Monday, 18 August 2014

15 Agust 2014 Ko........


                                     15 अगस्त 2014 को भारत की स्वतंत्रता के 68 वर्ष पूरे होने जा रहे हैं । मनुष्य के जीवन के 68 वर्ष उसे बुढ़ापे की दहलीज में ढकेल  देते हैं । किसी राष्ट्र के लिये भी 68 वर्षों में समृद्धि और परिपक्वता की कुछ मंजिलें अवश्य तय कर लेनी चाहिये । हमें देखना होगा कि क्या भारतवर्ष नें प्रगति की दिशा में कुछ उल्लेखनीय हासिल किया है ? अगर हम दक्षिण एशिया की बात करें तो इतना तो मानना ही होगा कि हमारे देश में जनतन्त्र की जड़ें काफी गहरायी तक जा चुकी हैं। दक्षिण एशिया के हमारे पड़ोसी देशों में जनता द्वारा चुनी गयी सरकारें या तो हैं ही नहीं या अधिक टिकाऊ साबित नहीं हो सकी हैं । पाकिस्तान ,बांग्लादेश ,लंका ,वर्मा ,नेपाल सभी में आन्तरिक अव्यवस्था चल रही है और अधिकतर फ़ौजी शासकों द्वारा उनका संचालन हो रहा है। भारत में छोटे -मोटे संघर्षों को छोड़कर यह कहा जा सकता है कि केन्द्रीय सत्ता जनता की इच्छा पर चुन कर आती -जाती रहती है । यह दूसरी बात है कि जनतान्त्रिक प्रणाली की अपनी कुछ कमियाँ हैं । और भारत जैसे विविधता भरे देश में कई बार उचित फैसले भी विरोध के घेरे में फंस जाते हैं। पर इतना तो मानना ही पड़ेगा कि हिन्दुस्तान चुनाव की शुद्धता और निष्पक्षता के मामले में दुनिया की आँखों में प्रशंसा का पात्र बना है। यह हिन्दुस्तान की एक बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है। एशिया में , मध्य एशिया के देशों में भी अस्थिरता का बोलबाला है और ऐसा लगता है कि विश्व की बड़ी शक्तियां तेल प्राप्ति की होड़ में वहाँ अस्थिरता को बढ़ावा देती ही रहेंगीं। दक्षिण पूर्व एशिया में निश्चय ही काफी प्रगति हुयी है। जापान और चीन तो विश्व की आर्थिक व्यवस्था में शीर्ष स्थानों पर पहुँचने की तैयारी कर ही रहे हैं। भारत का मुकाबला दक्षिण पूर्व एशिया के देशों से किया जाना चाहिये । अपनी आबादी और क्षेत्र विस्तार के कारण भारत चीन का प्रतिद्वंदी बनकर उभर सकता है । यह प्रतिद्वंदिता वैमनष्य पर आधारित नहीं होगी बल्कि एक मित्रता पूर्ण मुकाबले के रूप में चलानी पड़ेगी । चीन और भारत आज सारे संसार में महान आर्थिक शक्तियों के रूप में उभर रहे हैं । भारत की आर्थिक सफलता इसलिये और भी अधिक प्रशंसनीय है क्योंकि यह जनतांत्रिक व्यवस्था के माध्यम से पायी गयी है । चीन में अब भी परिशोधित साम्यवाद चल रहा है जिसमें भय और दबाव भी एक शक्तिशाली घटक के रूप में काम करते हैं । पिछले 20 -25  वर्षों में भारत नें सूचना प्रद्योगकीय में अभूत पूर्व प्रगति की है । सच कहा जाय तो यह मानना ही पड़ेगा कि अमेरिका की सिलिकॉन वैली की सफलता बहुत कुछ भारत से गये हुये विशेषज्ञों के कारण संम्भव हो पायी है । भारत के पास दूसरी सबसे बड़ी ताकत है अंग्रेजी भाषा पर उसका असाधारण अधिकार । इस मामले में वह चीन से काफी आगे है। चीन पूरी कोशिश में लगा है कि वहाँ  नयी पीढ़ी अंग्रेजी में पूरी पकड़ हासिल कर ले पर अभी काफी लम्बे समय तक भारत इस दौड़ में आगे रहेगा। संसार व्यापी मुक्त व्यापार के चलते बी ० पी ० ओ ० के क्षेत्र में भारत के प्रतिभाशाली तरुण ,तरुणियों के लिये काफी सुनहरे अवसर उपलब्ध हैं । भारतीय मूल के लक्ष्मी मित्तल विश्व के सबसे बड़े उद्योगपतियों में हैं। अम्बानी बन्धु कई बार बिल गेट्स को पछाड़ दे चुके हैं और रतन टाटा की लखटकिया कार नें भी विश्व को चमत्कृत कर दिया है । निश्चय ही यह भारत की महान उपलब्धियां हैं और इस दृष्टि से आजादी के 68 वर्ष सार्थक माने जाने चाहिये ।

