गोस्वामी तुलसीदास निसंदेह हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं और यद्यपि वात्सल्य चित्रण के क्षेत्र में सूरदास उनसे बाजी मार ले जाते हैं पर सब मिलाकर समग्रता के सन्दर्भ में तुलसी की श्रेष्ठता पर प्रश्न चिन्ह लगाना कठिन हो जाता है ।
' सूर -सूर ,तुलसी शशी, उद्द्गुण केशवदास '
की कहावत ऐतिहासिक काल क्रम में सही कही जा सकती है । पर साहित्यिक गौरव के सम्बन्ध में इस पंक्ति को यदि इस प्रकार लिखा जाय तो भी अनुचित न होगा ।
' सूर -शशी ,तुलसी रवी उद्गुण केशवदास '
पर इस लेख का विषय तुलसी के काब्य के महत्त्व या रामायण में अभिव्यक्ति उनकी अप्रतिम भक्ति भावना से सम्बन्धित नहीं है । यहाँ हम इस बात पर विचार करना चाहेंगें कि तुलसी का सामाजिक चिन्तन अपने सम कालिक और परम्परा से पाये हुये मूल्यों से ही नियन्त्रित होता था । वे भक्ति मार्ग के द्वारा आत्म शान्ति और मोक्ष का मार्ग सुझा पाने में भले ही सक्षम रहे हों पर पुरुष और नारी के सम्बन्ध में उनकी धारणायें मध्यकाल की भ्रामक मान्यताओं से ऊपर नहीं उठ पायी थी । सच तो यह है कि कोई भी कवि या शब्दकार अपने युग में बड़ा नहीं होता और काल का प्रत्येक युग नये चिन्तन ,नयी तकनीकी खोजों और नयी जैविक उपलब्धियों से प्रभावित होता रहता है । जब तक अश्व ही सबसे द्रुतगामी साधन थे तब कुशल अश्वारोही ही सेना नायक ,विजेता और सम्राट बनते थे । तब से लेकर आज तक मानव मस्तिष्क ने न जाने कितनी अपार सम्भावनायें तलाश कर ली हैं । चील के बड़े -बड़े डैने फैलाये हवाई जहाज अब नयी पीढ़ी के लिये रोज के खिलौने हैं और अन्तरिक्ष के आर -पार की सैर किस्से कहानियों से हटकर वास्तविकता के धरातल पर आ खड़ी हुयी है । विष्णु और शिव दोनों की शक्तियाँ तो अब मानव के पास हैं हीं और ब्रम्हाँ जी की नया जीवन उत्पन्न करने वाली शक्ति भी उसके पास आ चुकी है । थोड़ी बहुत कसर यदि कहीं रह गयी है तो उसे एक- दो दशक की छलांगें अपने घेरे में ले लेंगीं । हम यह कहना चाहते हैं कि हमारे सामाजिक मूल्य भी परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजरते हैं और बीते कल में जो मान्य था वह आज भी मान्य हो ऐसा आवश्यक नहीं है । यह तो ठीक है कि पीड़ितों की मदद करना मानवता का एक अमिट पहलू है पर पीड़ित किसे कहते हैं इसकी पहचान करने के लिये अपने -अपने विशिष्ट क्षेत्रों ,राजनीतिक ,सामाजिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों को पृष्ठभूमि में रखना होगा । अब नर -नारी के सम्बन्धों को ही लें । तुलसी के राम जगत जननी सीता के प्यार में सदैव डूबे रहे पर जहाँ कहीं यह प्यार उन्हें समाज स्वीकृत मूल्यों से टकराता हुआ दिखलायी पड़ा वहाँ उन्होंने नाटकीय मुद्रायें अपनायी और बहुसंख्यक समाज को अपने साथ रखा । आज का प्रखर बुद्धिजीवी इसे राम के चरित्र में सामाजिक विरोध झेलने के साहस की कमी मानता है पर भारत का सामान्य भक्त जन इसे एक सर्वथा उचित सामाजिक कदम मान कर स्वीकार करता है । स्वतन्त्र भारत में जिस सँविधान को भारत की जनता ने स्वीकार किया है उसमे नर और नारी दोनों में कोई अन्तर नहीं है ।