Tuesday, 26 April 2016

                   ................................काष्ठ घर्षण से अग्नि उत्पन्न करके उन्होंने अपने समय में एक चमत्कार कर दिखया था । साथ ही उनकी पुष्ट काया और प्रज्वलित नेत्र तथा शस्त्र संचालन में उनकी कुशलता उन्हें अपने समय के साहसी आर्य नवयुवकों में प्रथम पूज्य के पद पर प्रतिष्ठित कर चुकी थी । अविवाहित रहकर मोक्ष की प्राप्ति में साधनारत रहना अब आर्य चिन्तन का प्रमुख तत्व नहीं रह गया था । उसके स्थान पर  गृहस्थ जीवन में एक दो स्वस्थ्य सन्तान पैदा कर नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिये निरन्तर संघर्ष रत रहना उतना ही सम्माननीय बन गया था जितना कि मोक्ष प्राप्ति के प्रयत्न । अत्याचारी असभ्य कबीले आर्य जीवन पद्धति के आदर्शों का विरोध कर रहे थे और वह विरोध इतना हिंसक हो चुका था कि वीर्यवान तरुणों की प्रशिक्षित सजकता के बिना रोका ही नहीं जा सकता था । तरुण जमदग्नि इस देव कार्य के शीर्षस्थ संचालक बन गये । गृहस्थ बनने की इच्छा जगते ही उनको पाने की लालसा लिये न जाने कितनी सुन्दरी आर्य तरुणियाँ स्वप्नों की लहरियों पर तैरती रहीं पर सौभाग्य जिसको मिलना था उसे ही मिला । अपने काल की अन्यतम सुन्दरी और आर्य नारी आदर्श की प्रतीक रेणुका उनकी सहगामिनी के रूप में आ गयी । कितने ही आर्य नृपति रेणुका को अपने रनिवास में पाकर अपने भाग्य को सराहते पर रेणुका को ऐश्वर्य नहीं वरन इतिहास की अमरता अपेक्षित थी । न जाने कितने अनार्य राजा भी उसे उठाकर ले जाने की योजना बना रहे थे । रेणुका ने अत्यन्त बुद्धिमत्ता के साथ अपने को इस हरण से बचा लिया और वह जमदग्नि की सहगामिनी बनने का सौभाग्य पा गयी । मिलन के दो वर्ष के भीतर ही परशुधर धरती पर अवतरित हुये । साहसी आर्यों की उद्द्यमी पीढ़ियों ने अब तक ताम्बे की खोज कर ली थी । धरती की कोख से मिट्टी से ढकी प्रस्तर शिलाओं में ताम्बे को अग्नि में गलाकर नुकीले और गोल धारदार हथियारों में बदला जाने लगा ।यदाकदा आयस  या लोहा भी खोज लिया गया था । आयस के लिये आयनाशक का भी प्रयोग हो रहा था । और आयन ही शायद आगे चलकर लैटिन से होता हुआ अंग्रेजी में Iron बनकर जा पहुँचा । अंग्रेज लोग आर का उच्चारण नहीं करते और Iron को आयन कहकर बोलते हैं । यहाँ शब्द समानता की यह चर्चा इसलिये की जा रही है ताकि 'माटी " के बहुबिध्य पाठक प्राचीन आर्य सभ्यता के विस्तार पर शोधपरक दृष्टि डालते रहें । और (Indo ) योरोपियन भाषाओं के बहिनापे से परिचित रहें । तो  जमदग्नि और रेणुका का पुत्र शैशव पार करते ही सिंह शावकों से खेलने लगा उसने जान लिया कि शक्ति के बिना नीति आधारित  समाज की स्थापना नहीं की जा सकती । थोड़ा बड़ा  होते ही उसने माता -पिता से आज्ञां मांगकर मगध की ओर प्रस्थान किया । कुछ मगध वन पर्यटकों से से उसने यह सुना  था कि मगध में ताम्र से कहीं अधिक दृढ और मारक धातु खोज ली गयी है और वहाँ पर लौह धनुष और तीर भी बनने लगे हैं । ताम्बे से निर्मित चक्राकार परशु को उसने कन्धे पर उठाया और यह 14 वर्षीय किशोर मगध के क्षेत्र में प्रवेश कर वृक्ष- आच्छादित पहाड़ियों पर आश्रम बनाने की योजना में जुट  गया वन -जातियों में भी कुछ ऐसे तरुण निकल आये थे जो आदिम विश्वासों से ऊपर उठकर आर्य जीवन प्रणाली स्वीकार  करने का साहस कर रहे थे । इन तरुणों