मैंने कौटिल्य का अर्थशास्त्र तो नहीं पढ़ा पर भारत के इस समय के बड़े समझे जाने वाले अर्थशास्त्रियों के कथनों पर काफी सोचा विचारा है । महान सम्राट चन्द्रगुप्त के महामन्त्री ,अपार मेधा के धनी विष्णु गुप्त चाणक्य ने उस समय के सबसे विशालतम साम्राज्य की अर्थव्यवस्था को कैसे साजा संवारा इसे वे ही जानते थे । उन्होंने उपभोगता वाद पर सयंम लगाने का सुझाव दिया या इच्छाओं की भूख बढ़ाने का सुझाव दिया इन बातो को सहस्त्रों वर्ष पहले व्यतीत काल से खोज निकालना न मुमकिन है । पर हाँ आज चाहे डा ० मनमोहन सिंह हों ,चाहे चिदाम्बरम ,चाहे कमलनाथ या मोन्टेक सिंह अहलूवालिया सभी इस पूँजीवादी विचारधारा के पोषक हैं ,कि इच्छाओं को बढ़ाकर सुख -सुविधा और भोग -विलास के नये -नये साधन जुटाना ही देश की तरक्की का सूचक है । ऐसा करने के लिये बैंकों के पास अपार धन हो ताकि वे उसे बहुत सस्ती दरों पर लोगों को उधार दे सकें और सामान्य जन नये घर ,नयी गाड़ियाँ नये सौन्दर्य प्रसाधन और नये ताम झाम खरीदते चले जायँ । अमरीका भी बहुत दिनों तक इसी मुगालते में फंसा रहा कि पूंजी की अधिक से अधिक तरलता आर्थिक विकास का ग्राफ हमेशा बढ़ाती रहेगी । अधाधुन्ध कर्ज दिये गये बिना ये सोचे कि कर्ज लेने वालों के पास उसे वापस करने की क्षमता है भी या नहीं । बैंक और कारपोरेट सेक्टर के संचालकों और उच्च्पदस्त अधिकारियों ने मनमानी तनख्वाहें ,बेशुमार भत्ते ,और चकित कर देने वाली विलास सामग्री इकट्ठी कर डाली । लम्बी छलांगों में उन्हें यह दिखायी नहीं पड़ा कि खाईं -खड्ड में गिरने का इंतजाम करने के बाद ही अनियन्त्रित छलांगे लगानी चाहिये । अमरीका में आयी आर्थिक मन्दी ने सारी दुनिया में आर्थिक गिरावट का एक भयानक चक्र प्रारम्भ कर दिया है । योरोपीय संघ भी इस कमरतोड़ आघात से बच नहीं सका है । जापान की अर्थव्यवस्था लंगड़ी होती जा रही है । और तो और चीन का आयात भी लड़खड़ा उठा है और भारत का सेंसेक्स तो न जाने कितनी आँखों में आँसू भर चुका है । ऐसा इसलिये हुआ कि सोवियत यूनियन के विघटन के बाद सारी दुनिया में यह मान लिया गया कि अमरीका की अर्थव्यवस्था ही विकास का आदर्श है । मुक्त, स्वछन्द ,अनियन्त्रित पूंजी को खुलकर नंगा खेल खेलने दिया गया परिणाम वही हुआ जो होना था । भारत ने इस दिशा में यह भुला दिया कि हमारे प्रथम प्रधान मंत्री ने Mixed इकोनॉमी का जो Concept दिया था वह नग्न पूंजीवादी व्यवस्था के लिये एक सचेतक का काम कर सकता था । विश्व के और देशों की बैंक व्यवस्था जब लड़खड़ा गयी है और अमरीका के बड़े बड़े बैंक जब टूट गये हैं या टूटने के कगार पर हैं तब भारत के बैंकों की मजबूत स्थिति हमें इन्दिरा गांधी का स्मरण करा देती है । इन्दिरा जी ने जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था तब मुक्त पूंजी के हिमायती उन्हें देश का सबसे बड़ा शत्रु बताते थे । आज सारा देश यह मान रहा है कि अपार पूंजी पर सोशल कन्ट्रोल रखने का नेहरू जी का द्रष्टिकोण न केवल भारत वरन समस्त विश्व के लिये समाज के आर्थिक विकास का आदर्श मार्ग है । यहां पर बात ध्यान रखनी है कि सोशल कन्ट्रोल का कॉन्सेप्ट साम्यवाद के टोटल कन्ट्रोल कॉन्सेप्ट से एक भिन्न विचार धारा है । एक उदार नियंत्रण ,एक मूल्य आधारित दिशा निर्देशन देकर मुनाफ़ा कमाने की दानवीय भूख को सयंम में रखा जा सकता है ।
