कबीरी अबीर
रमिया का बापू छिद्दमी धीमर होली की पहली दिन की शाम को काफी चिन्तित हो उठा। चिन्ता का कोई ख़ास कारण न था पर उसने सोलहवें वर्ष में पैर रख रही रमिया को पड़ोस के हलवाई नथ्थ्न के मझले लड़के सुखविन्दर के साथ हँसते बोलते देख लिया था। यों कभी -कभी पड़ोसी होने के नाते रमिया और सुखविन्दर छोटी -मोटी बातें कर लिया करते थे पर उस शाम हंसी ठिठोली का जो नजारा छिद्दमी नें देखा उससे उसका मन शंका से भर गया। पर क्या किया जाय कोई ख़ास बात तो थी नहीं होली के एक दो दिन आगे पीछे हँसी ठिठोली का माहौल होता ही है। रंग ,गुलाल ,और अबीर लगा लेने की छूट भी हिन्दू समाज के एक बड़े वर्ग नें दे राखी है। त्यौहार के इस सन्दर्भ में रमिया और सुखविन्दर की हँसी ठिठौली को गलत अर्थों में लेना छिदम्मी को उचित नहीं लगा। पर न जाने क्यों छिद्दमी को लगा कि रमिया की हँसी और मुस्कान के कुछ नये अन्दाज हैं और उनसे कुछ नये अर्थ लगाये जा सकते हैं। उसने सोचा कि रमिया की माँ से बात करके सावधान रहने की कोई तजबीज बनानी पड़ेगी पर कुछ मिलने वालों के आ जाने के कारण यह बात उसके दिमाग से उतर गयी और इस बात चीत को सहज भाव से लेकर अपने काम काज लग गया । छिद्दमी के मन से तो यह बात उतर गयी पर उस हँसी ठिठौली नें रमिया और सुखविन्दर को सोच विचार की चक्कर दार भँवर में फँसा दिया। रमिया सुन्दर है और जवान है ,सुखविन्दर कमेरा है और तरुण है यह बात तो सभी जानते थे पर उभरती तरुणाई के तूफानी दौर में उभरती भावनाओं की उथल- पुथल का पहला अहसास रमिया और सुखविन्दर को बहुत सुखद महसूस हुआ। बातचीत की इतनी मिठास और होली के सुहावन मौसम की मादक मस्ती रमिया और सुखविंदर को चकरा गयी। अब क्या किया जाये रमिया के गालों पर गुलाल कैसे लग पाये और रमिया की पिचकारी प्यार की लाल छींटें सुखविन्दरके कपड़ों पर कैसे डाल पाये। मन के भीतर योजनायें बनने लग गयीं। पर सुखविन्दर का बाप नथ्थ्न हलवाई अपने खुंखार थोबड़े के लिये मशहूर था और छिद्दम्मी धीमर की लाठी न जाने कितनी बार अपना रंग दिखा चुकी थी। जाति गत विषमता मैत्री सम्बन्धों को आगे बढ़ाने में बाधक बन रही थी पर शरीर की लस लहरियाँ मनों पर लगाम नहीं कसनें दे रहीं थीं। इसी दौरान एक घटना घाट गयी ।
आनन्दे शुकुल की पड़िया जो अब बड़ी हो गयी थी कई दिनों से उछाह पर थी। होली के एक दिन पहले की शाम लड़के गली में रंग रंगोली खेलनें में लगे थे। किसी नें जाकर पड़िया के माथे पर अबीर मल दी। पड़िया उछाह पर तो थी ही होली की अबीर नें उसे और बेकाबू कर दिया। वह रस्सी तुडाकर भागी सो भागी। आनन्दे शुकुल बनियाइन ,कच्छा पहने पीछे भागे पर पड़िया भला कहाँ पकड़ में आती। गाँव के एक सिरे पर चिरन्जी अहीर का का घर था और उसके लम्बे चौड़े अहाते में कई गाय भैंसे बंधीं रहती थीं। उसके पास एक झोटा भी था जिसे गाँव के लड़कों नें एक मजाकिया नाम दिया था -'धाँसू ' अब पड़िया आगे और आनन्दे शुकुल पीछे। चिरन्जी के अहाते