वे दोनों ही मानवीय आकृतियां हैं और उनकी शरीर रचना का अन्तर प्रकृति की अनिवार्यता है । उसके बिना मानव श्रष्टि का विस्तार नहीं हो सकता । सर्वथा समान पद और गौरव की अधिकारिणी नारी नर से उसी वफादारी ,,प्रेम ,देखरेख और सेवा की माँग करती है जो माँग बहुत लम्बे अरसे से केवल पुरुष वर्ग के अधिकार क्षेत्र में रही है । आइये हम आपको तुलसी दास के रामचरित मानस केतृतीय सोपान आरण्य काण्ड में ले चलें राम और लक्ष्मण दोनों भाई सीताजी के साथ ऋषि अत्रि के आश्रम में पहुँचें । अत्रि ऋषि ने ईश्वरावतार राम की पूजा वन्दना की । सीताजी ने अनुसुइया के पैर छूकर आशीर्वाद माँगा ओर साथ ही नारी धर्म के विषय में उनके द्वारा अर्जित ज्ञान और अनुभव की कुछ सीख। अनुसुइयाजी ने जो बातें सीता जी से कहीं उन्हें आज के संविधान में समानता का हक़ पायी हुयी नारी स्वीकार कर सकेगी या नहीं ? ऊँचें और अर्धशिक्षित परिवारों में कानूनी ढंग से वैध तलाक भी आज समाज -स्वीकृत आचार है और उसे कोई हेय दृष्टि से नहीं देखता । विदेशों में तो न जानें कितने तलाक लेने के बाद भी नारी प्रसिद्ध के चरम शिखर पर पहुँचती हैऔर अपनी सेक्सुअल अपील का डंका बजवाने में समर्थ होती है ।पतिब्रता नारी के सम्बन्घ में अनुसुइया जी ने सीता जी को जो शिक्षा दी वह नीचे लिखी गयी चौपाइयों में देखी जा सकती हैं ।
वृद्ध रोग बस जड़ धन हीना । अंध वधिर -क्रोधी अति दीना ॥
ऐसेहु पति कर किये अपमाना । नारि पाव जमपुर दुःख नाना ॥
एकई धर्म एक व्रत नेमा । कायं बचन मन पति पद प्रेमा ॥
जग पतिव्रता चारि विधि अहहीं । वेद पुरान संत सब कहहीं ॥
उत्तम के असवस मन माँहीं । सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं ॥
मध्यम परिपति देखई कैसे । भ्राता पिता पुत्र निज जैसे ॥
धर्म विचारि समुझि कुल रहईं । सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई ॥
बिनु अवसर भयतें रह जोई । जानेहु अधम नारि जग सोई ॥
पति वंचक परपति रति करईं । रौरव नरक कल्प सतपरईं ॥
छन सुख लागि जनम सत कोटी । दुःख न समुझ तेहि समको खोटी ॥
(रामचरित मानस मूल गुटका पृष्ठ 409 /410 )
उपरोक्त पंक्तियों में जो पतिब्रत धर्म व्याख्यायित है वह आज के बन्धन मुक्त नर -नारी सम्बन्धों में कितना सार्थक होगा इसका आंकलन पाठक स्वयं ही अपने अनुभव के आधार पर कर पायेंगें और मेरे पाठक शब्द में पाठिकायें भी सम्मिलित हैं क्योंकि मैं 'पाठक ' को उभयलिंगीं अर्थों में प्रयोग कर रहा हूँ । आइये ऊपर लिखित पँक्तियों में से पहली पँक्ति को लें । किशोरी व् युवा स्त्री को वृद्ध पति देकर कोई भी समाज अपने पर गर्व नहीं कर सकता । जड़ यानि मूर्ख ,प्राण घातक रोग से ग्रसित ,अन्धे और बहरे पति को पाकर जिस समाज की नारी अपने को धन्य समझती है उस समाज के उत्थान की कल्पना ही नहीं की जा सकती । अगली पँक्तियों में जो कुछ कहा गया है वह तभी स्वीकार्य है