Friday, 19 December 2014

संम्भाषण शब्द को ब्रम्ह के रूप में निरूपित किया गया है और अक्षर का अर्थ ही होता है क्षरण से मुक्त नियन्ता। एक युग था जब शब्दों को लिपिबद्ध करना संम्भव नहीं था क्योंकि उस समय सम्भवत कोई लिपि ही नहीं थी। ध्वनियों से शब्द कैसे बने ?और शब्दों के साथ सार्थकता कैसे जुडी ?तथा फिर नियमन ,जकरण और ब्याकरण की विधायें कैसे विकसित हुयीं इसका लाखों वर्ष पहले का अपना एक अलग आश्चर्य लोक है। भाषा विज्ञान के अध्येता और मनीषी अतीत के गर्भ में छिपे भाषा के जन्म और विकास के रहस्यों को खोलने में लगे हैं। अब इतना सुनिश्चित हो गया है कि ध्वनि और लय जिसे हम आज सँगीत के एक विभेद से जानते हैं भाषा से पहले अस्तित्व में आ गयी थी । यही कारण है कि सँगीत मानव जाति को कहीं बहुत अधिक गहरे जा कर झकझोरता है। बिना अर्थ की सार्थकता के भी वह अन्तर्मन की गहराइयों को तरंगायित कर देता है । पर बात चल रही थी भाषा की । आज छपा हुआ शब्द सम्भवत : इतना महत्वपूर्ण नहीं रह गया है जितना बोला हुआ शब्द जिसे हम अंग्रेज़ी में Conversation कहते हैं वह एक कला के रूप में विकसित हो रहा है । उद्योग और व्यापार , विपणन और प्रबन्धन सभी कुछ Conversation की कुशलता पर आधारित है। अपने -अपने देश की भौगोलिक सीमाओं में जो भी भाषायें बोली जाती हैं उन सब में वही व्यक्ति संपन्न होता है जिसे बातचीत या संम्भाषण की कला आती है ।दरअसल इसे कला न कहकर हुनर कहना चाहिये। समाजशास्त्र विशारदों का आज यह सर्वसम्मत मत है कि उचित संम्भाषण की कला हमें लोगों के पास पहुँचाती है । और एक अटूट भाई चारे का संम्बन्ध स्थापित करती है और तो औरभिन्न -भिन्न भाषा -भाषियों से भी सार्थक आंगिक संभाषण के द्वारा गहरा संम्पर्क सूत्र स्थापित किया जा सकता है। व्यापार और बाजार यह तो बातचीत से संचालित ही होते हैं पर एक और प्रकार की बातचीत भी होती है जिसे हम एक प्रकार की बुद्धि पर आधारित मानसिक क्रिया -कलाप के रूप में ले सकते हैं। जिस बात को बिहारी नें ' बतरस ' कहा है उसी से कुछ मिलती -जुलती धारणा है ब्रिटेन के राजनीतिक दार्शनिक माइकेल ओके शॉट की । उनका कहना है कि सामान्य बातचीत व्यापार और लेनदेन से अलग हटकर बिना तैय्यार की हुई स्वाभाविक मानसिक प्रक्रिया है जो शब्दों के माध्यम से व्यक्ति के समाज सम्बन्धी मूल्य बोधों को उजागर करती है। अँग्रेजी इतिहास में अठारहवीं शताब्दी में डा ० सैमुअल जानसन सारे लन्दन में अपनी बातचीत के लिये आदर्श के रूप में जाने जाते थे पर उनकी बातचीत में गहरा तीखापन और ऊँची गड़गड़ाहट से भरे शब्दों की भरमार है। अठाहरवीं सदी की चमत्कृत करने वाली भाषा इक्कीसवीं सदी के लिये शायद उपयोगी साबित न हो। अब बातचीत न केवल सरल होनी चाहिये बल्कि शब्दों के चयन में पारस्परिक आदर , सहनशीलता और विनम्रता का भाव होना चाहिये। बातचीत में थोड़ा -बहुत हास्य का पुट भी उसे और