नहीं बढ़ पाया था । यह ठीक है कि आज भारत में काफी कुछ तकनीकी विकास हो चुका है यह भी ठीक है कि हम छोटे -मोटे जहाज बनाने लग गये हैं । टैंक ,तोपें और मिसाइलें भी हमारे पास हैं । रक्षा उत्पादन के और भी बहुत से आइटम हम बना लेते हैं पर जिस तेजी से उड़ान की नयी -नयी तकनीकें विकसित हो रही हैं हम उस तेजी को पकड़ नहीं पा रहे हैं । आज का युद्ध मुख्यतः किसी भी देश की सेना की हवाई ताकत का युद्ध है । अमरीका के ड्रोन्स ही हैं जो तालिबान को भय से कपाँ देते हैं । अमरीका की हवाई ताकत नें ही उसे ईराक पर विजय दिलायी है और अमरीका की हवाई ताकत ही उसे दुनिया का चौधरी बनाये है । आइये देखें के हिंदुस्तान के एयरफोर्स की क्या दशा है । दूसरों की बात क्या कहें स्वयं हवाई सेना के प्रमुख एयर चीफ मार्शल पी ० बी ० नायक नें बहुत पहले कहा था कि हिंदुस्तान के हवाई सेना के 50 प्रतिशत जहाज पुराने पड़ चुके हैं । काफी पहले ऐसी रिपोर्ट्स अखबारों में पढने में आयी थी कि उन्होंने कहा था कि हिन्दुस्तानी सेना के 50 प्रतिशत विमान और वैमानिक तकनीक से जुड़े यन्त्र Obsolete हो गये हैं । पर बाद में यह रिपोर्ट आयी थी कि उन्होंने जिस शब्द का प्रयोग किया था Obsolescent था अखबारों नें गलती से उसे Obsolete छाप दिया । हम चाहेंगें कि हम सभी इन शब्दों के अन्तर को समझें । अगर हम मान भी लें कि अभी 50 प्रतिशत जहाज पुराने पड़ गये हैं पर काम में लाये जा सकते है यानि Obsolete नहीं हुये है तो भी उनके स्थान पर तुरन्त नये मारक तथा वेधक शस्त्रों से लैस जहाज़ों की पूर्ति होनी चाहिये । रूस से इस दिशा में जो समझौता हुआ था वह पिछले समझौतों की तरह लचर होता चला जा रहा था । फाइलों और एक मन्त्रालय से दूसरे मन्त्रालय से खींचातानी में इतना समय निकल जाता है कि इस बीच कीमतें ड्योढी हो जाती हैं और उड़ान की तकनीकें भी पुरानी पड़ जाती हैं । आज भारत की आर्थिक प्रगति की कहानी बड़े जोर -शोर से गायी जा रही है । सेना में नयी खोज और नयी टेक्नालॉजी को बढ़ावा देने के लिये एक रिसर्च विंग भी है । कहा गया था कि यह रिसर्च विंग एक नये पहिये की विकास प्रक्रिया में लगा था और इसलिये सप्लायी ऑर्डर्स में देरी हुयी थी । यह ठीक है कि ऐरोप्लेंस की Ascending और लैंडिंग के लिये यदि कोई अधिक सफल तकनीक से ढला हुआ पहिया मिलजाय तो दुर्घटनायें रोकने में काफी कामयाबी मिल सकती है । पर अधिक विकसित रूसी ऐरोप्लेंस को भारतीय वायु सेना में शामिल करने के लिये ढील -ढाल और देरी कर देना देश की सुरक्षा के लिये ख़तरा खड़ा कर सकता है । दरअसल हमारी सरकार की कार्यप्रणाली साम्राज्यशाही के उसी ढाँचे पर खड़ी है जो ब्रिटिश शासन से हमनें उत्तराधिकार में पायी है । अन्तर इतना है कि चूंकि ब्रिटिश शासन हिंदुस्तान के हित में काम न करके ब्रिटेन के हित में काम करता था इसलिये अँग्रेजी आला अफसर काम में अधिक देरी नहीं होनें देते थे । सत्ता वाइसराय में केन्द्रीभूत थी और यूनाइटेड किंगडम