Thursday, 11 December 2014

गतान्क से आगे। .............

                                            तो गृहस्थ जीवन में करना ही होता है पर इसके अतिरिक्त संस्कृति के उच्चतर मूल्यों को सहेज कर उन्हें दूसरों तक पहुंचाने का काम भी हमें करना होगा। मैं तो साहित्य और संस्कृति के एक पाठक होने के नाते उसकी सुरक्षा में एक सिपाही बन कर काम करना चाहता हूँ। आकाश कुसुम तोड़ लेने की कल्पना करना तो मेरे लिये अपने को भुलावे में डालना होगा। इस छलना से अपने को दूर रखकर मैं तो हिन्दी भाषा -भाषी प्रदेश की "माटी " में ही रत्नों की तलाश में लगा हूँ । मासिक पत्रिका 'माटी ' का प्रकाशन  इसी दिशा में एक प्रारम्भिक पहल है । आपका सहयोग और आशीर्वाद उसे उभरते नवीन भारत की चेतना का प्रवल वाहक बना सके यही मेरी कामना है ।
                                              मेरा प्रयास है कि भारत के हिन्दी भाषा -भाषी प्रदेश के शब्द धनी इस पत्रिका के साथ जुड़ जायें। साहित्य शब्द से आज मानव ज्ञान की हर शाखा का अभिप्रेत होता है। ललित साहित्य का अपना स्थान है तो विज्ञान ,तकनीक और नाभिकीय साहित्य का अपना अलग स्थान है। 'माटी ' ज्ञान प्रसार की चौमुखी दिशाओं में अपनी पहुँच बढ़ाने का प्रयत्न करेगी। हम आस -पास के निष्कलंक ,बेदाग़ कर्मयोगियों को 'माटी ' के माध्यम से जन सामन्य के सम्पर्क में लायेंगें ताकि आदर्श स्थापना के लिये प्राणवान ऊर्जा मिल सके । आप तो जानते ही हैं कि लेखकों ,शब्द शिल्पियों ,रचनाकारों और भाषा विद्वानों के पास विशेषत :हिन्दी भाषा -भाषी साहित्यकारों के पास आर्थिक सम्पन्नत : का अभाव है। इस अभाव को हमें अपने मनोबल और सामूहिक प्रयत्नों से पूरा कर लेन का विश्वाश पैदा करना है। अपना अपना अभिमान छोड़कर, बड़े और छोटे होने का दंम्भ त्याग कर हर हिन्दी भाषा -भाषी प्रेमी को एक जुट होकर आगे आना होगा । अज्ञेय जी की काब्य पँक्ति " यह दीप  अकेला स्नेह भरा मदमाता ,इसको भी पँक्ति को दे दो "इस दिशा में एक बहुत सार्थक अभिव्यक्ति है । आइये हम सब निः स्वार्थ भाव से राष्ट्र भाषा की सेवा में अपने को समर्पित करनें का संकल्प करें ।

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