Sunday, 8 May 2016

                                 ..........................सनातन धर्म यह मानता है कि हर युग में धर्म के उत्थान ,सद्जनों की और अन्यायियों के विनाश के लिये महाशक्ति नया -नया रूप लेकर अवतरित होती रहती है । भारतवर्ष में न जाने कितने ऐसे अवतरण और संस्क़रण  हैं जो अपने को परम चैतन्य का भेजा हुआ दूत मान रहे हैं । पर उम्र की बढ़ती हुयी दहलीज पर खड़ा होकर मेरी आँखों का धुंधलापन उनमें ईश्वरीय झलक नहीं देख पाता मुझे तो सिर्फ मिट्टी के भांडों पर होशियारी से की गयी चमक -दमक भरी सुनहली परतें ही दिखायी पड़ती हैं । मुझे तो अब भी खेतों - खलिहानों में ,गली -बीथियों में ,श्रमरता मजदूर - मजदूरनियों में और मर्यादित आचरण करती हुयी गृहस्थी चलाने वाली भारत की करोणों बहनों- बेटियों में सच्ची मानव सभ्यता की पवित्र झलक देखने को मिलती है । राजनीति की झाँकियाँ देखते जाइये पर हमें उनकी लुभावनी झलक में अपने सन्तुलन को खोना नहीं चाहिये । मेरा यह मानना है कि दिल्ली और लखनऊ की सरकार हमारे भाग्य का निर्माण नहीं कर सकती । यह सरकारें तो सामयिक मूल्यों को केवल एक तीब्र गतिमयता ही प्रदान कर सकती हैं और ऐसा भी तब जब उनमें स्वयं आचरण ,चिन्तन और निर्माणी संकल्पों का साहस हो । अपना भाग्य तो हमें स्वयं बनाना है । मैं चाहूँगा कि "माटी " के  युवा पाठक -पाठिकाओं के बाबा ,दादा और नाना इस आशा के सहारे लम्बे जीवन का कामना न करें कि उन्हें सरकार से 300 ,500 या 700 की बुढ़ापा पेंशन मिलती रहेगी । वे ऐसा गर्व भरा  लम्बा जीवन जीने के हकदार बनें जो अपने स्वजनों पर अधिकार पूर्ण दायित्व लादकर भारतीय मर्यादा में श्री वृद्धि करें । पराश्रित होना भले ही वह राजाश्रय ही क्यों न हो ,जीवन की नकारात्मक स्वीकृति है । जीवन नाटक में सार्थक अभिनय का तभी कोई अर्थ रह जाता है जब हम भिखारी का कोई भी वेष स्वीकार करने के लिये परिस्थितियों से बाध्य न हों । स्वाभिमान की इस ललकार के साथ "माटी " युवाओं को अपने बुजुर्गों के प्रति सहज भाव से अपना उत्तरदायित्व निभाने का आवाहन करती है और बार्धक्य की मार झेल रहे भाई -बहनों से भी यह आश्वासन चाहती है कि वे यथा संभव अपने शेष जीवन को स्वावलम्बन के सहारे ही यापन करने की आशावादिता को बढ़ावा दें । कभी सहस्त्रों वर्ष पूर्व भादौं की एक अँधेरी अधरात में भारतवर्ष के उत्थान की एक चमत्कारी आभा झलकी थी । कहीं कुछ ऐसी  ही आभा यदि फिर से झलकने लग जाय इसी आशा के साथ "माटी " का सम्पादक अपने पाठकों से रूबरू हो रहा है । 

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