में घुसकर पड़िया अपने आप धाँसू के पास रुक गयी। खूंटे में बंधा धाँसू रस्सी के नियन्त्रण में इधर- उधर घूमने लगा और पड़िया के शरीर से निकलती कोई अजीब गंध उसे बेहाल करने लगी। वह दांत निकाल कर ऊपर की ओर देखता और मुंह से झाग के फेने निकालता। आनन्दे शुकुल हाँफते -हाँफते पड़िया के पास पहुचे और उसके गले में टूटी हुयी रस्सी पकड़ कर खींच कर घर की ओर ले जाने लगे। पड़िया जाना नहीं चाहती थी पर सींकिया शुकुल जी उसे खींचनें में लगे थे। इस हल चल में चिरन्जी भी निकल कर बाहर आ गया। उसने धाँसू की पीठ पर शाबाशी की थपकी लगायी। जैसे -तैसे सुकुल जी पड़िया को खींच कर ले चले। थपकी पाकर धाँसू को न जाने कहाँ से अतिरिक्त जोश आ गया। उसने ताकत लगायी और खूँटा उखड़ गया। वह गले में रस्सी और रस्सी में बंधे हुये खूँटे सहित पड़िया के पीछे सूंघा -सांघी करते हुये चल पड़ा । अभी धुधलका ही हुआ था। बच्चों को होली की पहली शाम को हुल्लड़ मचाने का एक निराला अवसर मिल गया। एकाध नें धांसूं के ऊपर रंग डाल कर अबीर फेंक दी। पंगू पासी का लड़का 'होली है भाई होली है ,धाँसू पड़िया जोड़ी है । कहकर नाचने ,थिरकने लगा। लड़कों की टोली उसके इस खेल में शामिल हो गयी । चिरन्जी नें दौड़कर खूंटा पकड़ कर धाँसू को लौटाने की कोशिश की पर धाँसू था जो पड़िया का साथ छोड़ना ही नहीं चाहता था । शाम की पूजा के बाद मन्दिर से लौटते पण्डित मुरारी लाल चतुर्वेदी नें यह द्रश्य देखा। वे गाँव के एक बुजुर्ग समझदार और पढ़े लिखे व्यक्ति के रूप में जानें जाते थे। उन्होंने आनन्दे शु कुल और चिरन्जी यादव को समझाया कि जबरदस्ती ठीक नहीं है । पशुओं को प्रकृति के नियमों का पालन करने दो। हाँ हम मनुष्यों के लिये धर्म -कर्म के जो नियम हैं उन्हें मानना ही पड़ता है नहीं तो आदमी और जानवर में अंतर ही क्या है। आनन्दे शुकुल और चिरंजी अहीर दोनों की समझ में यह बात आ गयी। मनुष्य होने के नाते वे अलग -अलग जाति में हैं पर उनके पशुओं की तो कोई अलग जाति नहीं है । कुछ देर की स्वतत्रंता पाकर पड़िया और धाँसू मानव सभ्यता द्वारा नियोजित होली मिलन का सहज ,सरल आनन्द पाने का अवसर पा गए ।
अगली शाम को गाँव के इण्टर कालेज में एक साहित्यिक गोष्ठी का आयोजन किया गया था। गोष्ठी में दसवीं ,ग्यारहवीं और बारह्वीं के विद्यार्थी श्रोता के रूप में उपस्थित थे। छिद्दमी धीमर की बेटी रमिया कक्षा दस में पढ़ती थी और नथ्थू हलवाई का बेटा सुखविन्दर ग्यारहवीं में था। दोनों श्रोता विद्यार्थियों के बीच पास -पास बैठे थे। इण्टर क्लास को हिन्दी पढ़ाने वाले डा . सूरज वर्मा और अंग्रेजी पढ़ाने वाले मथुरा शुक्ल तथा साथ में समाज शास्त्र के प्रवक्ता सीताराम सचदेवा गोष्ठी के विद्वान वक्ताओं में थे ।