अधिक मधुर बना देता है । पर प्रयास यह होना चाहिये कि हास्य कटूक्ति और ब्यंग्य न बन जाय । मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि बातचीत के विषय , उसका फैलाव और उसकी गहरायी बातचीत करने वालोँ के सामाजिक दायरे और कार्य क्षेत्र की विभिन्नताओं पर निर्भर होता है । पर यह भी देखा गया है कि पुरुषो की बातचीत का दायरा स्त्रियों की बातचीत के दायरे से अलग किस्म का होता है । समाज वैज्ञानिक बातचीत की इस लिंगीय विषमता को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से जोड़कर इसकी अलग -अलग व्याख्यायें करते हैं। जो भी हो हमें देखने में आता है कि स्त्रियाँ अधिकतर गृहस्थी सम्बन्धी बातों की चर्चा में लगी रहती हैं जबकि पुरुषों की बातचीत का दायरा राजनीति , प्रशासन , और सामाजिक संरचना के आसपास घूमता रहता है। कई बार यह देखने में आता है कि बातचीत में बहुतअधिक कुशल व्यक्ति भी सभाओं के मँच पर अच्छे वक्ता साबित नहीं होते । इसी प्रकार कुछ वक्ता जो मंच पर सफल माने जा सकते हैं बातचीत के हुनर में असफल हो जाते हैं। दरअसल हमें किसी भी हुनर और ज्ञान की किसी भी शाखा को एक विशेष प्रकार की मानसिक अनुशासनता से जोड़कर देखना चाहिये । आवश्यक नहीं कि अँग्रेजी भाषा का विद्वान हिन्दी भाषा का भी अधिकारी वक्ता बन जाय । महान गणितज्ञ रामानुजन जिनकी प्रतिभा को कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के महानतम गणितज्ञ प्रो ० हार्डी नें अद्वितीय बताया था और जिन्हें उन्होंने 1 से 100 तक प्रतिभा माप के पैमाने पर पूरे 100 नम्बर पर रखा था वे नान साइंसेज सब्जेक्ट्स में अनुतीर्ण हो गये थे। क्यों और कैसे प्रतिभा एक मुखी , बहु मुखी और शत मुखी हो जाती है इस विषय में अभी तक मनोवैज्ञानिक कोई एक सुनिश्चित राय नहीं बना सके हैं हाँ यह माना जा रहा है कि बातचीत में या सामजिक या राजनैतिक सन्दर्भों में बोले गए छोटे -छोटे वाक्यों में उचित शब्दों का चयन मस्तिष्क के प्रारम्भिक लालन -पालन में पाये गये प्रेरणा बिन्दुओं से नियन्त्रित होता है। कई बार ऐसा होता है कि समाज या राजनीति में घटने वाली तत्कालीन उत्तेजक घटनाएँ अनजाने ही वक्ता के भाषा नियन्त्रण मैकेनिजम को ढीला कर देती हैं। ऐसी हालत में वक्ता अपनी बात कह देने के बाद ही यह महसूस कर पाता है कि उसे अपनी बात कहने के लिये कुछ दूसरे शब्दों का इस्तेमाल करना चाहिए था । यह शब्द उसके भाषा भण्डार में थे और इसकी सुनिश्चित योजना बद्धत्ता भी उसकी भाषा समझ में शामिल थी पर उत्तेजक परिस्थितियों नें सन्तुलित सम्भाषण को भड़काऊ चोला पहना दिया । ऐसा ही कुछ उन राजनैतिक नेताओं के साथ होता रहता है जिन्हें मीडिया या विरोधी नेता सँविधान विरोधी भाषणों के लिए दोषी ठहराते रहते हैं। आइये अब सम्भाषण की मनोवैज्ञानिक गहराइयों से ऊपर उठकर व्यक्ति विशिष्ट के सम्बन्ध में प्रयोग में लाये गये शब्दों के औचित्य