राह के हर मोड़ पर कुछ जुड़ रहे कुछ टूटते हैं
देह के सम्बन्ध सब क्या काल क्रम से छूटते हैं ?
सत्य है तुम कल तलक मम् प्रेरणा की श्रोत थीं ।
सत्य है तुम कल तलक पूजित सुवासित जोत थीं
कल तुम्हीं से सार्थक अस्तित्व का अहसास था ,
कल सितारों में तुम्हारी ही हँसी का भाष था
पर हठीला अश्व सा मन आज प्रतिमुख हो रहा क्यों
कुसुम शर सब चुक गये मन -शम्भु फिर भी सो रहा क्यों
क्यों ललक की लौ नभोन्मुख हो न जगती राज -भीनी
कामना सुकुमार शैय्या पर पडी क्यों दर्प -छीनी
क्यों नवांकुर प्यार -पादप में नहीं अब फूटते हैं ?
देह के सम्बन्ध सब क्या काल क्रम से टूटते हैं ?
है उबलता आज भी लावा नसों में भान है
तोड़ दे चट्टान बन्धित मुष्टिका में जान है
है कहाँ ललकार जिससे खेल ले मेरी जवानी
कौन सी वह धार मेरी मार खा बनती न पानी
राग- रथ फिर भी न जाने क्यों अटक कर रुक गया है
प्राण का आवेग जैसे अब सदा को चुक गया है
ध्वंस होने को खड़ा हूँ दीप्ति पर तुम दे न पातीं
आँख की कोरें तुम्हारी अब न वे सन्देश लातीं
केश वन्जारें न क्यों अब मन वणिक को लूटते हैं ?
देह के सम्बन्ध सब क्या काल क्रम से टूटते हैं ?
कुछ बहुत गहरे कहीं लगता विखण्डित हो गया है
चेतना का अंश कोई टूट करके खो गया है ।
या यही क्रम है मनुज के स्वाँस गत व्यापार को
देह पर पलते पनपते मरण- धर्मी प्यार का
और हैं मदमस्त जो झुकते मचलते मर रहे हैं
और हैं जो नयन सर में डूब कर भी तर रहे हैं
तुम कहीं सार्थक अभी भी काल क्रम व्यापार में
म्लान मुख होना उचित क्या एक छोटी हार में
नील नभ निर्लेय ज्योतिर्पिण्ड बनते टूटते हैं
देह के सम्बन्ध सब क्या काल क्रम से टूटते हैं ?
देह के सम्बन्ध सब क्या काल क्रम से छूटते हैं ?
सत्य है तुम कल तलक मम् प्रेरणा की श्रोत थीं ।
सत्य है तुम कल तलक पूजित सुवासित जोत थीं
कल तुम्हीं से सार्थक अस्तित्व का अहसास था ,
कल सितारों में तुम्हारी ही हँसी का भाष था
पर हठीला अश्व सा मन आज प्रतिमुख हो रहा क्यों
कुसुम शर सब चुक गये मन -शम्भु फिर भी सो रहा क्यों
क्यों ललक की लौ नभोन्मुख हो न जगती राज -भीनी
कामना सुकुमार शैय्या पर पडी क्यों दर्प -छीनी
क्यों नवांकुर प्यार -पादप में नहीं अब फूटते हैं ?
देह के सम्बन्ध सब क्या काल क्रम से टूटते हैं ?
है उबलता आज भी लावा नसों में भान है
तोड़ दे चट्टान बन्धित मुष्टिका में जान है
है कहाँ ललकार जिससे खेल ले मेरी जवानी
कौन सी वह धार मेरी मार खा बनती न पानी
राग- रथ फिर भी न जाने क्यों अटक कर रुक गया है
प्राण का आवेग जैसे अब सदा को चुक गया है
ध्वंस होने को खड़ा हूँ दीप्ति पर तुम दे न पातीं
आँख की कोरें तुम्हारी अब न वे सन्देश लातीं
केश वन्जारें न क्यों अब मन वणिक को लूटते हैं ?
देह के सम्बन्ध सब क्या काल क्रम से टूटते हैं ?
कुछ बहुत गहरे कहीं लगता विखण्डित हो गया है
चेतना का अंश कोई टूट करके खो गया है ।
या यही क्रम है मनुज के स्वाँस गत व्यापार को
देह पर पलते पनपते मरण- धर्मी प्यार का
और हैं मदमस्त जो झुकते मचलते मर रहे हैं
और हैं जो नयन सर में डूब कर भी तर रहे हैं
तुम कहीं सार्थक अभी भी काल क्रम व्यापार में
म्लान मुख होना उचित क्या एक छोटी हार में
नील नभ निर्लेय ज्योतिर्पिण्ड बनते टूटते हैं
देह के सम्बन्ध सब क्या काल क्रम से टूटते हैं ?
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