जब ये सभी बातें पुरुष वर्ग के सन्दर्भ में भी लागू की जायँ । अन्तिम पँक्ति में एक क्षणिक सुख के लिये 100 कोटि जन्मों के बर्बाद होने की जो बात कही गयी है उसे एक महिमा मण्डित अंध विश्वास के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है । परस्पर मैत्री और एक -दूसरे के प्रति समान आदर और समझौता भाव इन्हीं के आधार पर नर -नारी के सम्बन्धों की व्याख्या होनी चाहिये । पुरुष प्रधान समाज यदि अपनी सोच को नहीं बदलता और नारी से ही प्यार के नाम पर गुलामी और धीमें पदों आने वाली मौत की मॉंग करता है तो इससे बड़ी विडंम्बना और क्या हो सकती है ।
अमेरिकन लेखिका Betty Friedan जिन्होनें "The Feminine Mystique" नमक किताब लिखी थी ,जिसने बिक्री के सारे रिकार्ड तोड़ दिये थे 1969 में शिकागो में कहा था कि पति की गुलामी तो यन्त्रणा है ही पर उससे बड़ी यन्त्रणा है ,अनचाहे माँ बनने का बोझ वहन करना । उनके शब्द नीचे उद्धत किये जाते हैं ।
" Motherhood is a bane almost by definition or at least partly so ,as long as women are forced to be mother-and only mothers -against their will . Like a cancer cell living its life through another cell women today are forced to live too much through their children and husband . Like all oppressed people,women have been taking their violence out on their own bodies , in all the maladies with which they plague the MD's and the psychoanalysts ."
महाकवि तुलसीदास हिन्दी भाषा -भाषियों के लिये अपने काल में एक दिब्य वरदान बन कर आये थे । रामायण की कथा आज भी अपने पात्रों की जीवन्तता के बल पर भारतीय समाज के लिये पथ प्रदर्शन का कार्य करती है । पर ,हम यह कहना चाहेंगें ,कि रामचरित मानस में यत्र -तत्र बिखरी शिक्षाओं और सन्देशों में कुछ ऐसी बातें हैं जो मुग़ल कालीन भारत में भले ही सार्थक रही हों पर धर्म निरपेक्ष ,सार्वभौम सम्पन्न ,नर- नारी समानता मूलक आधारों पर निर्मित संविधान संचालित आज के भारत में उनका कुछ औचित्य नहीं दिखायी पड़ता । मानव चिन्तन को कभी भी किसी कटघरे में बन्द नहीं करना चाहिये और मोक्ष या मुक्ति के नाम पर भरपूर स्वस्थ्य सामाजिक जीवन बिताने को मिथ्या की दौड़ कहकर नहीं पुकारना चाहिये । आखिरकार सारी राजनीतिक उलट -पलट और सत्ता प्राप्ति तथा प्रशासन सुधार का लक्ष्य क्या है ? विश्व के प्रत्येक मनुष्य को जीवन की वो सभी सुविधायें प्रदान करना जो उपलब्ध तकनीकी विकास के द्वारा और अर्जित सम्पत्ति के न्याय पूर्ण बटवारे के द्वारा सुलभ करायी जा सकती है । धरती पर जिया हुआ यही जीवन धरती का मोक्ष है । मृत्यु के बाद स्वर्ग या बैकुण्ठ की प्राप्ति व्यक्तिगत विश्वासों की अन्तर्मुखी उड़ान है । उसे सब तक किन्हीं भी साधनों से सुलभ नहीं कराया जा सकता । हिन्दी के विचारशील समर्थ नये कवियों ने नारी को सच्चे मानवीय सन्दर्भों में देखा परखा है तभी तो सुमित्रानन्दन पन्त कहते हैं -