और अनौचित्य पर विचार करें। हिन्दुस्तान में जाति और धर्म के नाम पर कितनी राजनैतिक टोलियाँ कितना हल्ला -गुल्ला मचाकर सड़क प्रदर्शन करती रहती हैं यह तो सभी जानते हैं पर अमरीका में भी अभी तक काली- गोरी मानसिकता का पूरा मिलन नहीं हो सका है यह बात सर्वविदित नहीं है। अफ्रीकन मूल के अश्वेत अमेरिकन प्रेसिडेन्ट बराक ओबामा के पद पर आसीन होने के बाद ऐसा माना जाता है कि अमरीका में श्वेत -अश्वेत के भेद को भुलाकर मानव समानता को सम्पूर्ण रूप में स्वीकार कर लिया है पर शायद ऐसा नहीं है। " माटी ' के प्रबुद्ध पाठक विश्वमीडिया में जोर -शोर से छपी इस घटना से तो परिचित ही होंगें। हारवर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर हेनरी गेट्स नें अपने Sambhaasan संम्भाषण

                                                        संम्भाषण
                
                              शब्द को ब्रम्ह के रूप में निरूपित किया गया है और अक्षर का अर्थ ही होता है क्षरण से मुक्त नियन्ता। एक युग था जब शब्दों को लिपिबद्ध करना संम्भव नहीं था क्योंकि उस समय सम्भवत  कोई लिपि ही नहीं थी। ध्वनियों से शब्द कैसे बने ?और शब्दों के साथ सार्थकता कैसे जुडी ?तथा फिर नियमन ,जकरण और  ब्याकरण की विधायें कैसे विकसित हुयीं इसका लाखों वर्ष पहले का अपना एक अलग आश्चर्य लोक है। भाषा विज्ञान के अध्येता और मनीषी अतीत के गर्भ में छिपे भाषा के जन्म और विकास के रहस्यों को खोलने में लगे हैं। अब इतना सुनिश्चित हो गया है कि ध्वनि और लय जिसे हम आज सँगीत के एक विभेद से जानते  हैं भाषा से पहले अस्तित्व में आ गयी थी । यही कारण है कि सँगीत मानव जाति को कहीं बहुत अधिक गहरे जा कर झकझोरता है। बिना अर्थ की सार्थकता के भी वह अन्तर्मन की गहराइयों को तरंगायित कर देता है । पर बात चल रही थी भाषा की । आज छपा हुआ शब्द सम्भवत : इतना महत्वपूर्ण नहीं रह गया है जितना बोला हुआ शब्द जिसे हम अंग्रेज़ी में Conversation कहते हैं वह एक कला के रूप में विकसित हो रहा है । उद्योग और व्यापार , विपणन  और प्रबन्धन सभी कुछ Conversation की कुशलता पर आधारित है। अपने -अपने देश की भौगोलिक सीमाओं में जो भी भाषायें बोली जाती हैं उन सब में वही व्यक्ति संपन्न होता है जिसे बातचीत या  संम्भाषण की कला आती है ।दरअसल इसे कला न कहकर हुनर कहना चाहिये। समाजशास्त्र विशारदों का आज यह सर्वसम्मत मत है कि उचित संम्भाषण की कला हमें लोगों के पास पहुँचाती है । और एक अटूट भाई चारे का संम्बन्ध स्थापित करती है और तो औरभिन्न -भिन्न भाषा -भाषियों से भी सार्थक आंगिक संभाषण के द्वारा गहरा संम्पर्क सूत्र स्थापित किया जा सकता है। व्यापार और बाजार यह तो बातचीत से संचालित ही होते हैं पर एक और प्रकार की बातचीत  भी होती है जिसे हम एक प्रकार की बुद्धि पर आधारित मानसिक क्रिया -कलाप के रूप में ले सकते हैं। जिस बात