जवाहर लाल यूनिवर्सिटी में हिन्दी उपन्यास में नारी मनोविज्ञान में शोध करने वाली कु .अर्चना जो मथुरा शुक्ला की भतीजी थी ,भी गोष्ठी में उपस्थित थीं। उपन्यासों की चर्चा करते- करते बात भगवती चरण वर्मा के बहु चर्चित उपन्यास चित्रलेखा पर आ पहुँची। अंग्रेजी प्राध्यापक मथुरा शुक्ल जी फ्रान्स के किसी उपन्यासकार से चित्रलेखा को प्रभावित बता रहे थे। उनका कहना था कि चरित्र चित्रण की द्रष्टि से चित्रलेखा को अधिक सफल नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसमें बीजगुप्त के चरित्र का उन्नयनीकरण किया गया है जबकि योगी कुमार गिरि को लेखक के पूर्व निर्धारित मूल्यों का खामियाजा भुगतना पड़ा है। इस बात को लेकर शोध छात्रा कु . अर्चना का अपना एक अलग नजरिया था। उन्होंनें यह मानने से इन्कार किया कि बीजगुप्त को अनावश्यक रूप से महिमा मंडित किया गया है\ उनका कहना था कि नर और नारी का पारस्परिक आकर्षण मिथुन सुख से हटकर भी अन्य अभिरुचियो और मानसिक समानान्ताओं पर टिकाऊ रूप से आधारित हो सकता है। बीजगुप्त में नर -नारी के इस नैसर्गिक आकर्षण को साख्य भाव से लेने की क्षमता है पर योगी कुमार गिरि का चिन्तन पक्षाघात से ग्रसित है। वह देह के आकर्षण से ऊपर उठकर नारी मनोविज्ञान की इन्द्र धनुषीय आभा छवियों से परिचित नहीं है। उसका जीवन दर्शन एकांगी है। उदाहरण के लिये उन्होंने पाण्डव पत्नी द्रोपदी और चक्रधारी श्री कृष्ण के सहज आकर्षण और सखाभाव का उल्लेख किया। श्री कृष्ण और कृष्णा का लगाव दो ज्योति पुंज चेतनाओं के अटूट सामीप्य से ही मापा जा सकता है ।
देह की लालसा उसमें कहीं नहीं है पर चिरन्तन सामीप्य का भाव उसमें निरन्तर उपस्थित है। कुमार गिरि चित्रलेखा से अपने सम्बन्ध को केवल पशु चेतना से ही नियन्त्रित करना चाहता है जबकि बीज गुप्त में नारी को भोगने का नहीं बल्कि बन्धन मुक्त करने का साहस है। मनुष्य का व्यवहार झोटा -झोटी की तरह पशु प्रवत्तियों से सन्चालित नहीं किया जा सकता।उसे निरन्तर मिथुन सुख से जोड़े रहना भी अपंग मनोवृत्ति का परिचायक है । पर सखा भाव में देह स्पर्श पशु वृत्ति से संचालित नहीं होता बल्कि उसमें वैचारिक ऊर्जा की प्राण वान शक्ति निहित होती है। भारतीय संस्कृति में होली का त्यौहार इन्ही प्रतीतात्मक अर्थों में लिया जाता रहा है । देवर -भाभी के पवित्र सम्बन्ध को और भी पवित्र करने वाला हल्का ,अनासक्त देह स्पर्श अबीर या गुलाल मंडन या रंग की बूंदाबांदी मानव सम्बन्धों को एक और अधिक ऊंचा स्तर प्रदान करती है । अब हमारे सामने बैठे यह विद्यार्थी जिनमें किशोर और किशोरियां हैं ,जो तरुणाई के द्वार की ओर बढ़ रहें हैं अगर अपने मित्रता सम्बन्ध को सदैव पशु वृत्ति से और मिथुन सुख से जोड़ कर देखते रहेंगे तो यहकभी भी सच्चे मित्र नहीं बन सकेंगे। जिस प्रकार भाई -बहिन का प्यार गंगा की तरह पवित्र होकर भी एक दूसरे के सामीप्य में भी उठने -बैठने और खेलने का अधिकार देता है वैसे ही मित्र भाव भी अपने उद्दात रूप में जीवन के लिये संजीवनी बनकर काम आ सकता है ।
