................................ मुझे लगा कि वह लम्बी गौर आकृति कुछ मुस्करायी, धुंधलके में उजले कण से तिरते दिखायी दिये । हो सकता है यह मेरा भ्रम हो वह महाकाय आकृति बोली ," हे जिज्ञासु जीवन के सबसे बड़े रहस्य को मैंने तब जाना जब वासुदेव कृष्ण नें मुझे बचाकर अमर होने का बरदान दे दिया । अरे जिज्ञासु कौन्तेय को युद्ध में प्रवृत्त करने वाला वह वेणु वादक गोपाल निश्चय ही आदि श्रष्टि से लेकर आज तक के जीवन ज्ञानियों में सर्व श्रेष्ठ है वह स्वयं चाहता तो अमरत्व उसकी मुठ्ठी में था पर जब जीवन की उपयोगिता समाप्त हो जाय तब उसे बनाये रखने की कामना पीब भरे वण को सहजनें जैसी है । यदि धनन्जय मुझे मृत्यु दण्ड दे देते तो महाभारत की कहानी अपनीं सम्पूर्ण समाप्ति को प्राप्त हो जाती । पर उस चक्रधारी नें तो मुझे इतनी अपार पीड़ा दी है कि जो शूली की नोक पर लटकाये उस दण्डित को मिलती है जो नोक से मरनेँ के पहले उतार लिया जाता है और फिर कुछ ठीक होने पर शूली की नोक पर टाँग दिया जाता है । मैनें कुछ और हिम्मत बाँधी सोचा कुछ पंडित ,कुछ अन्य अमर लोगों की गाथायें गाते रहते हैं । शुकदेव जी तो हैं हीं पर कुछ अल्हैड़ी आल्हा के अमर होने की बात भी कहते हैं । और फिर पवन पुत्र हनुमान की अमरता तो सब मान कर ही चलते हैं । मैनें कहा गुरुपुत्र आपनें मुझे एक नयी जीवन दृष्टि दी है । आप की इस बात को मैं गाँठ बाँधकर रखूँगा कि जब जीवन समाज के लिये उपयोगी न रह जाय तो उसको बनाये रखनें की कामना एक मानसिक अपंगता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है पर आप अब शायद जाना चाहते हैं क्योंकि शिवलिंग को दुग्ध स्नान करा देने की घड़ी आ गयी है । जाते -जाते इतना बताते जाइये कि क्या आपको उन अमर पुरुषों का सानिध्य मिल सका है जो भारत की जनश्रुतियों और पण्डितों की कथाओं में सदैव शरीर धारण किये रहेंगें । द्रोण पुत्र ने आवेश में हाथ उठाया । शायद बांया हाथ क्योंकि दाहिने में तो दुग्ध पात्र था । ऐसा मैं इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि बांये ओर का अन्धकार हटता हुआ सा दिखायी पड़ा । बोले हे जिज्ञासु एक बार तुम्हारे मित्र चिदानन्द ढूढिया नें भी मुझसे रात्रि के अन्तिम पहर में मुलाक़ात करके यही प्रश्न पूछा था मैनें जो उत्तर उसको दिया था वही उत्तर आज फिर दोहराता हूँ । हे जिज्ञासु जो जन्मा है उसे मारना ही चाहिये । नारी के उदर में निर्मित कोई भी मानव काया अमरत्व नहीं पाती । सौ वर्ष की आयु सीमा के आस -पास वह स्वयं ही जीवन की थकान मिटानें के लिये मृत्यु की कामना करता है तुम्हारे बताये हुये कथा कहानियों के अमर लोग यदि मेरी ही तरह नारी जन्मा होंगें तो जो अमरत्व वह भोग रहे हैं वह बरदान न होकर अभिशाप होगा । मुझे भी एक बार मर जाने दो और उन सबको भी । फिर नये सिरे से नये गुणों और युग मूल्यों से सुसज्जित कर युगानुकूल भेष -भूषा में मुझे जीवित कर दो ऐसा कर सकोगे तभी जीवन के नये महाभारत में हम धर्म पक्ष का साथ देंगें । पवन पुत्र तो सदा धर्म के साथ थे ही वे तो श्री राम के साथ रहेंगे ही। शुकदेव जी तो सनातन सत्यों का प्रचार करते थे और करते ही रहेगें पर मुझ अश्वत्थामा को तो एक बार श्री कृष्ण के साथ खड़ा होने दो अपनें पिता द्रोण की भूल का भी तो मुझे प्रायश्चित करना है यद्यपि उनकी भूल का मूल कारण पितामह के प्रति उनकी श्रद्धा थी । अच्छा जिज्ञासु यह मिलन मुझे काफी उत्तेजक लगा । फिर न जाने क्या हुआ हल्का सा प्रकाश छा गया शायद ऊषा का प्रकाश था । दरवाजे से बाहर किसी नें पुकारा अरे सोते ही रहोगे सुबह हो गयी । मेरी आँख खुल गयी जान गया चिदानन्द ढूढिया दरवाजे के बाहर खड़े हैं । यह उन्ही की पुकार थी । आखिर उन्होंने मुझे क्षीरेश्वर में आने वाले महाभारत के महापात्र द्रोण पुत्र अश्वत्थामा से मुलाक़ात करवा ही दी तो क्या मैं स्वप्न देख रहा था ?स्वयं अपनें ही व्यक्तित्व के ,अपनी ही चेतना के दो विभाजित अंगों के बात -चीत में लगा था । मनोविज्ञान ही इसका उत्तर दे सकेगा ।
No comments:
Post a Comment