में कुछ अच्छे शिल्पी ,धातुकार और शस्त्र कारीगर भी पाये जाते थे । जामदग्नेय एक ऊँची पहाड़ी कीचोटी के पास किसी लम्बी -चौड़ी समतल भूमि पट्टिका की तलाश में लग गये । मिथिला जनपद से थोड़ी ही दूर एक ऐसा स्थान उन्हें मिल गया । वनवासियों और जन -जातियों के सहयोग से उन्होंने इस स्थल पर प्रस्तर खण्डों को कलात्मक ढंग से जुडवाकर धूर्जटी त्रिशूल पाणि भगवान शंकर का मन्दिर खड़ा कर  दिया । उनकी दीर्घ काया ,उनके प्रज्वलित नेत्र ,उनकी विशाल छाती और उनकी लौह भुजायें वनवासियों की आँखों में उन्हें भगवान शंकर के रूप में ही प्रस्तुत करती थेीं । फिर धातु शोधकों की मदद से कच्चे लोहे को आग में गलाकर और उसकी मलिनता दूर कर उसे पक्का किया गया । आज के तकनीकी विकास के इस आश्चर्यमय विश्व में रह रहे 'माटी ' के पाठक अपनी कल्पना में धातु शोधन की वह प्रक्रिया ले आयें जो हजारों वर्ष पहले अपने प्रारम्भिक रूप में एक प्रयोग के रूप में प्रारम्भ हुयी थी । । फिर जामदग्नेय ने यहाँ लौह से निर्मित तीन विशाल धनुषों की धातुकारों द्वारा गढ़ाई करवायी । । इन धनुषों में बहुत अधिक सफायी करके लोहे के अदूर  पर सूत  जैसी पतली प्रत्यच्चाओं का जोड़ किया गया । परशुधर ने उन धनुषों की प्रत्य्ंचाओं को खींचकर और उनपर लोहे के तीर चढ़ाकर ताड़ के कई बड़े -बड़े पेड़ों को बींध डाला । उन्हें विश्वाश हो गया कि मानव श्रष्टि में उस समय उनके अतिरिक्त और कोई भी ऐसा शक्तिशाली पुरुष नहीं है जो इन धनुषों  को सन्धानित कर सके । फिर परशुधर ने ताम्र नर्मित अपने परशु की भाँति ही एक लौह निर्मित परशु ढलवाया और साथ ही एक लौह त्रिशूल भी ।
                       आर्य चिन्तन में उस समय त्रिदेव की कल्पना ऊँचाई पर पहुँच एकेश्वरबाद की ओर बढ़ रही थी । ब्रम्हा ,विष्णु और महेश तीनों ही सर्वोच्च ईश्वरीय सत्ता के सृजन ,पालन और संहारन शक्तियों के प्रतीक बन गए थे । धीरे -धीरे पालनकर्ता विष्णु साधकों द्वारा प्रथम स्थान पर स्थापित हो रहे थे । अपने आश्रम में साधनारत परशुधर अब 19 वर्ष के हो गये थे । भगवान विष्णु की सर्वोच्च्ता की दार्शनिक खबर उन्हें ऋषियों और चिन्तकों द्वारा मिल चुकी थी । शिव मंदिर से कुछ 100 गज की दूरी पर एक अन्य पहाड़ी समतल स्थल पर उन्होंने विष्णु मन्दिर बनाने की योजना बनायी । परशुधर ने अपनी योजना में कभी निष्फल होना तो जाना ही नहीं था । दो वर्ष में ऋषि पालन कर्ता भगवान विष्णु का कलात्मक प्रस्तर गृह तैयार हो गया। लोहा तो उपलब्ध था ही उनके हाँथ में एक चक्र भी दे दिया गया  क्योकि परशु के साथ नोंकदार पैने चक्र से भी युद्ध में सफलतायें पाने के प्रयास प्रारम्भ हो गए थे । अब परशुधर 21 वर्ष  के हो गये थे । पिता के आश्रम से आये हुये लगभग सात वर्ष बीत चुके थे उन्होंने सोचा कि एक धनुष शिव मन्दिर में रखा रहे और एक भगवान विष्णु के मन्दिर में । तीसरा धनुष वे स्वयं धारण करें और लौह परशु तो उनके साथ होगा ही । पिता के आश्रम में जाने से पहले मिथला के महान नृपति जनक जो विदेह के नाम से जाने जाते थे उनसे मिलने  आये । मिथिलेश ने सुन रखा था कि परशुराम उनके राज्य के पास ही एक आश्रम में साधना कर रहे हैं । अपने राज्य में उनकी चर्चायें सुनकर वे अत्यन्त प्रभावित हो उठे थे । (क्रमशः )

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