को बिहारी नें ' बतरस ' कहा है उसी से कुछ मिलती -जुलती धारणा है ब्रिटेन के राजनीतिक दार्शनिक माइकेल ओके शॉट की । उनका कहना है कि सामान्य बातचीत व्यापार और लेनदेन से अलग हटकर बिना तैय्यार की हुई स्वाभाविक मानसिक प्रक्रिया है जो शब्दों के माध्यम से व्यक्ति के समाज सम्बन्धी मूल्य बोधों को उजागर करती है। अँग्रेजी इतिहास में अठारहवीं शताब्दी में डा ० सैमुअल जानसन सारे लन्दन में अपनी बातचीत के लिये आदर्श के रूप में जाने जाते थे पर उनकी बातचीत में गहरा  तीखापन और ऊँची गड़गड़ाहट से भरे शब्दों की भरमार है। अठाहरवीं सदी की  चमत्कृत करने वाली भाषा इक्कीसवीं सदी के लिये शायद उपयोगी साबित न हो। अब बातचीत न केवल सरल होनी चाहिये बल्कि शब्दों के चयन में पारस्परिक आदर , सहनशीलता और विनम्रता का भाव होना चाहिये। बातचीत में थोड़ा -बहुत हास्य का पुट भी उसे और अधिक मधुर बना देता है । पर प्रयास यह होना चाहिये कि हास्य कटूक्ति और ब्यंग्य न बन जाय । मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि बातचीत के विषय , उसका फैलाव और उसकी गहरायी बातचीत करने वालोँ के सामाजिक दायरे और कार्य क्षेत्र की विभिन्नताओं पर निर्भर होता  है । पर यह भी देखा गया है कि पुरुषो की बातचीत का दायरा स्त्रियों की बातचीत के दायरे से अलग किस्म का होता है । समाज वैज्ञानिक बातचीत की इस लिंगीय विषमता को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से जोड़कर इसकी अलग -अलग व्याख्यायें करते हैं। जो भी हो हमें देखने में आता है कि स्त्रियाँ अधिकतर गृहस्थी सम्बन्धी बातों की चर्चा में लगी रहती हैं जबकि पुरुषों की बातचीत का दायरा राजनीति , प्रशासन , और सामाजिक संरचना के आसपास घूमता रहता है। कई बार यह देखने में आता है कि बातचीत में बहुतअधिक कुशल व्यक्ति भी सभाओं के मँच पर अच्छे वक्ता साबित नहीं होते । इसी प्रकार कुछ वक्ता जो मंच पर सफल माने जा सकते हैं बातचीत के हुनर में असफल हो जाते हैं। दरअसल हमें किसी भी हुनर और  ज्ञान की किसी भी शाखा को एक विशेष प्रकार की मानसिक अनुशासनता  से जोड़कर देखना चाहिये । आवश्यक नहीं कि अँग्रेजी भाषा का विद्वान हिन्दी भाषा का भी अधिकारी वक्ता बन जाय । महान गणितज्ञ रामानुजन जिनकी प्रतिभा को कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के महानतम गणितज्ञ प्रो ० हार्डी नें अद्वितीय बताया था और जिन्हें उन्होंने 1 से 100 तक प्रतिभा माप के पैमाने पर पूरे 100  नम्बर पर रखा था वे नान साइंसेज सब्जेक्ट्स में अनुतीर्ण हो गये थे। क्यों और कैसे प्रतिभा एक मुखी , बहु मुखी और शत मुखी हो जाती है इस विषय में अभी तक मनोवैज्ञानिक कोई एक सुनिश्चित राय नहीं बना सके हैं हाँ यह माना जा रहा है कि बातचीत में या सामजिक या राजनैतिक सन्दर्भों में बोले गए छोटे -छोटे वाक्यों में उचित शब्दों का चयन मस्तिष्क के प्रारम्भिक लालन -पालन