Monday, 13 May 2013

कौन जाने ?

कौन जाने ?

तुम उभर कर शीर्ष पर आ गये
कह रहे हो
दाल ,घी ,चीनी ,मसाला
 खिसक कर नीचे गिरेंगे
 चून ,चावल ,तेल नुनिया
मुक्त होंगे गिद्ध पंजी
पकड़ से।
नीतियाँ आर्थिक तुम्हारी तोड़ देंगीं
कोटि पर कोटे
जहाँ कालुष लपेटे
पाप की संचित कमाई
पनपती है।
पर अभी कुछ वर्ष पहले
शीर्ष पर ही थे खड़े तुम
उस समय कैसी छरहरी
छवि तुम्हारी लग रही थी।
कुछ बरस के बाद
तुम कैसे वृकोदर बन गये ?
समझ में आती नहीं यह गहन गुत्थी।
आज बैठे शीर्ष पर जो
कल हमारे साथ ही
नीचे खड़े थे
ठीक जैसा कह रहे हो तुम
वही दोहरा रहे थे
हर गली ,कूचे ,सभा ,उद्यान  में 
उस समय उनका उदर
वक्ष से कुछ इंच
नीचे लग रहा था
आज पर वे ही वृकोदर हो गये हैं।
क्या करें हम सब
कमेरे कर्मचारी
कृषक ,कारीगर
सुबह अखवार के हाकर हजारों
बस हमें तो घास की ही भाँति
केवल रौंद जाने की
नियति ही मिल सकी है।
बस हँसी  के गुजरते कुछ  क्षण
हमें जन तन्त्र की यह व्यवस्था
देती रही है
और ऐसा लग रहा है अब
कि शायद मुस्कराने पर
मुसक्कों की नयी तरकीब
सोची जा रही है ।



No comments:

Post a Comment