शोध छात्रा कु . अर्चना के इन उद्द्गारों को गोष्ठी में बैठे सभी विद्वानों नें तो सराहा ही पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा उन किशोर विद्यार्थियों पर जिन्हें नर -नारी के सामान अधिकार वाले कल के संसार की रचना करना है। गोष्ठी के बाद उल्लास का माहौल बन गया और सबनें आपस में गुलाल और अबीर लगाकर होली के पर्व का मर्यादित उत्सव मनाया। सुखविन्दर और रमिया सच्चे मित्रभाव से होली मनाने का अर्थ समझ गये और नर -नारी के सहज आकर्षण को कुंठा मुक्त शक्ति के रूप में लेकर आगे बढ़ने का सहयोग भरा मार्ग उन्हें दिखाई पड़ने लगा।
कहने वाले कहते हैं कि नथ्थ्न हलवाई और छिद्दमी धीमर में पिछले कुछ दिनों से एक अजीब परिवर्तन सा आ गया है। अब वे अपने बच्चों से भय मुक्त सहज मिलन और अपने भविष्य जीवन के निर्माण करने की योजनाओं के बात करने के लिए निरन्तर प्रेरित करते रहते हैं । भारत वर्ष में आने वाले इस बदलाव से उनका परिचय होने लगा है कि नर -नारी सम्बन्ध केवल मिथुन से ही जोड़कर नहीं देखना चाहिए। अंग्रेजी के Friend की तरह हिन्दी का मित्र शब्द भी उभयलिंगी है। माँ ,बहन ,पत्नी और बेटी के सम्बन्ध तो अपने में सहज स्वीकृत तो हैं हीं पर इनके अतिरिक्त नर और नारी का सखा भाव पर आधारित सम्बन्ध भी पवित्रता की द्रष्टि से इसी कोटि का है। इस विचार को घर -घर तक पहुंचाना है। आइये कृष्ण -कन्हैया के इस होली सन्देश को घर -घर तक पहुँचा दें। यदि ऐसा हो जाये तो रमिया और सुखविन्दर की पहली शाम वाली हंसी -ठिठौली एक नया अर्थ पा जायेगी ।
रमिया का बापू छिद्दमी धीमर होली की पहली दिन की शाम को काफी चिन्तित हो उठा। चिन्ता का कोई ख़ास कारण न था पर उसने सोलहवें वर्ष में पैर रख रही रमिया को पड़ोस के हलवाई नथ्थ्न के मझले लड़के सुखविन्दर के साथ हँसते बोलते देख लिया था। यों कभी -कभी पड़ोसी होने के नाते रमिया और सुखविन्दर छोटी -मोटी बातें कर लिया करते थे पर उस शाम हंसी ठिठोली का जो नजारा छिद्दमी नें देखा उससे उसका मन शंका से भर गया। पर क्या किया जाय कोई ख़ास बात तो थी नहीं होली के एक दो दिन आगे पीछे हँसी ठिठोली का माहौल होता ही है। रंग ,गुलाल ,और अबीर लगा लेने की छूट भी हिन्दू समाज के एक बड़े वर्ग नें दे राखी है। त्यौहार के इस सन्दर्भ में रमिया और सुखविन्दर की हँसी ठिठौली को गलत अर्थों में लेना छिदम्मी को उचित नहीं लगा। पर न जाने क्यों छिद्दमी को लगा कि रमिया की हँसी और मुस्कान के कुछ नये अन्दाज हैं और उनसे कुछ नये अर्थ लगाये जा सकते हैं। उसने सोचा कि रमिया की माँ से बात करके सावधान रहने की कोई तजबीज बनानी पड़ेगी पर कुछ मिलने वालों के आ जाने के कारण यह बात उसके दिमाग से उतर गयी और इस बात चीत को सहज भाव से लेकर अपने काम काज लग गया । छिद्दमी के मन से तो यह बात उतर गयी पर उस हँसी ठिठौली नें रमिया और सुखविन्दर को सोच विचार की चक्कर दार भँवर में फँसा दिया। रमिया सुन्दर है और जवान है ,सुखविन्दर कमेरा है और तरुण है यह बात तो सभी जानते थे पर उभरती तरुणाई के तूफानी दौर में उभरती भावनाओं