में पाये गये प्रेरणा बिन्दुओं से नियन्त्रित होता है। कई बार ऐसा होता है कि समाज या राजनीति में घटने वाली तत्कालीन उत्तेजक घटनाएँ अनजाने ही वक्ता के भाषा नियन्त्रण मैकेनिजम को ढीला कर देती हैं। ऐसी हालत में वक्ता अपनी बात कह देने के बाद ही यह महसूस कर पाता है कि उसे अपनी बात कहने के लिये कुछ दूसरे शब्दों का इस्तेमाल करना चाहिए था । यह शब्द उसके भाषा भण्डार में थे और इसकी सुनिश्चित योजना बद्धत्ता भी उसकी भाषा समझ में शामिल थी पर उत्तेजक परिस्थितियों नें सन्तुलित सम्भाषण को भड़काऊ चोला पहना दिया । ऐसा ही कुछ उन राजनैतिक नेताओं के साथ होता रहता है जिन्हें मीडिया या विरोधी नेता सँविधान विरोधी भाषणों के लिए दोषी ठहराते रहते हैं। आइये अब सम्भाषण की मनोवैज्ञानिक गहराइयों से ऊपर उठकर व्यक्ति विशिष्ट के सम्बन्ध में प्रयोग में लाये गये शब्दों के औचित्य और अनौचित्य पर विचार करें। हिन्दुस्तान में जाति और धर्म के नाम पर कितनी राजनैतिक टोलियाँ कितना हल्ला -गुल्ला मचाकर सड़क प्रदर्शन करती रहती हैं यह तो सभी जानते हैं पर अमरीका में भी अभी तक काली- गोरी मानसिकता का पूरा मिलन नहीं हो सका है यह बात सर्वविदित नहीं है। अफ्रीकन मूल के अश्वेत अमेरिकन प्रेसिडेन्ट बराक ओबामा के पद पर आसीन होने के बाद ऐसा माना जाता है कि अमरीका में श्वेत -अश्वेत के भेद को भुलाकर मानव समानता को सम्पूर्ण रूप में स्वीकार कर लिया है पर शायद ऐसा नहीं है। " माटी  ' के प्रबुद्ध पाठक विश्वमीडिया में जोर -शोर से छपी इस घटना से तो परिचित ही होंगें। हारवर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर हेनरी गेट्स नें अपने घर पर पहुँच कर यह पाया कि उनकी ताली ठीक तरीके से दरवाजे को खोल नहीं पा रही है। उन्होंने दरवाजे पर लगी  हुई कुण्डी (Door Knob)से छेड़ -छाड़ करना शुरू कर दिया। किसी पड़ोसी नें यह देखकर 911  न ० पर फोन कर दिया । पड़ोसी नें समझा कि शायद कोई काले रंग का अफ्रीकन अमेरिकन दरवाजा तोड़कर अन्दर घुसकर चोरी करना चाहता है। 911 न० पर फोन से खबर पाते ही उस क्षेत्र के पुलिस सार्जेन्ट जेम्स क्राउले वहाँ पहुँच गये कहना न होगा कि जेम्स क्राउले गोर अमेरिकन हैं उन्होंने प्रोफ़ेसर गेट्स से Identity Card माँगा। प्रोफेसर गेट्स जो एक जाने -माने अफ्रीकन अमेरिकन विद्वान हैं और जिन्हें राष्ट्रपति बराक ओबामा भी जानते हैं सार्जेंट के इस व्यवहार को बदत्तमीजी समझ बैठे। हाँलाकि क़ानून के मुताबिक़ सार्जेंट क्राउले को पहचान पत्र माँगनेँ का हक़ था। प्रोफ़ेसर गेट्स नें हारवर्ड यूनिवर्सिटी से मिला आइडेन्टिटी कार्ड सार्जेंट को दिखाया पर उस कार्ड पर प्रोफ़ेसर गेट्स का प्रमाणित फोटो नहीं लगा हुआ था। सार्जेन्ट नें कहा शायद यह आइडेंटिटी कार्ड भी झूठा है। प्रोफ़ेसर गेट्स और नाराज हो गये और बात ही बात में उन्होंने गोर सार्जेन्ट को बहुत उल्टी -सीधी सूना डालीं । अब अमरीका का यह क़ानून है कि अगर आप किसी पुलिस सार्जेन्ट से झगड़ा करने लगे तो आपको हथकड़ी पहनायी जा सकती है। प्रोफ़ेसर गेट्स के साथ भी  ऐसा ही हुआ यद्यपि मामला तुरन्त ही रफा -दफा हो गया पर चूँकि सार्जेन्ट गोरा अमेरिकन था और प्रोफ़ेसर गेट्स काले अमेरिकन थे इसलिए न केवल अमेरिकन मीडिया बल्कि बल्कि विश्व मीडिया नें भी इस घटना को नये -नये अर्थों में पेश किया था । जब बराक ओबामा को इस घटना का पता लगा तो उन्होंने कहा , " The Police had acted stupidly." पर शीघ्र ही उन्हें लगा कि शायद उन्होंने उचित शब्दों का प्रयोग नहीं किया है। आखिरकार सार्जेन्ट क्राउले नें कुछ भी तो गैर कानूनी नहीं किया था। पर प्रोफ़ेसर हेनरी गेट्स भी तो गलत नहीं थे अपने ही घर के दरवाजे पर उन्हें एक उठाईगीर समझ कर एक गोरा सार्जेंट बेइज्जत करे तो वे अपना क्रोध कैसे रोक सकते थे। क्या हुआ यदि उनके पहचान पत्र  पर उनका फोटो नहीं था आखिर हारवर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा दिखाया गया पहचान पत्र तो अपने सही  रूप में तो उनके पास था ही। उन्हें लगा कि एक सार्जेन्ट। उन्हें लगा कि एक सार्जेन्ट जो हारवर्ड यूनिवर्सिटी की अकेडमिक ऊँचाइयों का अन्दाजा तक नहीँ लगा सकता एक मौक़ा पाकर उन्हें बेइज्जत कर रहा है पर क़ानून के सीमित दायरे में तो सार्जेन्ट क्राउले भी तो ठीक ही था। जब तक पहचान पक्की न हो जाय आतंकवाद से शंकित अमेरिका में शक बना ही रहता है। जब मीडिया नें यह कहकर बात उछालनी शुरू की कि सार्जेन्ट क्राउले उन अमेरिकन्स को जो गोर नहीं हैं उन्हें दुर्ब्योहार का शिकार बनाते हैं तो सार्जेन्ट क्राउले नें अपने क्षेत्र के लैटिन अमेरिकन और अश्वेत पुलिस मैनों के साथ सड़कों पर परेड कर यह साबित किया कि वे गोर -काले में कोई भेद नहीं करते तब प्रेसीडेंट ओबामा को लगा कि शायद पुलिस पर दोष लगाकर उन्होंने उचित नहीं किया। Stupidly की जगह उन्हें किसी दूसरे शब्द का प्रयोग करना चाहिए था । अगर वे इस शब्द की जगह यह कह देते " Acted in Hast "यानि जल्दबाजी की तो बात इतनी न बिगड़ती। अब क्या किया जाय गोरे -काले के  भेदभाव  की चर्चा अमरीका में उठने लगी।  कट्टर खोपड़ियां खेमे बन्दी में लग गयीं । विरोधी पार्टी मौक़ा तलाशती ही रहती है। पर बराक ओबामा तो बराक ओबामा ही  हैं उन्होंने तुरन्त ही भड़कती आग को शमन करने की तरकीब सोच ली उन्होंने स्वीकार किया कि उन्होंने उचित शब्द इस्तेमाल नहीं किये और जो कहना चाहते थे ठीक से नहीं कह पाये इसके साथ ही उन्होंने गेट्स और क्राउले दोनों को व्हाइट हाउस में वियर की एक ग्लास पीने के लिये आमन्त्रित किया। बराक ओबामा के साथ वाइस प्रेसिडेन्ट  Jo Vidon थे जो गोर अमेरिकन भी हैं गोरे सार्जेन्ट क्राउले और गोर वाइस प्रेसीडेन्ट Jo  Vidon तथा अश्वेत बराक ओबामा और प्रोफ़ेसर गेट्स सब बियर की एक -एक ग्लास पर मिल बैठे न तो गेट्स नें