का प्रधान मंत्री अपने देश के प्रति जिम्मेदार था न कि भारत के प्रति । आजादी के बाद हमनें जनतन्त्र की ब्रिटिश परम्परा तो स्वीकार कर ली है पर भिन्न -भिन्न मिनिस्ट्रीज के आला अफसर अपनी व्यक्तिगत शाख बनाने में लगे रहते हैं । उनकी आपसी खींचतान में इतनी देरी हो जाती है कि देश का हित उपेक्षित होने लगता है । अब देखिये जब रूस का विशाल जलपोत गारवैशफ भारत नें खरीदा था तब उसे पहले से कई गुना रकम इस खरीदारी के लिये चुकानी पडी थी । ऐसा इसलिये हुआ था कि जब पहले आर्डर दिया गया थी तब जलपोत की कमियों को बारीकी से परखकर नहीं देखा गया था बाद में भारतीय नेवी नें उसमें कुछ कमियां पायीं और कुछ नयी विकसित सुविधाओं की मांग की । वे विशाल जलपोत फिर से रूस की जलसेना की देखरेख में काफी समय तक सुधरता रहा और फिर रूस नें उसे उस कीमत पर देना अस्वीकार कर दिया जिस कीमत पर पहले सौदा तय हुआ था । कारण यह था कि इतने वर्षों में महँगाई आसमान छूने लगी थी दुबारा बातचीत करके जो रकम तय की गयी वह पहले किये गये सौदे से बहुत अधिक थी । अब यदि जलपोत का निरीक्षण प्रारम्भ में ही पूरी सावधानी से कर लिया गया होता तो भारत के मुद्रा भण्डार को थोड़ी बहुत सुरक्षा और मिल जाती । ऐसा लगता है कि दीर्घ सूत्रता का दोष स्वतन्त्र भारत के अधिकारियों में गहरायी से जड़े जमा गया है । जवाहर लाल नेहरू नें अपनी आटोवाइग्राफी में कई बार यह बातें दोहरायीं हैं कि भाग्यवाद और नियतिवाद नें भारत के जनमानस में इतनी गहरी जड़ें जमा ली हैं कि उन्हें निकाल फेंकना एक अत्यन्त दुष्कर कार्य बन गया है ।दार्शनिकता का गहरा बोझ उठाते -उठाते भारत का जनमानस निष्क्रियता को ही चरम सुख का पर्यायवाची बना बैठा । 'अजगर करे न चाकरी ,पंछी करे न काम ' इस प्रकार की उक्तियाँ असफलता में थोड़ी -बहुत मन को शान्ति अवश्य प्रदान करती हैं पर इनसे हिम्मत भरे प्रयासों के लिये अधिक खुराक नहीं मिल पाती । यह जो रुक -रुक कर आज नहीं कल देखेंगें वाली मनोवृत्ति है उसे दूर कर आज ,अभी ,तुरन्त की मनोवृत्ति स्वीकार करनी होगी । और तुरन्त का अर्थ जुगाड़ नहीं होना चाहिये । तुरन्त का अर्थ है पीछे से चल रही और सदैव चलनें वाली साधना के बल पर हर क्षेत्र में निर्दोष और शत -प्रतिशत सफल उपलब्धि । एक युग था जब फौजों की विशालता से ही युद्धों का निर्णय होता था । किसके पास कितनी अक्षौहणी सेना है इस बात से पक्ष -प्रतिपक्ष की शक्ति का अन्दाजा लगता था । हालाँकि उस समय भी कम होने पर भी सुशिक्षित और युद्ध कलाओं में प्रशिक्षित सेनायें अपने से बड़ी -बड़ी सेनाओं को मात दे देती थीं । महाभारत में पांडवों की सात अक्षौहणी सेना कौरवों की ग्यारह अक्षौहणी सेना पर भारी पडी थी । सिकन्दर नें भी अपेक्षाकृत छोटी सेना के साथ ईरान के महान डेरियस को पराजित किया था । भारत में होने वाले युद्धों में भी सेना की विशालता के ऊपर सेना का अनुशासन और प्रशिक्षण सदैव विजयी रहा है । पर यदि कोई देश विशाल है तो देश की