मैं अपने को साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कुछ कहने का अधिकारी नहीं मानता । शिक्षा की दृष्टि से मैं क़ानून से जुड़ा हूँ और कार्य की दृष्टि से मैं हिसाब -किताब रखने वालों की श्रेणी में हूँ पर न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि हिन्दी भाषा -भाषी क्षेत्र के प्रत्येक चिन्तन शील और शिक्षित नर -नारी को इस दिशा में सोचने का प्रयास करना चाहिये कि अपनी मातृ भाषा हिन्दी में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिभायें उभर कर क्यों नहीं आ रही हैं ? साहित्य के क्षेत्र में तो कुछ समर्थ रचनाकार हैं भी पर तकनीक ,विज्ञान ,क़ानून ,व्यापार प्रबन्धन ,खगोल अन्वेषण ,भूगर्भीय ज्ञान ,समुद्रकीय ,सूचना प्रौद्योगकीय ,पर्यटन ,जैवकीय आदि आदि के क्षेत्र में तो एकाध स्तरीय अनुवाद भले ही मिल जाय पर श्रेष्ठ मौलिक तो देखने को ही नहीं मिलता । ललित साहित्य में भी हमारे जीवन मूल्य अधिकतर रूढ़ हो गयी मान्यताओं को व्यक्त करते हैं । उनमें बदलती वैश्विक संस्कृति की झलक पूरी तरह से नहीं दिखायी पड़ रही है । हमें ऐसा कुछ करना होगा जिससे हम हिन्दी भाषा -भाषी बदलते हुये युग की दौड़ में पिछड़ न जायेँ । आप सब जानते ही हैं कि कुछ हिन्दी भाषा -भाषी राज्यों के पिछड़ेपन के लिये अंग्रेजी के बीमारू शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है । एकाध राज्य इस शब्द के दायरे से निकलने वाले हैं पर उत्तर -प्रदेश अभी तक ऊपर उठने की ओर प्रयत्नशील नहीं दिखायी देता। अपनी इस बढ़ती उमर में मेरा मन कहीं कुछ ऐसा करने के लिये बेचैन रहता है जिससे हमें अपना जीवन कुछ सार्थक लगे । परिवार का भरण -पोषण और आजीविका का अर्जन
Wednesday, 10 December 2014
Main Apne ko...............
मैं अपने को साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कुछ कहने का अधिकारी नहीं मानता । शिक्षा की दृष्टि से मैं क़ानून से जुड़ा हूँ और कार्य की दृष्टि से मैं हिसाब -किताब रखने वालों की श्रेणी में हूँ पर न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि हिन्दी भाषा -भाषी क्षेत्र के प्रत्येक चिन्तन शील और शिक्षित नर -नारी को इस दिशा में सोचने का प्रयास करना चाहिये कि अपनी मातृ भाषा हिन्दी में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिभायें उभर कर क्यों नहीं आ रही हैं ? साहित्य के क्षेत्र में तो कुछ समर्थ रचनाकार हैं भी पर तकनीक ,विज्ञान ,क़ानून ,व्यापार प्रबन्धन ,खगोल अन्वेषण ,भूगर्भीय ज्ञान ,समुद्रकीय ,सूचना प्रौद्योगकीय ,पर्यटन ,जैवकीय आदि आदि के क्षेत्र में तो एकाध स्तरीय अनुवाद भले ही मिल जाय पर श्रेष्ठ मौलिक तो देखने को ही नहीं मिलता । ललित साहित्य में भी हमारे जीवन मूल्य अधिकतर रूढ़ हो गयी मान्यताओं को व्यक्त करते हैं । उनमें बदलती वैश्विक संस्कृति की झलक पूरी तरह से नहीं दिखायी पड़ रही है । हमें ऐसा कुछ करना होगा जिससे हम हिन्दी भाषा -भाषी बदलते हुये युग की दौड़ में पिछड़ न जायेँ । आप सब जानते ही हैं कि कुछ हिन्दी भाषा -भाषी राज्यों के पिछड़ेपन के लिये अंग्रेजी के बीमारू शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है । एकाध राज्य इस शब्द के दायरे से निकलने वाले हैं पर उत्तर -प्रदेश अभी तक ऊपर उठने की ओर प्रयत्नशील नहीं दिखायी देता। अपनी इस बढ़ती उमर में मेरा मन कहीं कुछ ऐसा करने के लिये बेचैन रहता है जिससे हमें अपना जीवन कुछ सार्थक लगे । परिवार का भरण -पोषण और आजीविका का अर्जन
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