माफी माँगी न सार्जेन्ट क्राउले नें। बराक ओबामा नें कहा कि दो अच्छे इन्सान एक गलतफहमी के दायरे में फंस गये सच पूँछो तो उनमें कोई भी गलत नहीं है । मैं अपने को ही इस मिस अंडरस्टैण्डिंग के लिये जिम्मेदार समझता हूँ । आओ हम सब अमेरिकन अपने इस महान देश के प्रति नतमस्तक होकर समर्पित हों । चारो नें उठकर हाँथ मिलाये और सार्जेण्ट नें  भी अनुभव किया  कि व्हाइट हाउस में उसका अपना भी कोई प्रतिनिधि बैठा है ।
                       अब भारतीय सन्दर्भ में जाति और धर्म से सम्बन्धित घटनाओं पर एक नजर डालिये ।  यहाँ घेराबन्दी को और अधिक कडा बनाने की कोशिश की जाती  है ताकि कोई  मिलन का मार्ग निकल ही न सके। दलित -दलित बना रहे , पिछड़े- पिछड़े बने रहें ,मुस्लिम -मुस्लिम बना रहे , कट्टर सिख -कट्टर सिख बना रहे , कट्टर -हिन्दू -कट्टर हिन्दू बना रहे , उत्तर भारतीय -उत्तर भारतीय बना रहे ,और तमिल -तमिल बना रहे। हिन्दुस्तानी बन मिलजुल कर रहने की भावना को बढ़ावा ही नहीं दिया जाता। करुणा निधि जी आतँकवादी प्रभाकरन को तमिल होने के नाते हीरो बताते रहे और Baco  का तो कहना ही क्या है ? जरनैल सिंह भिंडरवाले को अब भी शहीद कहकर पूजने वाले कट्टर केशधारियों की कमी नहीं है । हिन्दू और सिख जो समान दार्शनिक मान्यताओं पर खड़े हैं खेमों में बाटे  जा रहे हैं। हिन्दुस्तान बटकर पाकिस्तान और हिन्दुस्तान में बदल गया । पाकिस्तान भी बटकर बंगलादेश देश और पाकिस्तान में बदल गयापर कट्टर मजहबियों की लामबन्दी अभी जारी है। धार्मिक उन्माद फैलाना मुल्लाओं का कमाऊ पेशा बन गया है और तो और किसी में हिम्मत हो तो मायावती को कुछ कहकर देखें। सत्य पर आधारित उनके किसी प्रशासनिक कदम की आलोचना करते ही उनके समर्थक अपने तेवर तीखे कर लेते हैं और सत्य भाषी को दलित विरोधी होने के चार्ज से आरोपित कर देते हैं पर किसी भी आलोचना में शब्दों का चयन तो ठीक होना ही चाहिये । U.P. कांग्रेस की प्रधान रीता बहुगुणा जो कहना चाहती थीं उस बात में काफी वजन है पर उन्होंने जिस ढंग से कहा वह उन जैसी सुशिक्षित नेत्री के लिये उचित नहीं था। शब्दों के चयन में हमें अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा का उदाहरण अपने सामने रखना चाहिये। तथ्यों को उजागर करिये पर शब्दों के चयन करने का हुनर अर्जित करने के बाद ही। विश्व हिन्दू परिषद और जेहादी संगठनों को अपने प्रचारक नेताओं को प्रशिक्षण कैम्पों में रखकर शब्दों के इस्तेमाल की कला और उनके संयोजन का हुनर सिखाया जाना चाहिये । कोई भी अतिवादी दृष्टिकोण मानवता का कल्याण नहीं कर सकता। बीच का मार्ग ही बुद्ध का मार्ग है। यही मार्ग ईसा से लेकर गान्धी और मार्टिन लूथर से होता हुआ  बराक ओबामा तक जा पहुँचा है । 'माटी ' इसी मार्ग को प्रशस्त करनें के मार्ग में जुटने की आकांक्षा पाल रही है । 



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