Sunday, 8 May 2016

Saaraa Vishv Jaantaa.............

                                            सारा विश्व जानता है कि शुद्दोधन पुत्र सिद्धार्थ गौतम भारतवासियों के लिये भगवान बुद्ध बनकर सम्मान के अधिकारी रहे हैं और सदैव के लिये वे संसार के महानतम महाप्राणों में पूजित बने रहेंगें । बनारस के पास स्थित सारनाथ में उनका प्रथम प्रवर्तन चक्र जिस स्थल पर आयोजित हुआ था वह पूण्य भूमि संसार के सभी बुद्ध धर्म अनुयायियों के लिये उतनी ही पवित्र है जितनी मुस्लिम समुदाय के लिये मक्का या मदीना या भारतवासियों के लिये चारो धामों में नमन और पूजन । बुद्ध परम्परा ने कुछ परिवर्तन के साथ तिब्बत ,चीन ,जापान दक्षिण पूर्व एशिया के सभी देश जिनमें वर्मा और लंका भी शामिल है को अपनी जग जिताय जन सुखाय विचारधारा के आगोश में बाँध लिया था । शताब्दियों तक बुद्ध धर्म विश्व का सर्वाधिक प्रचलित और जीवन प्रेरक दार्शनिक आधार बना रहा है । भारत में तो सम्राट अशोक  के नाम से जुड़ जाने के कारण बुद्ध विचारधारा अनन्त काल तक सम्मान का स्थान पाती रहेगी । सम्राट अशोक सम्भवतः संसार के आज तक के सभी शासकों में सर्वश्रेष्ठ थे क्योंकि उन्होंने हिँसा से चलकर अहिँसा के सर्वोपरि सत्य को स्वीकार कर लिया था । श्रष्टि में सभी कुछ बनता बिगड़ता रहता है । उत्थान -पतन ,विकास -विनाश ,जन्म -मृत्यु ,यौवन -जरा ,सभी लीलाधर की लीलायें हैं । भौतिकवादी लीलाधर की जगह इन सबको प्रकृति का अनिवार्य क्रम बताते हैं । "माटी " का तो सिर्फ यह कहना है कि जो सनातन और सतत गतिमान है वह है काल की अबाधि गति । चीन का महान साम्राज्य जिसे हैन नरेशों ने किसी काल में स्थापित किया था कालान्तर में परिवर्तन के कई दौरों से गुजरा । उन दिनों जब ब्रिटिश राज्य की गुलामी झेल रहा था चीन पर भी ब्रिटिश साम्राज्य के चाटुकार शासकों का प्रभुत्व था । सच पूंछों तो ब्रिटेन का साम्राजयवाद अपने विस्तार में पहले के सभी साम्राज्यवादी विस्तारों से बड़ा था । चीन और भारत जैसे विशाल देश उसके आधिपत्य या चौधराहट में तो थे ही अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका के कितने ही भागों पर उसकी तूती बोलती थी । फिर समय के पृष्ठ पलटे । परिवर्तन के झंझावाद विश्व जनमानस को आन्दोलित करने लगे । साम्राज़्यवाद  लड़खड़ाने लगा । चीन में माओ डिजांग के नेतृत्व में लाल सेना ने विशाल देश के बहुत बड़े भू -भाग पर अधिकार जमा लिया । अंग्रेजी साम्राज्यवाद के कुछ दलाल उसके कुछ हिस्से पर शासन चलाते रहे । फिर 1948 में भारत के तूफानी जनाक्रोश ने अंग्रेजों को शासन छोड़ने पर विवश किया । महात्मा गाँधी ने जिन्हें पश्चिमी दुनिया अधनंगे फ़कीर के नाम से पुकारती थी ,अहिंसा के माध्यम से वह कर दिखाया जो माओ अभी तक लाखों लाशों पर पाँव रख कर भी नहीं कर पाये थे । भारत के प्रथम प्रधान मन्त्री जवाहर लाल ने भारत की स्वतन्त्रता के साथ ही विश्व को ललकार लगायी कि चीन को अपनी स्वतन्त्र सरकार बनाने का हक़ मिलना चाहिये । आखिर 1950 में भारत की आजादी के दो वर्ष बाद चीन पर लाल सेना का आधिपत्य स्वीकार कर लिया गया । माओ के नेतृत्व में साम्यवादी सरकार ने सत्ता सँभाली । पुराने शासक पड़ोस के टापू फारमूसा में स्थानान्तरित हुये । फारमूसा का मामला आज तक उलझा हुआ है । फारमूसा अभी तक अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाये है । पर चीन ने उसपर अपना दावा बरकरार रखा है । अब