विशालता ही एक विशाल सेना खड़ी करने की वाध्यता बन जाती है । चीन जैसे महा देश की सेना योरोप के छोटे -छोटे देशों से कई गुना बड़ी हो तो इसमें कोई चौंकाने वाली बात नहीं है । भारत वर्ष में भी पाकिस्तान के मुकाबले अधिक विशालता होने के कारण भारतीय सेना को अपेक्षाकृत अधिक विस्तार मिलना ही चाहिये । भारत के कुछ राज्यों की प्रगति के पीछे बहुत कुछ सैनिक अनुशासन का भी हाँथ है । पंजाब ,हरियाणा ,पश्चिमी उत्तर प्रदेश ,और राजस्थान के कुछ हिस्से बड़ी मात्रा में भारतीय फ़ौज में सैनिकों को भेजते हैं । सेवा के दौरान यह सैनिक अपनें क्षेत्रों की प्रगति में तो योगदान देते ही हैं पर सेवा निवृत्ति के बाद भी वे जिस अनुशासन में ढल कर आते हैं उसके बल पर वे अपने निजी जीवन में अच्छी प्रगति कर लेते हैं इतना सब होने पर भी हम नहीं चाहते कि सेना निरन्तर बढ़ती चली जाय । शायद यही कारण है कि सैन्य भर्ती को कुछ कम करने के लिये भारत सरकार का गृह मन्त्रालय लगातार अर्ध सैनिक बलों की टुकड़ियां खड़ा करता जा रहा है । देश की आन्तरिक गड़बड़ियों पर नियन्त्रण पाने के लिये फ़ौज के बजाय केन्द्रीय रिजर्व पुलिस पर ही निर्भर रहना अच्छा होगा । फौजें तो दुश्मनों के आक्रमण को नाकाम करने के लिए ही इस्तेमाल की जाती हैं या फिर अन्ध द्रष्टि रखने वाले दुश्मनों को सबक सिखाने के लिये । पाकिस्तान से हमारी लड़ाइयां हमारे जवानों की बहादुरी के कारण हमारा सिर ऊँचा रखने का कारण बनी हैं । ऐसा इसलिये नहीं हुआ है कि हमारे हथियार या टैंक सुपीरियर थे बल्कि इसलिये हुआ है कि हमारा न्याय पक्ष सबल था और जनतान्त्रिक परम्परा ने सारे देश की जनता को फ़ौज के पीछे खड़ा कर दिया था । मध्य कालीन सारे युद्ध सिर्फ दो राजाओं की फौजों के बीच लड़े जाते थे । विदेशी आक्रमणों के समय भी शासकों ,राजाओं और सामन्तों की फौजों में ही लड़ाई होती थी । सामान्य जनता का इसमें कोई लेना -देना नहीं था पर जनतन्त्र में कोई भी विदेशी युद्ध सारे देश का युद्ध बन जाता है इसलिये जनतन्त्र में जनता को सदैव सजग रहना चाहिये और देखना चाहिये कि रक्षा मन्त्रालय का काम -काज कैसा चल रहा है । तोपों ,वायुयानों मिसाइलों ,टैंकों और रॉकेटों की नयी खेपें डेवलप कर ली गयी हैं या उसे किसी दूसरे डेवलप देश से मंगाने की आवश्यकता है । और अब तो स्पेश वार की शुरुआत है जिसका आसमान होगा उसकी धरती होगी । आणविक युद्ध होने की आशंका अभी समाप्त नहीं हुयी है और इसके लिये हमें मिसाइल्स की ऐसी तकनीकी दक्षता हासिल करनी है जो आणविक हमले का सफल प्रतिरोध कर सके ।