की उथल- पुथल का पहला अहसास रमिया और सुखविन्दर को बहुत सुखद महसूस हुआ। बातचीत की इतनी मिठास और होली के सुहावन मौसम की मादक मस्ती रमिया और सुखविंदर को चकरा गयी। अब क्या किया जाये रमिया के गालों पर गुलाल कैसे लग पाये और रमिया की पिचकारी प्यार की लाल छींटें सुखविन्दरके कपड़ों पर कैसे डाल पाये। मन के भीतर योजनायें बनने लग गयीं। पर सुखविन्दर का बाप नथ्थ्न हलवाई अपने खुंखार थोबड़े के लिये मशहूर था और छिद्दम्मी धीमर की लाठी न जाने कितनी बार अपना रंग दिखा चुकी थी। जाति गत विषमता मैत्री सम्बन्धों को आगे बढ़ाने में बाधक बन रही थी पर शरीर की लस लहरियाँ मनों पर लगाम नहीं कसनें दे रहीं थीं। इसी दौरान एक घटना घाट गयी ।
आनन्दे शुकुल की पड़िया जो अब बड़ी हो गयी थी कई दिनों से उछाह पर थी। होली के एक दिन पहले की शाम लड़के गली में रंग रंगोली खेलनें में लगे थे। किसी नें जाकर पड़िया के माथे पर अबीर मल दी। पड़िया उछाह पर तो थी ही होली की अबीर नें उसे और बेकाबू कर दिया। वह रस्सी तुडाकर भागी सो भागी। आनन्दे शुकुल बनियाइन ,कच्छा पहने पीछे भागे पर पड़िया भला कहाँ पकड़ में आती। गाँव के एक सिरे पर चिरन्जी अहीर का का घर था और उसके लम्बे चौड़े अहाते में कई गाय भैंसे बंधीं रहती थीं। उसके पास एक झोटा भी था जिसे गाँव के लड़कों नें एक मजाकिया नाम दिया था -'धाँसू ' अब पड़िया आगे और आनन्दे शुकुल पीछे। चिरन्जी के अहाते में घुसकर पड़िया अपने आप धाँसू के पास रुक गयी। खूंटे में बंधा धाँसू रस्सी के नियन्त्रण में इधर- उधर घूमने लगा और पड़िया के शरीर से निकलती कोई अजीब गंध उसे बेहाल करने लगी। वह दांत निकाल कर ऊपर की ओर देखता और मुंह से झाग के फेने निकालता। आनन्दे शुकुल हाँफते -हाँफते पड़िया के पास पहुचे और उसके गले में टूटी हुयी रस्सी पकड़ कर खींच कर घर की ओर ले जाने लगे। पड़िया जाना नहीं चाहती थी पर सींकिया शुकुल जी उसे खींचनें में लगे थे। इस हल चल में चिरन्जी भी निकल कर बाहर आ गया। उसने धाँसू की पीठ पर शाबाशी की थपकी लगायी। जैसे -तैसे सुकुल जी पड़िया को खींच कर ले चले। थपकी पाकर धाँसू को न जाने कहाँ से अतिरिक्त जोश आ गया। उसने ताकत लगायी और खूँटा उखड़ गया। वह गले में रस्सी और रस्सी में बंधे हुये खूँटे सहित पड़िया के पीछे सूंघा -सांघी करते हुये चल पड़ा । अभी धुधलका ही हुआ था। बच्चों को होली की पहली शाम को हुल्लड़ मचाने का एक निराला अवसर मिल गया। एकाध नें धांसूं के ऊपर रंग डाल कर अबीर फेंक दी। पंगू पासी का लड़का 'होली है भाई होली है ,धाँसू पड़िया जोड़ी है । कहकर नाचने ,थिरकने लगा। लड़कों की टोली उसके इस खेल में शामिल हो गयी । चिरन्जी नें दौड़कर खूंटा पकड़ कर धाँसू को लौटाने की कोशिश की पर धाँसू था जो पड़िया का साथ छोड़ना ही नहीं चाहता था । शाम की पूजा के बाद मन्दिर से लौटते पण्डित मुरारी लाल चतुर्वेदी नें यह द्रश्य देखा। वे गाँव के एक बुजुर्ग समझदार और पढ़े लिखे