प्रकृति -नृत्य
यह गुलाब का फूल
इसे जी भर खिलने दो
इसे पवन की मन्द चाल पर
नृत्य निरत रहकर हिलने दो
अर्ध -प्रस्फुटित ही तो है यह
रूप ज्वार में हर पखड़ी पलने दो
कुछ दिन का यह चमत्कार
हम सब की आँखें देख सकेंगीं
चित्रकार की चपल तूलिका
रूप भरी छवि लेख सकेगी
गदराये यौवन पर फिर -फिर
कविता की लहरें ठहरेंगी
सुन्दरियों के अधरों की
शरमायी गतियाँ ठहरेंगीं
किन्तु कहीं अनजाने में
है श्रष्टिकार का खेल चल रहा
रूप रचाने वाला ही
है चुपके -चुपके रूप हर रहा
अरे अभी कल ही तो इसको
डाली पर हिलते देखा था
अरे अभी कल ही तो इसके
यौवन को खिलते देखा था
हाय ! यही गति क्या
हम सब की होनी है ?
हर रूपसि को क्या
अधरों की छवि खोनी है
तो क्या हम सिद्धार्थ बनें
सच की तलाश में
तो क्या हम
हैं भ्रमित मात्र मिथ्या बिलास में
बीता युग
शायद यह मान रहा था
बीत गया कल
माया को ठग मान रहा था
पर अब तो है रूप सत्य की अमर कहानी
अब तो है बस अन्त सत्य
बेलाग जवानी
देता हूँ ललकार तुम्हें भारत के पूतो
धारा के विपरीत खड़े हो
सुभग सपूतो
अन्जाने इतिहास तुम्हें ही अब रचना है
अब पिनाक की प्रत्यन्चा तुमको कसना है
पीड़ा में ही नयी श्रष्टि का बीज उगेगा
गरल कंठ होकर ही अमृत राग जगेगा ।
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