" योनि नहीं है रे नारी !वह भी मानवी प्रतिष्ठित ,
उसे पूर्ण स्वाधीन करो ,वह रहे न नर पर अवसित "
और रामधारी सिंह दिनकर ने उर्वशी में नारी के सम्बन्ध में पुरूखा द्वारा कहलवाया है ," और देवि !जिन दिब्य गुणों को मानवता कहते हैं ,उसके भी अत्यधिक निकट नर नहीं मात्र नारी है ।"
हम स्वीकार करते हैं कि काब्य ,भक्ति ,आचरण ,पवित्रता ,संस्कृति और औपनिषदिक ज्ञान में हम गोस्वामी तुलसीदास की जूठन उठाने के काबिल भी नहीं हैं पर नारी स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में गोस्वामी जी अपने युग से ऊपर उठकर भविष्य द्रष्टा नहीं बन सके हैं । मध्य युग का समाज चिन्तन उन्हें नारी को एक सर्वथा स्वतन्त्र व्यक्ति के रूप में देखने की इजाजत नहीं देता । गोस्वामीजी अपने समय के चिन्तन को भी मर्यादा मान कर स्वीकार कर लेते हैं । वे चाहते तो उसे ललकार कर नर -नारी सम्बन्ध का एक नया मार्ग भी सुझा सकते थे । महापुरुष राम और महामाया सीता जी के सम्बन्धों में उन्होंने एक अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया है । पर समाज के सामान्य वर्ग के लिये उन्होंने प्रचलित वर्जनाओं को ही स्वीकृति दे है । हिन्दी के इस महानतम कवि का निधन 1623 में स्वीकार किया जाता है । कहते हैं श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवार को महाकवि के प्राणों की दिब्य ज्योति परम ज्योति में विलीन हुयी थी । आज 392 वर्ष बाद उनसे पाये हुये ज्ञान ने ही हमें यह शक्ति दी है कि हम उनके द्वारा कही गयी कुछ बातों पर पुनर विचार कर उन्हें आज के युगीन सन्दर्भों में सार्थक बनाने का प्रयास करें । हमें विश्वास है कि उनकी कृपा का ईश्वरीय वैभव हमें क्षमाँ का आँचल प्रदान करेगा । महाकवि को शत -शत नमन के साथ --
' सूर -सूर ,तुलसी शशी, उद्द्गुण केशवदास '
की कहावत ऐतिहासिक काल क्रम में सही कही जा सकती है । पर साहित्यिक गौरव के सम्बन्ध में इस पंक्ति को यदि इस प्रकार लिखा जाय तो भी अनुचित न होगा ।
' सूर -शशी ,तुलसी रवी उद्गुण केशवदास '
पर इस लेख का विषय तुलसी के काब्य के महत्त्व या रामायण में अभिव्यक्ति उनकी अप्रतिम भक्ति भावना से सम्बन्धित नहीं है । यहाँ हम इस बात पर विचार करना चाहेंगें कि तुलसी का सामाजिक चिन्तन अपने सम कालिक और परम्परा से पाये हुये मूल्यों से ही नियन्त्रित होता था । वे भक्ति मार्ग के द्वारा आत्म शान्ति और मोक्ष का मार्ग सुझा पाने में भले ही सक्षम रहे हों पर पुरुष और नारी के सम्बन्ध में उनकी धारणायें मध्यकाल की भ्रामक मान्यताओं से ऊपर नहीं उठ पायी थी । सच तो यह है कि कोई भी कवि या शब्दकार अपने युग में बड़ा नहीं होता और काल का प्रत्येक युग नये चिन्तन ,नयी तकनीकी खोजों और नयी जैविक उपलब्धियों से प्रभावित होता रहता है । जब तक अश्व ही सबसे द्रुतगामी साधन थे तब कुशल अश्वारोही ही सेना नायक ,विजेता और सम्राट बनते थे । तब से लेकर आज तक मानव मस्तिष्क ने न जाने कितनी अपार सम्भावनायें तलाश कर ली हैं । चील