व्यक्ति के रूप में जानें जाते थे। उन्होंने आनन्दे शु कुल और चिरन्जी यादव को समझाया कि जबरदस्ती ठीक नहीं है । पशुओं को प्रकृति के नियमों का पालन करने दो। हाँ हम मनुष्यों के लिये धर्म -कर्म के जो नियम हैं उन्हें मानना ही पड़ता है नहीं तो आदमी और जानवर में अंतर ही क्या है। आनन्दे शुकुल और चिरंजी अहीर दोनों की समझ में यह बात आ गयी। मनुष्य होने के नाते वे अलग -अलग जाति में हैं पर उनके पशुओं की तो कोई अलग जाति नहीं है । कुछ देर की स्वतत्रंता पाकर पड़िया और धाँसू मानव सभ्यता द्वारा नियोजित होली मिलन का सहज ,सरल आनन्द पाने का अवसर पा गए ।
अगली शाम को गाँव के इण्टर कालेज में एक साहित्यिक गोष्ठी का आयोजन किया गया था। गोष्ठी में दसवीं ,ग्यारहवीं और बारह्वीं के विद्यार्थी श्रोता के रूप में उपस्थित थे। छिद्दमी धीमर की बेटी रमिया कक्षा दस में पढ़ती थी और नथ्थू हलवाई का बेटा सुखविन्दर ग्यारहवीं में था। दोनों श्रोता विद्यार्थियों के बीच पास -पास बैठे थे। इण्टर क्लास को हिन्दी पढ़ाने वाले डा . सूरज वर्मा और अंग्रेजी पढ़ाने वाले मथुरा शुक्ल तथा साथ में समाज शास्त्र के प्रवक्ता सीताराम सचदेवा गोष्ठी के विद्वान वक्ताओं में थे ।
जवाहर लाल यूनिवर्सिटी में हिन्दी उपन्यास में नारी मनोविज्ञान में शोध करने वाली कु .अर्चना जो मथुरा शुक्ला की भतीजी थी ,भी गोष्ठी में उपस्थित थीं। उपन्यासों की चर्चा करते- करते बात भगवती चरण वर्मा के बहु चर्चित उपन्यास चित्रलेखा पर आ पहुँची। अंग्रेजी प्राध्यापक मथुरा शुक्ल जी फ्रान्स के किसी उपन्यासकार से चित्रलेखा को प्रभावित बता रहे थे। उनका कहना था कि चरित्र चित्रण की द्रष्टि से चित्रलेखा को अधिक सफल नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसमें बीजगुप्त के चरित्र का उन्नयनीकरण किया गया है जबकि योगी कुमार गिरि को लेखक के पूर्व निर्धारित मूल्यों का खामियाजा भुगतना पड़ा है। इस बात को लेकर शोध छात्रा कु . अर्चना का अपना एक अलग नजरिया था। उन्होंनें यह मानने से इन्कार किया कि बीजगुप्त को अनावश्यक रूप से महिमा मंडित किया गया है\ उनका कहना था कि नर और नारी का पारस्परिक आकर्षण मिथुन सुख से हटकर भी अन्य अभिरुचियो और मानसिक समानान्ताओं पर टिकाऊ रूप से आधारित हो सकता है। बीजगुप्त में नर -नारी के इस नैसर्गिक आकर्षण को साख्य भाव से लेने की क्षमता है पर योगी कुमार गिरि का चिन्तन पक्षाघात से ग्रसित है। वह देह के आकर्षण से ऊपर उठकर नारी मनोविज्ञान की इन्द्र धनुषीय आभा छवियों से परिचित नहीं है। उसका जीवन दर्शन एकांगी है। उदाहरण के लिये उन्होंने पाण्डव पत्नी द्रोपदी और चक्रधारी श्री कृष्ण के सहज आकर्षण और सखाभाव का उल्लेख किया। श्री कृष्ण और कृष्णा का लगाव दो ज्योति पुंज चेतनाओं के अटूट सामीप्य से ही मापा जा सकता है ।
