Sunday, 12 June 2016

भीड़ से हटकर

कालेज से घर आते उस दिन  सोच रहा था
विषय चुक गये सब कविता के
शेष रह गया केवल अपने को दुहराना
तभी द्रष्टि पड़ गयी पास वाली बगिया को
आरक्षित करने वाली उस सुद्रढ़ भित्ति पर
जहाँ गर्व से तनी देह ले
रक्त -मुखी कपि ध्यान -मग्न था ।
अक्सर उस एकान्त मार्ग पर आते -जाते
कभी किसी तरु की डाली पर
कभी घास की नम चादर पर
कभी उठ रही दीवालों के समकोणों पर
कभी अलस मस्ती के करते पार राह को
मैंने उसे वहाँ पाया था ।
पहली बार उसे देखा था
जैसे पहरेदार खड़ा हो सीना ताने
बगिया के उत्तरी कोण पर ।
सून सान थी राह शहर से किंचित बाहर
कुछ असमंजस हुआ देख वानर की काया
पर आँखों में आँखे डाले बिना बढ़ा मैं
कपि ने कुछ क्षण घूर द्रष्टि शाखों पर डाली ।
परिचय होता रहा इसतरह हमदोनो का
दोनों ने मन ही मन यह स्वीकार कर लिया
एक दूसरे के आन्तरिक झमेले में हम
दखल न देकर अपनी राह चले जायेंगें
नेहरू के भारत के ही आखिर वासी हैं
आते जाते वानर राज मुझे मिल जाता
कुछ ऐसा सम्बन्ध जुड़ गया अनजाने में
अगर दिखायी मुझे न पड़ता कहीं पास से
आँखे आकुल हो तरुओं के पात खोजतीं ।
नर कपि की रोयिल गढ़ी देह लख
सोचा यह गिरोह से कटकर  अलग हुआ क्यों
यह एकाकी कैसे जीवन काट रहा है
इसे न कोई भरा -पुरा रनिवास चाहिये ।
हो सकता है किसी सबल -नर वानर ने
बल -मर्दित कर इसे बहिस्कृत किया देश से
किष्किन्धा को छोड़ सुकंठ यहाँ आ बैठा
रूमा सहित रानियाँ कोई और भोगता
खोया कल विश्वास प्राप्त कर ललकारेगा
बन्धुश्चु को द्वन्द युद्ध में हाँथ  दिखाने
छल बल से कर  उसे पराजित फिर पायेगा
रूँगन सहित विलास साज अपने जीवन के ।
या कि संयमी पवन -पुत्र सा यह त्यागी है
इसे राम की खोज भोग से काम न कोई
विजन वाटिका में यह खड़ा प्रतीक्षित रहता
चरण -कमल कब देख सकूँगा नर पावन के ।
पर इतना तो निश्चय है सामान्य नहीं कपि
भेड़ चाल चल अनुगत बनना इसे न आता
यह औरों से बनी लीक पर पाँव न धरता
इसे अनुगमन नहीं स्वयं नेतृत्व चाहिये
यह नायक ही बन सकता जीवन नाटक का
महाकाब्य के लिये इसे कुदरत ने ढाला
यह नर है वानर होकर भी व्यक्ति बना है
भीड़ न इसको घेर बाँध कर मिटा सकी है ।
जनाकीर्ण राहों से मैं भी दूर रहा हूँ ।
राह कठिन  एकान्त  सदा मैंने अपनायी
आँखों में इतिहास बनाने के सपनें हैं
व्यक्ति न मेरा कभी भीड़ से विजित हो सका
नर वानर का साथ हुये युग बीत चुका है
इसी मिलन से अमर काव्य की श्रष्टि हुयी थी
निर्वासित मन मेरा फिर से साथ खोजता
गोत्र -छिन्न एकाकी इस वानर -पुंगव में
सखा ,तुम्हें पा मेरे मन का शून्य भर चला
शायद तुम भी थोड़ा सा पहचान गये हो
हम दोनों ही एक नियति के सह पन्थी हैं
धारा से विछिन्न किन्तु धारा के श्रष्टा । 





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