के बड़े -बड़े डैने फैलाये हवाई जहाज अब नयी पीढ़ी के लिये रोज के खिलौने हैं और अन्तरिक्ष के आर -पार की सैर किस्से कहानियों से हटकर वास्तविकता के धरातल पर आ खड़ी हुयी है । विष्णु और शिव दोनों की शक्तियाँ तो अब मानव के पास हैं हीं और ब्रम्हाँ जी की नया जीवन उत्पन्न करने वाली शक्ति भी उसके पास आ चुकी है । थोड़ी बहुत कसर यदि कहीं रह गयी है तो उसे एक- दो दशक की छलांगें अपने घेरे में ले लेंगीं । हम यह कहना चाहते हैं कि हमारे सामाजिक मूल्य भी परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजरते हैं और बीते कल में जो मान्य था वह आज भी मान्य हो ऐसा आवश्यक नहीं है । यह तो ठीक है कि पीड़ितों की मदद करना मानवता का एक अमिट पहलू है पर पीड़ित किसे कहते हैं इसकी पहचान करने के लिये अपने -अपने विशिष्ट क्षेत्रों ,राजनीतिक ,सामाजिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों को पृष्ठभूमि में रखना होगा । अब नर -नारी के सम्बन्धों को ही लें । तुलसी के राम जगत जननी सीता के प्यार में सदैव डूबे रहे पर जहाँ कहीं यह प्यार उन्हें समाज स्वीकृत मूल्यों से टकराता हुआ दिखलायी पड़ा वहाँ उन्होंने नाटकीय मुद्रायें अपनायी और बहुसंख्यक समाज को अपने साथ रखा । आज का प्रखर बुद्धिजीवी इसे राम के चरित्र में सामाजिक विरोध झेलने के साहस की कमी मानता है पर भारत का सामान्य भक्त जन इसे एक सर्वथा उचित सामाजिक कदम मान कर स्वीकार करता है । स्वतन्त्र भारत में जिस सँविधान को भारत की जनता ने स्वीकार किया है उसमे नर और नारी दोनों में कोई अन्तर नहीं है ।वे दोनों ही मानवीय आकृतियां हैं और उनकी शरीर रचना का अन्तर प्रकृति की अनिवार्यता है । उसके बिना मानव श्रष्टि का विस्तार नहीं हो सकता । सर्वथा समान पद और गौरव की अधिकारिणी नारी नर से उसी वफादारी ,,प्रेम ,देखरेख और सेवा की माँग करती है जो माँग बहुत लम्बे अरसे से केवल पुरुष वर्ग के अधिकार क्षेत्र में रही है । आइये हम आपको तुलसी दास के रामचरित मानस केतृतीय सोपान आरण्य काण्ड में ले चलें राम और लक्ष्मण दोनों भाई सीताजी के साथ ऋषि अत्रि के आश्रम में पहुँचें । अत्रि ऋषि ने ईश्वरावतार राम की पूजा वन्दना की । सीताजी ने अनुसुइया के पैर छूकर आशीर्वाद माँगा ओर साथ ही नारी धर्म के विषय में उनके द्वारा अर्जित ज्ञान और अनुभव की कुछ सीख। अनुसुइयाजी ने जो बातें सीता जी से कहीं उन्हें आज के संविधान में समानता का हक़ पायी हुयी नारी स्वीकार कर सकेगी या नहीं ? ऊँचें और अर्धशिक्षित परिवारों में कानूनी ढंग से वैध तलाक भी आज समाज -स्वीकृत आचार है और उसे कोई हेय दृष्टि से नहीं देखता । विदेशों में तो न जानें कितने तलाक लेने के बाद भी नारी प्रसिद्ध के चरम शिखर पर पहुँचती हैऔर अपनी सेक्सुअल अपील का डंका बजवाने में समर्थ होती है ।पतिब्रता नारी के सम्बन्घ में अनुसुइया जी ने सीता जी को जो शिक्षा दी वह नीचे लिखी गयी चौपाइयों में देखी जा सकती हैं ।
वृद्ध रोग बस जड़ धन हीना । अंध वधिर -क्रोधी अति दीना ॥
