Sunday, 22 November 2015

कितनी बार ऐसा होता है ……

                                          कितनी बार ऐसा होता है कि हम भीड़ -भाड़  से  हटकर एकान्त में बैठना चाहते हैं । तपस्वी ,साधु और गुफा वासी ऋषि -मुनि एकान्त में रहकर ही परम तत्व की खोज करते हैं। अपने -अपनें माप दण्डों के अनुसार वे इस परम सत्य का साक्षात्कार भी कर लेते हैं । विश्व की हर सभ्यता में एक काल ऐसा रहा है जब अन्तिम सत्य पा जाने का दावा करनें वाले खोजियों नें मनुष्य को संसार छोड़ कर मुक्ति ,मोक्ष या अन्तिम सत्य की तलाश में लग जानें के लिये प्रेरित और प्रोत्साहित किया । एकान्त वास कर सत्य अन्वेषण की इस पुकार को मिथ्या कह कर नकार देना अनुचित ही होगा । पर इस सत्य को भी हमें स्वीकार करना ही होगा कि मानव सभ्यता के लगभग सभी टिकाऊ मूल्य जो सभ्यता के आधार स्तंभ्भ बने हैं सामूहिक जीवन से ही प्राप्त हुए हैं । एकान्त वासियों के लिए भी सामजिक सम्पर्क की आवश्यकता उतनी ही महत्त्व पूर्ण है जितना मनन -चिन्तन के लिये एकान्त की । सुदूर अतीत में शायद कभी ऐसा रहा हो जब अकेला व्यक्ति अपनें भरण -पोषण के लिये प्रकृति संसाधन एकत्रित कर लेता हो पर बिना हमजोलियों के सहवास के उसे जीवन निरर्थक ही लगता होगा। विगत के सन्दर्भ आज उतने सटीक नहीं हैं और अब हम एकान्त वास की कल्पना अपनें जीवन के उन प्राइवेट क्षणों से जोड़ सकते हैं जब हम दिन के चौबीस घण्टों में हम अपनें निजी आवासों  पर होते हैं । पारिवारिक जीवन भी विशाल मानव समुदाय से अलग हटकर एक प्रकार का एकान्त वास ही है । जो हमें जीवन के बड़े सत्यों की तलाश में प्रवृत्त करता है । समाजशास्त्री आज एक  मत से यह  सिद्धान्त  स्वीकार कर चुके हैं कि सामूहिक जीवन में  ही मानव विकास की अजेय विजय यात्रा का सूत्र -पात किया था और आज भी मानव समाज की सामाजिक भावना ही हमें विकास के अगले दौर में पहुँचा सकेगी । व्यक्ति परिवार का भाग होता है ,परिवार ग्राम का ,ग्राम कबीले का ,कबीला क्षेत्र का ,क्षेत्र छोटे या बड़े राष्ट्र का और राष्ट्र छोटे या बड़े भूखण्ड का तथा भूखण्डों की ईकाइयां अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का । चेतना की ये सामूहिक ऊँचाइयाँ मानव विकास के सोपानों को चिन्हित करती हैं  हममें से अभी भी कुछ कबीले ,कुछ क्षेत्र या कुछ भूखण्ड अन्तर्राष्ट्रीय मानव समुदाय का एक सहज अंग नहीं बन सके हैं क्योकि उनका चिन्तन विकास की पूरी गति नहीं प्राप्त कर सका है । सच तो यह है  कि जो व्यक्ति जितना बड़ा होता है उसका चिन्तन भी उतना ही बड़ा होता है। इस  बड़े चिंतन के लिये आधुनिक या अत्याधुनिक होना ही आवश्यक नहीं है।  ऐसा चिन्तन कम से कम भारतीय संस्कृति  के प्रभात में भी   देखा जा सकता है । अंग्रेजी भाषा के प्रसिद्ध कवि John Donne नें सत्रहवीं शताब्दी में ही कहा था ' यह मत   पूछनें जाओ कि चर्च का घण्टा बजकर किसकी मृत्यु की सूचना दे रहा है ,वह तुम्हारी अपनीं मृत्यु की सूचना है क्योंकि तुम मानव जाति का एक अविभाज्य अंग हो । 'आज विश्व का लगभग सभी शिक्षित जन समुदाय इस  सत्य को स्वीकार कर चुका है । भौगोलिक ,क्षेत्रीय और राष्ट्रीय सीमायें मात्र प्रबन्धन पटुता  के लिये बनायी गयी हैं । उन्हें मानव जाति को विभाजित करनें के लिये इस्तेमाल नहीं करना चाहिये ।