आयी बारी तिब्बत की । तिब्बत का क्षेत्र चीन और भारत के बीच एक बफर स्टेट के रूप में स्थित था । तिब्बत प्रजाति चीन की प्रमुख नस्ल हैन प्रजाति से भिन्न किस्म की है । तिब्बत के लोग अपना उद्भभव भारत के उत्तरी पूर्वी नस्लों से जोड़ते रहे हैं । प्रारम्भ के कुछ वर्षों में आजाद चीन में भारी रक्त पात हुआ । आन्तरिक विचारधाराओं के पारस्परिक टकराव में लाखों लोग मारे -काटे गये । धीरे -धीरे निर्मम साम्यवादी प्रक्रिया हावी होती गयी । अब चीन ने अपनी विस्तारवादी योजना बनानी शुरू की । उसने अपनी आँखें चारो ओर दौड़ायी । भारत की आजादी के साथ एक सबसे बड़ा दुर्भाग्य भी आ खड़ा हुआ था । यह  दुर्भाग्य था वृहत भारत का विभाजन । जम्मू कश्मीर के महाराजा ने अपने राज्य का विलय भारत में करना स्वीकार कर लिया था पर पश्चिमी पाकिस्तान के जेहादी तत्व सेना की मदद से घुसपैठियों के रूप में जम्मू कश्मीर में घुस आये थे । अंतर्राष्ट्रीय संगठन के बीच- बिचायी में जो युद्ध विराम फार्मूला अपनाया गया उसके तहत जम्मू कश्मीर का एक तिहायी भाग आजाद कश्मीर के रूप में उभर कर आ गया । जम्मू कश्मीर का यह वाल्टिक क्षेत्र चीन की सीमा के साथ जुड़ा हुआ है । चीन के साम्राज्यवादी नेता साम्य वाद का चोंगा पहनकर अपनी विस्तारवादी नीति का जाल फैलाते चले गये । उनका कहना था कि अंग्रेजों ने जो सीमा रेखायें निर्धारित की थीं वे गलत थीं । उन्होंने कहा चूंकि उस समय चीन में भी अंग्रेजों की कठपुतली सरकार थी और हिन्दुस्तान तो उनके सीधे कब्जे में था ही इसलिये उन्होंने मनमाने ढंग से सीमाओं का निर्धारण कर दिया । उन्होंने कहा कि वे मैकमोहन लाइन को नहीं मानते । पाकिस्तान का अस्तित्व ही हिन्दुस्तान  के विरोध में आया था इसलिए  हिन्दुस्तान का वह  कभी खुला  कभी छिपा शत्रु बना ही रहा है । चीन को लगा कि वह पाकिस्तान से दोस्ती करके वह उभरते हिन्दुस्तान को एशिया की एक प्रबल शक्ति बनने से रोक सकता है । पाकिस्तानी शासकों ने आजाद कश्मीर में चीन को कराकोरम क्षेत्र में सड़कें बनाने की अनुमति दे दी । ऐसा इसलिये किया गया क्योंकि पाकिस्तानी शासक यह जानते हैं कि आजाद कश्मीर के क्षेत्र पर न तो कोई कानूनी हक़ है और न नैतिक । यह क्षेत्र तो अंतर्राष्ट्रीय पंचायत के दबाव में उन्हें इसलिये मिल गया क्योंकि भारत को उस समय की परिस्थितियों में योरोप और अमरीका के देशों का समर्थन नहीं मिल पाया था । जबरजस्ती हड़पे हुये इस प्रदेश में चीन के अधिकार में चीन से मिलते सीमा क्षेत्र का एक बड़ा भाग शामिल कर लेने दिया । अब क्या था चीन के हौसले बुलन्द हो गये उसने तिब्बत पर निगाह डाली । तिब्बत पर उस समय चौदहवें दलाईलामा का कानूनी ,नैतिक और आध्यात्मिक शासन कायम था । दरअसल भारत से गया हुआ बुद्ध धर्म कुछ परिवर्तन के साथ तिब्बतम बुद्धिज्म बनकर उभरा था और तिब्बत का धर्म गुरु भी वहां का राजनैतिक शासक भी बनता था इस धर्म गुरु ,धर्म और राजनैतिक शासक को दलाईलामा के रूप में जाना जाता था । तिब्बत को कई क्षेत्रों में बांटकर दलाईलामा के प्रतिनिधि शासन और धर्म दोनों के समन्वित मिलान के साथ प्रशासन की प्रक्रिया को अन्जाम देते थे । पड़ोस के दो बड़े देशों चीन और हिन्दुस्तान ने 18000 फ़ीट की ऊंचाई पर बसे  तिब्बती भू भाग की धार्मिक और प्रशासनिक व्यवस्था में कभी कोई दखल नहीं दिया था । अंग्रेजी शासन में भी तिब्बत का स्वतन्त्र अस्तित्व था । पर अब चीन को अपनी विस्तारवादी नीति में तिब्बत का हड़पना अनिवार्य हो गया क्योंकि ऐसा करके ही वो भारत के उत्तरी पूर्वी सीमा में अपनी घुसपैठ कर सकता था और उसके कुछ हिस्सों पर अपना अधिकार करने की कुछ चालें चल सकता था ।