ऊपर फ़ौज की विशालता की बात कही गयी है पर आज के बदलते सन्दर्भ में फ़ौज की विशालता इतनी अनिवार्य नहीं है जितनी आयुध क्षमता और हवाई दक्षता । आप देखते हैं कि अब टेलीविजन सेट पतले और हल्के होते जा रहे हैं । मोबाइल अपने लघुतम रूप में आ रहा है । बड़ी -बड़ी फाइलें कम्प्यूटर में सिमिट गयी हैं । बटन दबाते ही दुनिया के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक का सम्पर्क साध लिया जाता है । चाँद पर उतरा आदमी हर पल धरती पर स्थित सम्पर्क कक्ष से जुड़ा रहता है । अंग्रेजी में जिसे यह कहकर सार्थक रूप व्यक्त किया जा सकता है । " Every Technique is getting slimmer ,finer and sharper ." हमें अपनी फ़ौज को भी एक नया रूप देना होगा । संहारक और प्रतिरोधक दोनों क्षमतायें पुरुष बल पर निर्धारित न होकर तकनीक की विशेषतः पर आधारित होना चाहिये । आमने -सामनें की लड़ाई यानि बरछे ,खंजर तलवार और वेनट की लड़ाई का युग बीत चुका । पहलवानों की जगह दिमागी पहलवान अधिक अच्छे रहेंगें और इस द्रष्टि से विज्ञान में पारंगत और तकनीक में दक्ष लेडी आफिसर्स भी बेजोड़ भूमिका निभा सकती हैं । इस नयी सोच के कारण ही अब लेडीज भी भारतीय वायु सेना में परमानेन्ट कमीशन पाकर पाइलेट्स बन सकती हैं और आने वाले कल में उनके द्वारा संचालित आक्रमण वायु उड़ाने दुश्मनों में तबाही मचा सकती हैं । यह ठीक है कि Close combat operation में महिला अफसरों की भूमिका शायद उतनी सक्षम न हो जितनी पुरुष नवजवानों की । पर इसमें कोई शक नहीं है कि मिसाइल युद्ध में प्रशिक्षित महिला आफीसर्स कहीं अधिक सक्षम भूमिका निभा सकती हैं । हम चाहते हैं कि अपने भीतर ही रक्षा संयत्रों की इतनी ऊंची तकनीक विकसित करने में सक्षम हो जांय कि उसे अन्य किसी देश पर निर्भर होने की आवश्यकता न हो । हमारे लाखों -लाख विज्ञान स्नातक ,इंजीनियर्स और प्रशिक्षित टेक्नीशियन्स हमारे लिये एक ऐसी धरोहर हैं जिन्हें सजा संवार कर और जिनकी प्रतिभा को निखार कर हम सामरिक रूप से समर्थ दुनिया को सबसे बड़े देशों को चुनौती दे सकते हैं । जनतंत्र में प्रधान मन्त्री या मंत्रिमण्डल के अन्य सम्माननीय सदस्य युद्ध विशारद नहीं होते । वे होते है देश की या राष्ट्र की सम्मिलित उर्ध्वमुखी आकांक्षा के प्रतीक । उनकी दूरदर्शिता और प्रोत्साहन प्रतिभाओं की नयी श्रष्टि रच सकती है । अब जो नये समुद्रगुप्त पैदा होंगें वे घोड़ों के खुरों से शत्रुओं के कैम्पों को नहीं रौंदेगें । वे तो आकाश की अकल्पनीय ऊंचाई से अत्याधुनिक वायुयानों की पतंगी कलाबाजी से संचालित करके धरती पर अवस्थित शत्रुओं के छिपे हुये ठिकानों को अपनें नाभकीय प्रहारों से धूरिसात कर देंगें । वह कौन सा दिन होगा जब दुनिया के बड़े से बड़े हवाई कलाबाज यह कहते सुने जांय कि भारत की वायु शक्ति अजेय है कि भारत के जलपोत प्रहार क्षमता के अजूबे हैं कि भारत के रणव्यूह अभेद्य हैं । जो रक्षा मंत्री, जो प्रधान मंत्री हमारे स्वप्नों को सच करके दिखा दें उनके चरणों पर भारत की जनता प्रसूनों के ढेर बिखेरने के लिये सदैव प्रस्तुत रहेगी ।
गिरीश कुमार त्रिपाठी
127 /258 यू ब्लाक
निराला नगर कानपुर -208014
मो ० न ० -9389562211