ऐसेहु पति कर किये अपमाना । नारि पाव जमपुर दुःख नाना ॥
एकई धर्म एक व्रत नेमा । कायं बचन मन पति पद प्रेमा ॥
जग पतिव्रता चारि विधि अहहीं । वेद पुरान संत सब कहहीं ॥
उत्तम के असवस मन माँहीं । सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं ॥
मध्यम परिपति देखई कैसे । भ्राता पिता पुत्र निज जैसे ॥
धर्म विचारि समुझि कुल रहईं । सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई ॥
बिनु अवसर भयतें रह जोई । जानेहु अधम नारि जग सोई ॥
पति वंचक परपति रति करईं । रौरव नरक कल्प सतपरईं ॥
छन सुख लागि जनम सत कोटी । दुःख न समुझ तेहि समको खोटी ॥
(रामचरित मानस मूल गुटका पृष्ठ 409 /410 )
उपरोक्त पंक्तियों में जो पतिब्रत धर्म व्याख्यायित है वह आज के बन्धन मुक्त नर -नारी सम्बन्धों में कितना सार्थक होगा इसका आंकलन पाठक स्वयं ही अपने अनुभव के आधार पर कर पायेंगें और मेरे पाठक शब्द में पाठिकायें भी सम्मिलित हैं क्योंकि मैं 'पाठक ' को उभयलिंगीं अर्थों में प्रयोग कर रहा हूँ । आइये ऊपर लिखित पँक्तियों में से पहली पँक्ति को लें । किशोरी व् युवा स्त्री को वृद्ध पति देकर कोई भी समाज अपने पर गर्व नहीं कर सकता । जड़ यानि मूर्ख ,प्राण घातक रोग से ग्रसित ,अन्धे और बहरे पति को पाकर जिस समाज की नारी अपने को धन्य समझती है उस समाज के उत्थान की कल्पना ही नहीं की जा सकती । अगली पँक्तियों में जो कुछ कहा गया है वह तभी स्वीकार्य है जब ये सभी बातें पुरुष वर्ग के सन्दर्भ में भी लागू की जायँ । अन्तिम पँक्ति में एक क्षणिक सुख के लिये 100 कोटि जन्मों के बर्बाद होने की जो बात कही गयी है उसे एक महिमा मण्डित अंध विश्वास के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है । परस्पर मैत्री और एक -दूसरे के प्रति समान आदर और समझौता भाव इन्हीं के आधार पर नर -नारी के सम्बन्धों की व्याख्या होनी चाहिये । पुरुष प्रधान समाज यदि अपनी सोच को नहीं बदलता और नारी से ही प्यार के नाम पर गुलामी और धीमें पदों आने वाली मौत की मॉंग करता है तो इससे बड़ी विडंम्बना और क्या हो सकती है ।
अमेरिकन लेखिका Betty Friedan जिन्होनें "The Feminine Mystique" नमक किताब लिखी थी ,जिसने बिक्री के सारे रिकार्ड तोड़ दिये थे 1969 में शिकागो में कहा था कि पति की गुलामी तो यन्त्रणा है ही पर उससे बड़ी यन्त्रणा है ,अनचाहे माँ बनने का बोझ वहन करना । उनके शब्द नीचे उद्धत किये जाते हैं ।
" Motherhood is a bane almost by definition or at least partly so ,as long as women are forced to be mother-and only mothers -against their will . Like a cancer cell living its life through another cell women today are forced to live too much through their children and husband . Like all oppressed people,women have been taking their violence out on their own bodies , in all the maladies with which they plague the MD's and the psychoanalysts ."
