Friday, 30 October 2015

"Well begun is half done ".............

                                                   ' Well begun half done' जब दृढ़ निश्चय के साथ चल पड़े तो देर सबेर मंजिल मिलेगी ही पर दृढ़ निश्चय को पूरी तरह से माप -तौल लेना प्रत्येक व्यक्ति के सामर्थ्य में नहीं होता । हम सब कई बार मिथ्या बड़प्पन का भ्रम पाले रहते हैं । अपनें भीतर ही छोटी -मोटी सफलता पा लेने के बाद हम अपनें को सराहते रहते हैं । स्वाभिमान शक्ति देता है पर मिथ्या अभिमान हमारी आन्तरिक शक्ति का अपब्यय है । हमें अपनें साधारण होने पर हीन भाव का शिकार नहीं बनना चाहिये । सच पूछो तो साधरण होकर ही असाधारण की ओर बढ़ा जा सकता है । अपनें जीवन के दैनिक सम्पर्क में हम भिन्न -भिन्न प्रकार के नर -नारियों के सम्पर्क में आते हैं । सच्ची सहजता एकान्त में ही होती है । थोड़ी बहुत सहजता परिवार में भी बनी रहती है । पर ज्यों ही हम बाहर के सम्पर्क में आते है सहज रहनें का केवल बहाना बन जाता है । हम असहज हो जाते हैं । अन्जाने ही न जाने कितनें मुखौटे हमें लगाने पड़ जाते है । महापुरुषों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वे हर स्थिति में सहज रहते हैं । उनके पास कई चेहरे नहीं होते वे स्थिरता की आत्म सयंम से सजायी हुयी मनोभूमि में खड़े रहते हैं । महान होना एक दुर्लभ उपलब्धि है । महानता का चोंगा पहन लेना बहुत कठिन नहीं है पर चोंगा तो चोंगा है कभी न कभी तो उतर ही  जाता है । इसलिये उचित यही है कि हम जो हैं ,जो हमारी स्वाभाविक सामर्थ्य है उसे हम सच्चे मन से स्वीकार करें यदि हम सामाजिक सेवा की बात करें तो अपना निजी स्वार्थ उसमें शामिल न करें । प्रशंसा की अभिलाषा भी एक निजी स्वार्थ ही है । अपना दुख तो सभी झेलते हैं पर दूसरे के दुख का हिस्सेदार होना ही बड़ा होना है । सन्त हृदय की बात करते हुये गोस्वामी जी लिखते है -"सन्त हृदय नवनीत समाना ,कहा कविन पर कहबन जाना
                                           निज परिताप द्रवय नवनीता ,पर दुःख द्रवय सन्त सुपुनीता । "
                           सामान्य लोगों का ख्याल है कि सन्त होना सरल है पर नेता होना कठिन । शायद वे ऐसा इसलिये सोचते हैं कि सन्त होनें के लिये व्यक्ति को अपनें मन पर अधिकार करना होता है जबकि नेता होनें के लिये उसे दूसरों को भ्रम जाल में फँसाना होता है । सामान्य व्यक्ति की यह सोच ठीक ही है क्योंकि सीधे -साधे पन में   वह समझता है कि अपनें मन पर अधिकार पाना तो अपनी एक निजी बात है पर दूसरों के मन पर भ्रामक जाल फैलाना एक चमत्कारी काम  है । पर है ठीक इसके उल्टा सुहावना झूठ बोलना कोई बहुत बड़ी कला नहीं है इसके लिये केवल एक बात की आवश्यकता है आप इन्सान के चोले में गिरगिट बन जाइये , हर मौसम में रंग बदलिये ,हर पृष्ठभूमि में छिपकर अदृश्य रूप से अपना आहार तलाशिये  पर अपनें मन पर अधिकार करना योग की सबसे विरलतम उपलब्धि है । यह चरम  उपलब्धि तो संसार के बहुत थोड़े से महापुरुषों के भाग्य में लिखी होती है ।