भारत की आर्ष परम्परा निरन्तर इस बात का आग्रह करती रही है कि मनुष्य की इच्छाओं को संयमित किया जाना चाहिये । स्वस्थ्य जीवन के लिये जो आवश्यक है उसे जुटा सकने के साधन मुहैया कराने का उत्तरदायित्व देश की सरकार का होता है । पर भोग लिप्सा बढ़ाकर धन का अनैतिक संचयन करने की नीति सामाजिक अराजकता को जन्म देती है | हम ऊपर से कितनी ही लम्बी चौड़ी क्यों न हाँकें पर इस सत्य को सभी जानते हैं कि धन का बहुतायत से अर्जन अनैतिक मार्गों से ही हो पाता है । घूसखोरी , कमीशन प्रतिशत ,या सुविधा शुल्क यदि अनैतिक है तो उद्योगपतियों और महाजनों का मनमाना शोषण भी अनैतिक ही है । कागजों में क़ानून भी इन अमानवीय प्रवृत्तियों का विरोध करता है । पर वास्तविक जीवन में ये प्रवृत्तियाँ भारतीय जन मानस का स्वभाव बन गयी हैं हमें फिर से उन औपनिषदिक जीवन मूल्यों की ओर प्रेरणा के लिये देखना होगा जो यह सिखाते हैं कि जीवन यापन की समकालीन सुविधाओं के संचयन के बाद इकट्ठा किया गया अतिरिक्त धन एक प्रकार से सामाजिक पाप है भले ही वह अपराध न हो । दुनिया के दिग्गज अर्थशास्त्री जिनके पास हारवर्ड ,लन्दन ,टोक्यो ,और सिडनी आदि से भारी भरकम उपाधियाँ हैं उन्हें भारत की मिट्टी से उपजी आर्थिक विचार धाराओं का भी अनुशीलन करना चाहिये ताकि वे अपने विचारों में एक सच्चा संतुलन बना सकें । बुद्ध ,लाओत्से ,टालस्टाय और विनोबा भावे सन्त और महात्मा होने के साथ ही साथ ऊँचे आर्थिक विचारक भी थे । इन सबनें भोग वृत्ति पर सयंम रखने का उपदेश दिया है । मन के वायुगामी अश्व पर सयंम की वल्गा लगाकर ही नियन्त्रण पाया जा सकता है । सेंसेक्स ,सट्टाबाजी ,लाटरी और होर्डिंग से थोड़े समय में ही बिना परिश्रम धनी हो जाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना सरकारी तन्त्रके लिये शोभा नहीं देता । इन सभी क्षेत्रों को सामाजिक मूल्यों से जोड़कर उदार आर्थिक संरक्षण में परिचालित करना चाहिये । (क्रमशः )
भारत की आर्ष परम्परा निरन्तर इस बात का आग्रह करती रही है कि मनुष्य की इच्छाओं को संयमित किया जाना चाहिये । स्वस्थ्य जीवन के लिये जो आवश्यक है उसे जुटा सकने के साधन मुहैया कराने का उत्तरदायित्व देश की सरकार का होता है । पर भोग लिप्सा बढ़ाकर धन का अनैतिक संचयन करने की नीति सामाजिक अराजकता को जन्म देती है | हम ऊपर से कितनी ही लम्बी चौड़ी क्यों न हाँकें पर इस सत्य को सभी जानते हैं कि धन का बहुतायत से अर्जन अनैतिक मार्गों से ही हो पाता है । घूसखोरी , कमीशन प्रतिशत ,या सुविधा शुल्क यदि अनैतिक है तो उद्योगपतियों और महाजनों का मनमाना शोषण भी अनैतिक ही है । कागजों में क़ानून भी इन अमानवीय प्रवृत्तियों का विरोध करता है । पर वास्तविक जीवन में ये प्रवृत्तियाँ भारतीय जन मानस का स्वभाव बन गयी हैं हमें फिर से उन औपनिषदिक जीवन मूल्यों की ओर प्रेरणा के लिये देखना होगा जो यह सिखाते हैं कि जीवन यापन की समकालीन सुविधाओं के संचयन के बाद इकट्ठा किया गया अतिरिक्त धन एक प्रकार से सामाजिक पाप है भले ही वह अपराध न हो । दुनिया के दिग्गज अर्थशास्त्री जिनके पास हारवर्ड ,लन्दन ,टोक्यो ,और सिडनी आदि से भारी भरकम उपाधियाँ हैं उन्हें भारत की मिट्टी से उपजी आर्थिक विचार धाराओं का भी अनुशीलन करना चाहिये ताकि वे अपने विचारों में एक सच्चा संतुलन बना सकें । बुद्ध ,लाओत्से ,टालस्टाय और विनोबा भावे सन्त और महात्मा होने के साथ ही साथ ऊँचे आर्थिक विचारक भी थे । इन सबनें भोग वृत्ति पर सयंम रखने का उपदेश दिया है । मन के वायुगामी अश्व पर सयंम की वल्गा लगाकर ही नियन्त्रण पाया जा सकता है । सेंसेक्स ,सट्टाबाजी ,लाटरी और होर्डिंग से थोड़े समय में ही बिना परिश्रम धनी हो जाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना सरकारी तन्त्रके लिये शोभा नहीं देता । इन सभी क्षेत्रों को सामाजिक मूल्यों से जोड़कर उदार आर्थिक संरक्षण में परिचालित करना चाहिये । (क्रमशः )
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