                           प्रधान मन्त्री मैकमिलन नें साउथ अफ्रीका के अपनें दौरे के दरमियान जब यह बात कही थी कि रंग भेद एकाध दशक में इतिहास के कूड़े -कचरे में फेक देने वाली नीति के रूप में जाना जायेगा तब साउथ अफ्रीका के  श्वेत नेताओं नें उनकी तीखी आलोचना की थी । पर प्रधान मन्त्री मैकमिलन नें जिस दूर दृष्टि का परिचय दिया था वह आज इतिहास का अमर सत्य है । यदि कोई शिक्षित आधुनिक युवक चाहे वह किसी भी  देश का हो आज यह मानता है कि रंग भेद के कारण या जाति भेद के कारण वह जन्म से ही  अन्य व्यक्तियों से श्रेष्ठ है तो उसे एक मानसिक रोगी ही करार दिया जायेगा । विज्ञान ,कला ,साहित्य ,खेल ,शौर्य ,राजनीति ,अन्तरिक्ष अनुसन्धान ,और सत्य धर्म की खोज कोई भी तो ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमें हर रंग , हर जाति ,और हर नस्ल के श्रेष्ठ लोगों नें अपनी पहचान न बनायी हो । राजनीति के सत्ता गलियारों में आज उन विदेश मन्त्रियों को सच्चे राष्ट्रीय सेवकों के रूप में लिया जाता है जो अपनी  कुशल दूरगामी  दृष्टि के द्वारा विश्व जनमत को अपनीं ओर आकर्षित कर लेते हैं । सच तो यह है कि अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से जुड़े रहनें वाले प्रबुद्ध मनीषी प्रशासन को विशालता का एक नया आयाम देने  समर्थ होते हैं । भारत की मध्य युगीन सभ्यता में कुछ समय ऐसा था जब शारीरिक श्रम की महत्ता को पूरे गौरव के साथ स्वीकार नहीं किया गया । हिन्दी भाषा के कुछ शब्द जो कर्म वाचक संज्ञाओं या विशेषणों के रूप में प्रयोग होते थे अपना महत्व  खोकर हीन  भाव के प्रतीक  बन गये  भाषा के विचारकों को इन शब्दों को नयी प्रांजलता देकर फिर से सार्थक ऊंचाइयों पर पहुंचानें का प्रयास करना चाहिये  जवाहर लाल नेहरू  विश्वविद्यालय के शोधार्थियों नें कुछ आवश्यक काम किया है । 'माटी '  दिशा में किये जा रहे प्रयत्नों की तलाश में है और भाषा शास्त्रियों से सम्पर्क साधे  हुये है । सार्थक सामाजिक श्रम से जुड़े कुछ समुदाय स्वयं भी इस दिशा में प्रयत्न शील हैं । उनके प्रयत्नों को एक वैज्ञानिक आधार देनें की आवश्यकता है । गहरी सूझ -बूझ वाले 'माटी 'के पाठक इस बात से भलीभांति परिचित होंगें कि हम अपनें  लेखों और रचनाओं में विश्व के जानें -मानें विचारकों की बातें उद्धत करते रहते हैं । ऐसा इसलिए है कि हम यह बताना चाहते हैं कि अपनें सर्वोत्कर्ष रूप में प्रतिभा किसी देशकाल में न बंधकर सम्पूर्ण मानव जाति को सम्बोधित करती है । ;माटी 'कई बार अपनीं रचनाओं ऐसे शब्द समूहों को भी निखारती रहती है जो अर्थ संकुचन के कारण व्यापक स्तर पर प्रयोग नहीं किये जाते । ग्राम सभ्यता से जुड़े कई शब्द कल तक भले ही ऊँचे कद के योग्य न मानें गये हों पर आज तो उन्हें पूरे आदर के साथ स्वीकारना होगा । हलवाहा यदि हलधर होकर अपनें पौराणिक प्रसंगों के कारण गरिमा मण्डित हो जाता है या पापी यदि तन्तुवाय के रूप में सार्थक बनता है तो तो हमें इन शब्दों का संसकारीकरण करना होगा । यह मात्र सुझाव की एक दृष्टि है इस   दिशा में भाषा विदों द्वारा कई अधिक सार्थक प्रयोग किये जा सकते हैं । मुझे विश्वाश है कि उनका वैदूर्य हिन्दी भाषा के शब्द सँस्कारीकरण में एक महत्त्व पूर्ण भूमिका निभायेगा । 

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