                                      मार्च 1959 में लाल सेनायें तिब्बत की ओर बढ़ीं । अहिंसा के पुजारी दलाईलामा की इतनी सामरिक शक्ति कहाँ थी कि वे चीन की हिंसक खुंखार सेनाओं का सामना करें । उनकी स्वतन्त्रता की अपील पर जो अहिंसक प्रदर्शन हुये उन्हें निर्दयता से कुचल दिया गया । आखिर मार्च 1959 को दलाईलामा को तिब्बत छोड़कर अपने बहुत से अनुयायियों के साथ हिन्दुस्तान में राजनैतिक शरण लेनी पडी । दलाईलामा तो एक पदवी  है यह कोई नाम नहीं है । चौदहवें दलाईलामा का दलाईलामा बनने से पहले एक दूसरा नाम था चूंकि तिब्बती नाम काफी बड़े होते हैं इसलिये हम बार बार उसका  उल्लेख नहीं कर पायेंगें । पर यदि पाठक जानना चाहते हों तो चौदहवें दलाईलामा का पूरा नाम ' जाम फेल नागावांग लोब सैंग  एशे तेन जिंग गया रसो " था । एक लम्बी यात्रा करके काफी दिनों के बाद पहाड़ी खच्चरों पर धर्म की किताबें और और जीवन यापन की सामग्री लादे दलाईलामा ने भारत में आकर शरण ली । हिमांचल प्रदेश की धर्मशाला में उन्हें अनुयायियों के साथ  स्थापित किया गया । उस समय के प्रधान मन्त्री जवाहर लाल जी ने चीन को यह कहकर आश्वस्त किया था कि दलाईलामा भारत में अतिथि बन कर रहेंगें पर उन्हें राजनैतिक गतिविधियों में चीन विरोधी किसी भी प्रक्रिया में शामिल होने नहीं दिया जायेगा । नेहरू जी उदार अन्तर्राष्ट्रीय विचारधारा के समर्थक थे और वे चाहते थे कि एशिया के दो महान देश चीन और भारत मित्र बनकर रहें आखिरकार चीन और भारत का अतीत काल से अटूट सम्बन्ध रहा है । भारत की विरासत ही है सच्ची मित्रता निभाना । चीन के मक्कार नेता हिन्दी चीनी भाई भाई का नारा मुँह से लगाते रहे पर भीतर ही भीतर भारत के उत्तर पूर्वी सीमान्त क्षेत्रो में अपनी घुसपैठ भी करते रहे । ' मुँह में राम बगल में छूरी ' की कहावत अगर कहीं सच्चे अर्थों में चरितार्थ होती है तो वह भारत चीन सम्बन्धों को लेकर ही है । 1962 में चीन ने भारत की सीमाओं में चुपके चुपके भारत की सीमाओं में अपनी सेनायें  घुसेड़ दी थी । उत्तर पूर्वी सीमान्त प्रदेश का काफी इलाका उसने अपने कब्जे में ले लिया । भारत की सेनाओं ने डटकर मुकाबला किया पर हम इस मित्र घात के लिये तैय्यार नहीं थे अतः मैकमोहन लाइन के अन्दर घुसकर चीन  द्वारा एक बड़ा पहाड़ी भू भाग कब्जा कर लेने पर भी जब चीनी सेनायें वापस चली गयीं तो हमनें उस भू भाग पर दुबारा सैन्य अधिकार करने का प्रयास नहीं किया । उस समय के भारत के रक्षामन्त्री कृष्णा मेनन को जो प्रधान मन्त्री जवाहर लाल नेहरू के बहुत घनिष्ठ मित्र थे इसीलिये  मन्त्रिमण्डल से हटना पड़ा था क्योंकि उन्होंने भारतीय सेना को पहाड़ी युद्ध के लिये कभी तैय्यार ही नहीं किया । स्वप्न द्रष्टा और शब्दधनी जवाहर लाल जी को यदि चीन के इस विश्वासघात ने अन्दर से आहत न किया होता तो भारत के स्वतन्त्रता संग्राम का वह महानायक शायद हमसे 1964 में सदा के लिये विदा न हो जाता । पर हम भारत वासी विधि के विधान में विशवास करते है । आज भारत की सेनायें पहाड़ी या मैदानी ,समुद्री या आसमानी ,किसी भी लड़ाई में अपनी अजेयता सिद्ध करने के लिये पूरी तरह तैय्यार हैं ।(क्रमशः )

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