                                   अब इन दोनों परिस्थितयों के बीच एक और परिस्थिति है समाज में रहकर हम गुहाओं ,कन्दराओं या वन प्रान्तरों में रहने वाले तपस्वियों की जीवन पद्धत्ति का अनुसरण नहीं कर सकते । जीवन चलानें के लिये कुछ उद्योग करना होता है ,कुछ सामाजिक गांठ -जोड़ ,कुछ थोड़ा सा मिला -जुला झूठ -सच । यह कहना कि हमनें जीवन भर गलती ही नहीं की है जीवन की सच्चायी  इन्कार करना है  मानव शरीर पाया है तो सामजिक जीवन जीने और समाज के स्वीकृत मापदण्डों पर खरा उतरने के लिये कुछ ऐसा भी करना पड़ जाता है जो हमें अपनें भीतर अच्छा नहीं लगता। कई   बार कुछ अरुचिकर भी करना पड़ता है ,कई बार हम किसी से मिलना  नहीं चाहते फिर भी मिलना पड़ता है ,कई बार हम किसी का स्वागत नहीं  करना  चाहते फिर भी स्वागत करना पड़ता है। कई बार गल्ती दूसरे की होती है पर भूल हमें स्वीकार करनी पड़ती है पर जीवन व्यापार में यह सब करके भी जब तक हमें अपनें भीतर ग्लानि न उठने लगे अपनें को छोटा नहीं समझना चाहिये हाँ ऐसी कोई भी बात या व्यवहार या अनुचित आचरण जो आपके मन में स्वयं के प्रति तिरष्कार पैदा कर दे उसे सर्वथा त्याग देना होगा । गृहस्थ होकर भी सन्तों के रास्ते पर चलनें का यही एक सीधा ,सरल और सपाट मार्ग है । मंजीर बजाने और मशीनी ढंग से होठ हिलाने से मन में उच्च वृत्तियों का संचार हो जायेगा ऐसा सोचना बेमानी है । मैं जानता हूँ कि 'माटी 'के पाठक भारत के उस कोटि -कोटि जन समुदाय का भाग हैं जो अपनी ईमानदारी की वृत्ति से अपने शारीरिक या मानसिक परिश्रम से जीवन यापन के साधन अर्जित कर उर्ध्वगामी विचारों की वायु में सांस लेना चाहते हैं । गलीज का कोई भी स्पर्श उन्हें ग्लानि से भर देता है । वे महामानव बनने  का स्वप्न नहीं पाले हुये हैं पर वे मानव होकर भ्रष्ट होने का अपावन धब्बा भी अपनें दामन से दूर रखना चाहते हैं । ऊपर कही हुयी छोटी -मोटी सीखें और अनुभवों की अभिव्यक्तियाँ हमारे ऐसे सदाशयी पाठकों के विचारार्थ ही प्रस्तुत की गयी हैं । 'माटी 'अपनें पन्नों में यह दावा करे कि उसमें पैगंम्बरी सन्देश है या उसमें युग निर्माण की क्षमता है ऐसा करना उसे बड़बोलापन लगता है । 'माटी 'का विस्तार अपार है ,धरती विपुला है ,जीवन संकुला है ,'माटी 'परिवार तो अपनीं छोटी -मोटी  खुर्पियों से खर -पतवार की निरायी करनें में लगा है शायद इस खर -पतवार के बीच कोई ऐसा बीज छिपा हो जिससे एक जीवनदायी वृक्षावली का प्रारम्भ  हो जाय हमारे प्रयत्नों की असफलता हमें कभी भी इतना हतोत्साहित नहीं करेगी कि हम प्रयत्न करना छोड़ दें पर जो भी आंशिक सफलता मिलेगी उसका श्रेय 'माटी 'के पाठकों को ही जायेगा मेरा व्यक्तिगत अहंकार उनके योगदान की महत्ता की स्वीकृति के राह में कभी बाधा बनकर नहीं खड़ा होगा । 

No comments:

Post a Comment