Monday, 6 May 2013

Uth Jaag Musaafir .....

                 आजीविकों के अग्रहरि केश कम्बली नियतिवाद के प्रवलतम समर्थक थे। जो होना है वह तो होगा ही,उसका घटित होना अपरिहार्य है। नियति के लेख से बच  निकलने के लिये निरर्थक भाग -दौड़ केवल मानसिक यन्त्रणा को और अधिक असहनीय बनाने का लचर प्रयास मात्र ही है। नियतिवाद का यह चक्र काल के एक लम्बे दौर तक भारत के शौर्य को राहु बनकर ग्रसता रहा है। एक लम्बे अंतराल के बाद द्वैपायन व्यास ने गीता के माध्यम से कर्म की महत्ता को पुनर्रस्थपित किया और नियतिवाद को तर्क पूर्ण स्वीकृति देते हुये भी कर्म की महत्ता को सर्वोपरि मानने का दार्शनिक आधार प्रदान किया। सच पूंछो तो नियतिवाद का अर्थ बहुत से वाद विवाद के घेरों से निकल कर निष्क्रियता में बदल गया था । तभी तो शायद संत मलूकदास ने अपने बहु प्रचारित दोहे में इस इस दार्शनिक निष्क्रियता को कविता का अमरतत्व प्रदान किया।
              "अजगर करे न चाकरी ,पंक्षी करे न काम।
              दास मलूका कह गये , अबके डाटा राम ॥"
                     नियतिवाद और कर्मवाद के बीच भारत का जन मानस बहुत लम्बे काल तक उलझा रहा। सम्राट हर्ष वर्धन के स्वर्गारोहण के साथ ही भारत का गौरव शाली अतीत अपने पटाक्षेप की प्रस्तावना रचने लगा था। एक सहस्त्र वर्ष से अधिक पराजय झेलने वाला राष्ट्र कर्म की दार्शनिकता को कैसे जीवित रख सका यह सचमुच आश्चर्य की बात है। महान प्रतिभाओं नें नियति वाद और कर्म वाद दोनों की बीच सन्तुलन बनाने का काम किया। महाकवि सुधारक गोस्वामीजी की अमर पंक्तियों में दुविधा और सन्तुलन, विवशता और साहस ,असहायता और अपराजेयता ,सभी का यथा स्थान चित्रण हुआ है। वहाँ यदि नियतिवाद का सशक्त प्रतिपादन है --
                    "  हुइ हैहि वहि जो राम रचि राखा ,को करि तर्क बढावहि  साखा ।"
   तो कर्म की महत्ता पर भी जगमग करने वाला फोकस डाला गया है। -
                    " कर्म प्रधान विश्व्व करि राखा , जो जस करहि सो तस फल चाखा ।"
          
                   इतना ही नहीं तार्किक संगत बिठाने के लिये गोस्वामी जी सांसारिक माया जाल को भी नियति के सहायक कारणों में स्थापित करते दिखाई पड़ते हैं।
                    "तुलसी जस भवितव्यता तैसी मिले सहाय ।"
                      आप न आवै ताहि पर , ताहि तहाँ लै जाय ॥"              
                  भक्तों ,संतों ,और धर्म प्राण नागरिकों की ईश्वरीय लीला में अटूट आस्था में महात्मा गांधी नें अपनी अमिट छाप छोड़ी तभी तो महात्मा जी ने विहार में आये भूकम्प को मनुष्यों द्वारा किये गये अनाचार के प्रति प्रकृति का प्रकोप बताया। जवाहर लाल नेहरु सहित अनेक संशय वादी श्रेष्ठतम वौद्धिक प्रतिभाएं गान्धी जी से सहमत नहीं थीं पर गान्धी जी का ईश्वरीय न्याय में अटल विश्वास था और वे प्रकृति की सभी गतिविधियों में किसी नियामक के इंगित का आभाष पाते थे।
                         अब आज के तकनीकी परिद्रश्य में पृकृति पर मनुष्य का आंशिक अधिकार  हो चुका है पर भू स्खलन , जल प्लावन ,उल्कापात , अनावृष्टि ,और मृत्यु की अनिवार्यता उसे अब भी एक अत्यन्त दयनीय धरतीचर के रूप में पेश करती दिखायी पड़ती है। पर इतना तो मानना ही पड़ेगा कि अब सभ्यता का शैशव काल समाप्त हो गया है और तकनीकी विशेषता के दैत्याकार डग अंतरिक्ष की ओर चल पड़े हैं। अब लगभग सभी प्रबुद्ध राष्ट्र और आधुनिक चेतना से संपन्न शिक्षित नागरिक यह मानने लगे  हैं कि प्रकृति के प्रकोप के समक्ष विवश होकर भी मानव समूह अपने लिये अनकूल परिस्थितियाँ पैदा कर सकता है। दार्शनिक शब्दावली में कहना चाहें तो हम कह सकते है कि इक्कीसवीं शताब्दी में मानव जाति इस निष्कर्ष पर पहुच चुकी है कि उसके भीतर ईश्वरीय शक्ति उसे इस बात के लिये प्रेरित कर रही है कि वह प्रकृति का भोक्ता न बनकर नियामक बन जाय। कामायनी के मनु  की भांति वह प्रकृति विनाशकता में सनातनता की अमिट छाप छोड़ना चाहता है। कौन जानता है मानव जाति को शिवत्व की प्राप्ति कब होगी , कौन जानता है कि  मानव जाति का आन्तरिक्ष के एक छोटे से गृह धरित्री पर कितने काल तक निवास होगा। कौन जानता है कि आकाश गंगाओं के के असंख्य गृहों में जीवन का और कोई रहस्य पल रहा हो। पर इतना तो सुनिश्चित हो ही चुका है कि यदि वैश्विक चेतना से मानव जाति अनुप्राणित हो सके तो इस धरती को सुख ,वैभव और आदर्शों के उन सभी पूरकों से सम्पन्न किया जा सकता हैजिसकी कल्पना के लिये स्वर्ग या पैराडाइज़ जैसे शब्द गढ़े गये हैं। स्वप्नों को सत्य बनाने के लिये कर्म की कुदाल ही नये बीजों को आरोपित करने की भूमि तैय्यार करेगी। नियति के सहारे अपंग और निष्क्रिय होकर बैठ जाना आज के मानव का दर्शन नहीं है। शैशव का अज्ञान छट कर यौवन की तेजस्विता में बदल चुका है।हम सभी किसी अनन्त पथ के पथिक हैं। सोने से काम नहीं चलेगा। आइये प्रभात वीत की यह पंक्तियाँ फिर दोहरा लें।
                  "उठ जाग मुसाफिर भोर भयी ,नब रैन कहाँ जो सोवत है ।
                    जो सोवत है सो खोवत है , जो जागत है सो पावत है ॥"








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