Wednesday, 20 April 2016

गोरी न्याय व्यवस्था का मिथक

                                           कई वयोवृद्ध लोगों को यह कहते हुये सुना जाता है कि अंग्रेजी राज्य में न्याय की व्यवस्था आज की व्यवस्था के मुकाबले में कहीं अधिक बेहतर थी । उनका कहना है कि उस समय न्याय पालिका के ऊँचे पदों पर अंग्रेज जज ही विराजमान होते थे और वे अपने निर्णय में सदैव निष्पक्ष रहते थे । इसका कारण यह था कि वे हिन्दुस्तान में फ़ैली जाति -पाति ,क्षेत्र -धर्म और भाई बिरादरी की संकीर्ण व्यवस्थाओं से मुक्त थे । वयोवृद्ध लोगों की इन बातों में काफी कुछ सच्चायी हो सकती है पर मुझे कुछ ऐसे प्रसंगों का भी स्मरण आता है जहाँ अंग्रेज न्यायाधीशों की निर्णय प्रक्रिया निरर्थक तथा हास्यास्पद कारणों से सुनिश्चित होती थी । 1912 में कानपुर  में एडीशनल सेशन्स जज के पद पर नियुक्त जैकब हार्डेन द्वारा लिखे गये हिन्दुस्तानी अनुभवों की एक अजीब कहानी मुझे पढ़ने को मिली । जैकब साहब ने लिखा है कि हिन्दुस्तानी वकील उनके सामने टूटी -फूटी अंग्रेजी में जो तर्क रखते थे उसका अधिकाँश उनकी समझ के बाहर होता था । वादी और प्रतिवादी दोनों पक्षों की दलीलें उनके लिये बेमानी होती थीं । उन दिनों भारतवर्ष में या कम से कम कानपुर  में बिजली की व्यवस्था नहीं थी और लकड़ी के कुन्दे में पँखा बाँधकर पँखा हिलाने वाले मजदूर उन्हें राहत पहुँचाते थे । मई की उमस भरी दोपहरियां उन्हेँ बेचैन कर देती थीं । पँखा हिलाते -हिलाते यदि किसी मजदूर के हाथ रुक जाते तो उनके अर्दली का चाबुक उसकी नंगीं पीठ पर अपनी पीड़ा भरी छाप छोड़ देता था । दो -दो मजदूर दो -दो घंटे की बारी से जब तक जज साहब अपनी कुर्सी पर रहते पँखा चलाया करते थे । ठंडे देश के निवासी जैकब गर्मी की भयंकरता से अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठते थे । वकीलों की ओर टेढ़ी निगाह से देखकर उन्हें वे अपनी बात जल्दी समाप्त करने का एहसास कराते थे । चूँकि दोनों पक्ष की दलीलें और हिन्दुस्तानी सन्दर्भ की पृष्ठ भूमि उनकी समझ से बाहर थी इसलिये उन्हें फैसला देने के लिये कोई और उपाय खोजना पड़ता था । उन्होंने अपनी पुस्तक "Memories of Judicial of English Officer " में लिखा है कि कई बार वे पंखें के लकड़ी के कुन्दे पर जो कि कमरे में Horizental  रूप से टँगा था उस पर बैठी हुयी मक्खियों को गिन लेते थे उनकी दायीं ओर वादी होता था और बायीं ओर प्रतिवादी वे दायीं और वायीं दोनों सिरों पर बैठी हुयी मक्खियों की गिनती करते ।  दायीं ओर मक्खियों की गिनती करके 2 से भाग देते फिर बायीं और की मक्खियों की गिनती करके 2 का भाग देते ।   जिस ओर की मक्खियों की संख्या 2 से विभाजित हो जाती उसी के पक्ष में वे फैसला लिख देते । कई बार दोनों ओर की मक्खियों की संख्या 2 से कट जाती थी तब वे अगली तारीख पर फैसला सुनाने की बात कहते और उस दिन भी मक्खियों की गिनती की यह प्रक्रिया निर्णय के लिये कारगर साबित होती । जैकब साहब ने लिखा है कि हिन्दुस्तानियों  ने उनके हर निर्णय को सराहा और उनकी तुलना किसी विक्रमादित्य से की जो न्याय के लिये बहुत प्रसिद्ध था । ऐसा लगता है कि सैकड़ों वर्ष से पीड़ित ,प्रताड़ित सामान्य भारतीय जन मानस दासता के बन्धनों में अपने स्वाभिमान को पूर्णतः विस्मृत कर चुका था यही कारण है कि गोरों का कोई भी निर्णय उन्हें प्रशंसा के योग्य लगता था । सामान्य हिन्दुस्तानी मनोवैज्ञानिक रूप से हीन ग्रन्थि का शिकार बन चुका था और वह मानता था कि गोरी योरोपियन जातियाँ हिन्दुस्तानियों से हर मामले में आगे हैं और चारित्रिक दृष्टि से श्रेष्ठ हैं । आज भेी हमारे कई वयोवृद्ध और समाज में प्रतिष्ठा पाये लोग अंग्रेजों की निष्पक्षता और चारित्रिक गौरव की बात बहुत सराहना के साथ करते हैं दरअसल भ्रम का यह जाल कटते -कटते कई पीढ़ियाँ लग जाती हैं । (क्रमशः )

No comments:

Post a Comment