                                                     पर सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि "प्रगति " शब्द का सच्चा अर्थ क्या  है ? अगर प्रगति का  अर्थ मानव जीवन को खुशी से भरना है तो हमें यह देखना होगा कि जीवन की खुशी कहीं कुछ चाँदी और संगमरमर के महलों में बन्द तो नहीं होती जा रही हैं । एक अरब दस करोड़ के इस देश में एक या दो करोड़ उच्च वर्ग और तीस करोड़ मध्य वर्ग को छोड़ कर सत्तर या पचहत्तर करोड़ के आस -पास जीवन की जो  सुविधाएं हैं , उन्हें संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। सरकारी आँकड़ों के अनुसार लगभग तीस करोड़ लोग तो ऐसे हैं जिन्हें न तो सपुष्ट भोजन मिल पाता है न सर्दी से बचने के लिये उचित पहरावन और बिछावन ।इन बातों को  देखते हुए  माना जाना चाहिये कि पिछले 68 वर्षों के दौरान हमनें कुछ ऐसी गलतियां की हैं जिनसे प्रगति का लाभ उन   तबकों तक नहीं पहुँच सका है जहाँ इसको पहुँचना चाहिये था । गान्धी जी का आजाद भारत का स्वप्न आज भी एक स्वप्न ही है और उसे हम वास्तविकता में नहीं बदल सके हैं । महान राजीव गान्धी कहते थे कि केन्द्र सरकार द्वारा सामान्य जन के   लिये देने वाला एक रुपया केवल सत्रह पैसे बनकर ही सामान्य जनता तक पहुँच पाता है और अब तो तरुण सांसद राहुल गान्धी यहाँ तक कहनें लग गये हैं कि उत्तर -प्रदेश में एक रुपया केवल पाँच पैसा  बनकर ही सामान्य जन  तक पहुँच रहा है। भ्रष्टाचार के इस विशाल दानव  की भूख कितनी अपार  है कोई नहीं जानता । सुरसा के मुख  की तरह भ्रष्टाचार का क्षेत्र बढ़ता ही जा रहा है और देश का कोई नेतृत्व इसे सिकोड़नें में समर्थ होता नहीं दिखायी देता ।  इस दृष्टि से यदि  देखा जाय तो आजादी के 68 वर्ष असफलता की एक अटूट कड़ी  में दिखायी पड़ेंगें ।

                                  बड़े गर्व के साथ यह बात कही   जाती है कि भारत एक धर्म प्राण देश है । वेदों से लिए हुए कितनें ही संस्कृत वाक्य इस बात को बताने के लिए दोहराये जाते हैं। हर छोटे -बड़े शहरों में शनि देव , बालाजी ,  दुर्गादेवी  या भैरव नाथ  गुणगान करने वाली मण्डलियाँ हैं । मन्दिरों  और  गुरुद्वारों में माथा टेकने वालों का तांता ही लगा रहता है। मस्जिदों में भी अजानें गूँजती ही रहतीं हैं । पर इस सबके बावजूद आचरण के क्षेत्र में ढाक के वही तीन पात ।,सरकारी नौकरियाँ बिक रही हैं कुछ विभागों की नौकरियाँ बहुत बड़ी कीमत देकर खरीदी जाती हैं क्योंकि इन  विभागों में बेईमानी की कमाई धड़ल्ले से की जा सकती है । इन बातो का कहने का सिर्फ यही अर्थ है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद पनपने वाली नयी   पीढ़ियाँ प्रगति को केवल इन्द्रिय विलास के साधनो को जुटाने का पर्याय मानती है वे प्रगति  को आन्तरिक शुद्धता , आचरण की पवित्रता और जीवन मूल्यों की उच्चता से नहीं जोड़ पायीं हैं ।
                             ( क्रमश : )

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