महाकवि तुलसीदास हिन्दी भाषा -भाषियों के लिये अपने काल में एक दिब्य वरदान बन कर आये थे । रामायण की कथा आज भी अपने पात्रों की जीवन्तता के बल पर भारतीय समाज के लिये पथ प्रदर्शन का कार्य करती है । पर ,हम यह कहना चाहेंगें ,कि रामचरित मानस में यत्र -तत्र बिखरी शिक्षाओं और सन्देशों में कुछ ऐसी बातें हैं जो मुग़ल कालीन भारत में भले ही सार्थक रही हों पर धर्म निरपेक्ष ,सार्वभौम सम्पन्न ,नर- नारी समानता मूलक आधारों पर निर्मित संविधान संचालित आज के भारत में उनका कुछ औचित्य नहीं दिखायी पड़ता । मानव चिन्तन को कभी भी किसी कटघरे में बन्द नहीं करना चाहिये और मोक्ष या मुक्ति के नाम पर भरपूर स्वस्थ्य सामाजिक जीवन बिताने को मिथ्या की दौड़ कहकर नहीं पुकारना चाहिये । आखिरकार सारी राजनीतिक उलट -पलट और सत्ता प्राप्ति तथा प्रशासन सुधार का लक्ष्य क्या है ? विश्व के प्रत्येक मनुष्य को जीवन की वो सभी सुविधायें प्रदान करना जो उपलब्ध तकनीकी विकास के द्वारा और अर्जित सम्पत्ति के न्याय पूर्ण बटवारे के द्वारा सुलभ करायी जा सकती है । धरती पर जिया हुआ यही जीवन धरती का मोक्ष है । मृत्यु के बाद स्वर्ग या बैकुण्ठ की प्राप्ति व्यक्तिगत विश्वासों की अन्तर्मुखी उड़ान है । उसे सब तक किन्हीं भी साधनों से सुलभ नहीं कराया जा सकता । हिन्दी के विचारशील समर्थ नये कवियों ने नारी को सच्चे मानवीय सन्दर्भों में देखा परखा है तभी तो सुमित्रानन्दन पन्त कहते हैं -
" योनि नहीं है रे नारी !वह भी मानवी प्रतिष्ठित ,
उसे पूर्ण स्वाधीन करो ,वह रहे न नर पर अवसित "
और रामधारी सिंह दिनकर ने उर्वशी में नारी के सम्बन्ध में पुरूखा द्वारा कहलवाया है ," और देवि !जिन दिब्य गुणों को मानवता कहते हैं ,उसके भी अत्यधिक निकट नर नहीं मात्र नारी है ।"
हम स्वीकार करते हैं कि काब्य ,भक्ति ,आचरण ,पवित्रता ,संस्कृति और औपनिषदिक ज्ञान में हम गोस्वामी तुलसीदास की जूठन उठाने के काबिल भी नहीं हैं पर नारी स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में गोस्वामी जी अपने युग से ऊपर उठकर भविष्य द्रष्टा नहीं बन सके हैं । मध्य युग का समाज चिन्तन उन्हें नारी को एक सर्वथा स्वतन्त्र व्यक्ति के रूप में देखने की इजाजत नहीं देता । गोस्वामीजी अपने समय के चिन्तन को भी मर्यादा मान कर स्वीकार कर लेते हैं । वे चाहते तो उसे ललकार कर नर -नारी सम्बन्ध का एक नया मार्ग भी सुझा सकते थे । महापुरुष राम और महामाया सीता जी के सम्बन्धों में उन्होंने एक अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया है । पर समाज के सामान्य वर्ग के लिये उन्होंने प्रचलित वर्जनाओं को ही स्वीकृति दे है । हिन्दी के इस महानतम कवि का निधन 1623 में स्वीकार किया जाता है । कहते हैं श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवार को महाकवि के प्राणों की दिब्य ज्योति परम ज्योति में विलीन हुयी थी । आज 392 वर्ष बाद उनसे पाये हुये ज्ञान ने ही हमें यह शक्ति दी है कि हम उनके द्वारा कही गयी कुछ बातों पर पुनर विचार कर उन्हें आज के युगीन सन्दर्भों में सार्थक बनाने का प्रयास करें । हमें विश्वास है कि उनकी कृपा का ईश्वरीय वैभव हमें क्षमाँ का आँचल प्रदान करेगा । महाकवि को शत -शत नमन के साथ --
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