देह की लालसा उसमें कहीं नहीं है पर चिरन्तन सामीप्य का भाव उसमें निरन्तर उपस्थित है। कुमार गिरि चित्रलेखा से अपने सम्बन्ध को केवल पशु चेतना से ही नियन्त्रित करना चाहता है जबकि बीज गुप्त में नारी को भोगने का नहीं बल्कि बन्धन मुक्त करने का साहस है। मनुष्य का व्यवहार झोटा -झोटी की तरह पशु प्रवत्तियों से सन्चालित नहीं किया जा सकता।उसे निरन्तर मिथुन सुख से जोड़े रहना भी अपंग मनोवृत्ति का परिचायक है । पर सखा भाव में देह स्पर्श पशु वृत्ति से संचालित नहीं होता बल्कि उसमें वैचारिक ऊर्जा की प्राण वान शक्ति निहित होती है। भारतीय संस्कृति में होली का त्यौहार इन्ही प्रतीतात्मक अर्थों में लिया जाता रहा है । देवर -भाभी के पवित्र सम्बन्ध को और भी पवित्र करने वाला हल्का ,अनासक्त देह स्पर्श अबीर या गुलाल मंडन या रंग की बूंदाबांदी मानव सम्बन्धों को एक और अधिक ऊंचा स्तर प्रदान करती है । अब हमारे सामने बैठे यह विद्यार्थी जिनमें किशोर और किशोरियां हैं ,जो तरुणाई के द्वार की ओर बढ़ रहें हैं अगर अपने मित्रता सम्बन्ध को सदैव पशु वृत्ति से और मिथुन सुख से जोड़ कर देखते रहेंगे तो यहकभी भी सच्चे मित्र नहीं बन सकेंगे। जिस प्रकार भाई -बहिन का प्यार गंगा की तरह पवित्र होकर भी एक दूसरे के सामीप्य में भी उठने -बैठने और खेलने का अधिकार देता है वैसे ही मित्र भाव भी अपने उद्दात रूप में जीवन के लिये संजीवनी बनकर काम आ सकता है ।
शोध छात्रा कु . अर्चना के इन उद्द्गारों को गोष्ठी में बैठे सभी विद्वानों नें तो सराहा ही पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा उन किशोर विद्यार्थियों पर जिन्हें नर -नारी के सामान अधिकार वाले कल के संसार की रचना करना है। गोष्ठी के बाद उल्लास का माहौल बन गया और सबनें आपस में गुलाल और अबीर लगाकर होली के पर्व का मर्यादित उत्सव मनाया। सुखविन्दर और रमिया सच्चे मित्रभाव से होली मनाने का अर्थ समझ गये और नर -नारी के सहज आकर्षण को कुंठा मुक्त शक्ति के रूप में लेकर आगे बढ़ने का सहयोग भरा मार्ग उन्हें दिखाई पड़ने लगा।
कहने वाले कहते हैं कि नथ्थ्न हलवाई और छिद्दमी धीमर में पिछले कुछ दिनों से एक अजीब परिवर्तन सा आ गया है। अब वे अपने बच्चों से भय मुक्त सहज मिलन और अपने भविष्य जीवन के निर्माण करने की योजनाओं के बात करने के लिए निरन्तर प्रेरित करते रहते हैं । भारत वर्ष में आने वाले इस बदलाव से उनका परिचय होने लगा है कि नर -नारी सम्बन्ध केवल मिथुन से ही जोड़कर नहीं देखना चाहिए। अंग्रेजी के Friend की तरह हिन्दी का मित्र शब्द भी उभयलिंगी है। माँ ,बहन ,पत्नी और बेटी के सम्बन्ध तो अपने में सहज स्वीकृत तो हैं हीं पर इनके अतिरिक्त नर और नारी का सखा भाव पर आधारित सम्बन्ध भी पवित्रता की द्रष्टि से इसी कोटि का है। इस विचार को घर -घर तक पहुंचाना है। आइये कृष्ण -कन्हैया के इस होली सन्देश को घर -घर तक पहुँचा दें। यदि ऐसा हो जाये तो रमिया और सुखविन्दर की पहली शाम वाली हंसी -ठिठौली एक नया अर्थ पा जायेगी ।
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