ऊपर फ़ौज की विशालता की बात कही गयी है पर आज के बदलते सन्दर्भ में फ़ौज की विशालता इतनी अनिवार्य नहीं है जितनी आयुध क्षमता और हवाई दक्षता । आप देखते हैं कि अब टेलीविजन सेट पतले और हल्के होते जा रहे हैं । मोबाइल अपने लघुतम रूप में आ रहा है । बड़ी -बड़ी फाइलें कम्प्यूटर में सिमिट गयी हैं । बटन दबाते ही दुनिया के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक का सम्पर्क साध लिया जाता है । चाँद पर उतरा आदमी हर पल धरती पर स्थित सम्पर्क कक्ष से जुड़ा रहता है । अंग्रेजी में जिसे यह कहकर सार्थक रूप व्यक्त किया जा सकता है । " Every Technique is getting slimmer ,finer and sharper ." हमें अपनी फ़ौज को भी एक नया रूप देना होगा । संहारक और प्रतिरोधक दोनों क्षमतायें पुरुष बल पर निर्धारित न होकर तकनीक की विशेषतः पर आधारित होना चाहिये । आमने -सामनें की लड़ाई यानि बरछे ,खंजर तलवार और वेनट की लड़ाई का युग बीत चुका । पहलवानों की जगह दिमागी पहलवान अधिक अच्छे रहेंगें और इस द्रष्टि से विज्ञान में पारंगत और तकनीक में दक्ष लेडी आफिसर्स भी बेजोड़ भूमिका निभा सकती हैं । इस नयी सोच के कारण ही अब लेडीज भी भारतीय वायु सेना में परमानेन्ट कमीशन पाकर पाइलेट्स बन सकती हैं और आने वाले कल में उनके द्वारा संचालित आक्रमण वायु उड़ाने दुश्मनों में तबाही मचा सकती हैं । यह ठीक है कि Close combat operation में महिला अफसरों की भूमिका शायद उतनी सक्षम न हो जितनी पुरुष नवजवानों की । पर इसमें कोई शक नहीं है कि मिसाइल युद्ध में प्रशिक्षित महिला आफीसर्स कहीं अधिक सक्षम भूमिका निभा सकती हैं । हम चाहते हैं कि अपने भीतर ही रक्षा संयत्रों की इतनी ऊंची तकनीक विकसित करने में सक्षम हो जांय कि उसे अन्य किसी देश पर निर्भर होने की आवश्यकता न हो । हमारे लाखों -लाख विज्ञान स्नातक ,इंजीनियर्स और प्रशिक्षित टेक्नीशियन्स हमारे लिये एक ऐसी धरोहर हैं जिन्हें सजा संवार कर और जिनकी प्रतिभा को निखार कर हम सामरिक रूप से समर्थ दुनिया को सबसे बड़े देशों को चुनौती दे सकते हैं । जनतंत्र में प्रधान मन्त्री या मंत्रिमण्डल के अन्य सम्माननीय सदस्य युद्ध विशारद नहीं होते । वे होते है देश की या राष्ट्र की सम्मिलित उर्ध्वमुखी आकांक्षा के प्रतीक । उनकी दूरदर्शिता और प्रोत्साहन प्रतिभाओं की नयी श्रष्टि रच सकती है । अब जो नये समुद्रगुप्त पैदा होंगें वे घोड़ों के खुरों से शत्रुओं के कैम्पों को नहीं रौंदेगें । वे तो आकाश की अकल्पनीय ऊंचाई से अत्याधुनिक वायुयानों की पतंगी कलाबाजी से संचालित करके धरती पर अवस्थित शत्रुओं के छिपे हुये ठिकानों को अपनें नाभकीय प्रहारों से धूरिसात कर देंगें । वह कौन सा दिन होगा जब दुनिया के बड़े से बड़े हवाई कलाबाज यह कहते सुने जांय कि भारत की वायु शक्ति अजेय है कि भारत के जलपोत प्रहार क्षमता के अजूबे हैं कि भारत के रणव्यूह अभेद्य हैं । जो रक्षा मंत्री, जो प्रधान मंत्री हमारे स्वप्नों को सच करके दिखा दें उनके चरणों पर भारत की जनता प्रसूनों के ढेर बिखेरने के लिये सदैव प्रस्तुत रहेगी ।
गिरीश कुमार त्रिपाठी
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