Tuesday, 12 March 2013

कन्या भ्रूण हत्या -मानवता के प्रति एक जघन्य अपराध

                   कन्या भ्रूण हत्या -मानवता के प्रति एक जघन्य अपराध  (गतांक से आगे )                                                             जो बात हिन्दुस्तान में है वही पाकिस्तान में भी क्योंकि मूलत: ये दोनों ही क्षेत्र पुराने समूचे हिन्दुस्तान का ही हिस्सा है। इस पूरे क्षेत्र में नारी को सदैव एक अबला के रूप में देखा गया है और उसे उत्तराधिकारी नर शिशु को ही  जन्म देकर ही महत्त्व पाने का अधिकारी समझा जाता था।  कन्याओं को जन्म देने वाली नारी सदैव हेय समझी जाती थी।  और यह सामाजिक पतनशील चिन्तन इतनी गहरायी तक समाज में घुस गया था कि स्वयं नारी ही नारी को जन्म देकर अपने को हीन समझ बैठती थी। मानव विकास के क्रम में हमें अतीत के धूमिल कुहासे में झाँक कर यह देखना होगा कि इस मान्यता की जड़ें मनोविज्ञान की किन संचालक तंत्रिकाओं से जुडी हैं। अगर हम पोंगा पंडिताऊ विचारधारा की बात करें तो नर -नारी को एक साथ जन्म देकर श्रष्टि कर्ता ब्रम्हां नें प्रारम्भ से ही समानता की नींव डाल  दी थी इस द्रष्टि से साथ साथ जन्म लेने वाले नर और नारी सच्ची समानता के अधिकारी  हैं और यह विचारधारा प्रगतिशीलता के आधुनिक मापदंडों पर ही खरी उतरती है। पर पोंगा पंडितायी शब्द युग्म के द्वारा मैनें यह कहनें की कोशिश की है कि आज सभ्य संसार में कोई भी सुशिक्षित व्यक्ति यह माननें को तैयार नहीं होगा की नर -नारी की यही आकृति श्रष्टि के प्रारम्भ से ही है । और विकासवाद की देन नहीं है । जीव विज्ञान तो यही मानकर चलता है कि  जब पहला जीवित सेल अकेले तरल धरातल पर दोलायित हुआ तो प्रजनन के लिये उसे किसी दूसरे सहयोग की अपेक्षा नहीं थी। वह स्वयं अपने को ही  बाँटकर एक से दो और दो से चार हो जाया करता था। पर इतनी दूर करोड़ो - करोड़ वर्ष  पीछे देखने वाली आँखें अब मेरे पास नहीं रहीं हैं । वैसे भी द्रष्टि धुंधली पड़ गयी है और ऐनक का इस्तेमाल करने के लिये मजबूर होना पड़ा है।  तो आइये करोड़ों करोड़ वर्षों की एक छलांग लगा कर हम धरती की उस अवस्था में पहुँचते हैं जब सामुद्रिक पानी के प्रसार से मुक्त धरती का जो कुछ हिस्सा था वह जंगलों ,लताओं ,वनस्पतियों , त्रण अन्कुरों से भरा था। और उसमें स्थावर जीवन के अलावा केवल वनचर ही अपने शताधिक रूपों में  धरातल ,पेंड़ों ,लता वेष्टिकाओं आदि में रेंग -रांग ,चल -फिर या उछ्ल कूद कर रहे थे । लगभग दस लाख वर्ष पहले या उससे भी कई लाख वर्ष पहले सैकड़ों मीलों तक फैले जंगलों में पेड़ों की घनी सटी कतारों में लटकने और उछलने कूंदने वाले स्तनपायी जैविक श्रंखला के एक उप -विभाग ने आगे के दो पैरों को उठाकर चलने का यत्न किया। लाखों वर्षों तक यह प्रयास चलते रहे पीढ़ी -दर पीढ़ी ,हर -पीढ़ी ,शत -पीढ़ी ,सहस्त्र -पीढ़ी (काल की निरन्तरता का माप साधारण बुद्धि नहीं जानती ) उसके लिए रामानुजन जैसे किसी अद्दभुत गणितग्य की आवश्यकता होती है। आइये हम फिर कई लक्ष्य वर्षों की एक छलांग लगा लेते हैं और पहुचते हैं अफ्रीका के एक हिस्से से निकल कर दो पैरों पर चलने वाले घुमन्तू वनचरों की ओर जो धीरे धीरे सकडों वर्षों तक जोखिम भरे मार्गों से निकल  बचकर दुनियाँ भर में पहुँच गये। उस समय का भूगोल आज के भूगोल से कुछ भिन्न था\ कई समुद्र उस समय जलरहित भूमि  खण्ड थे और आज के कई भूखण्ड जलमग्न समुद्री विस्तार का हिस्सा थे । उधर स्कैन्डिनेविया के आस - पास नव पाषाण युग वाले मानव मस्तिष्क का विकास भी हो रहा था। काल अपनी अबाध गति से चलता रहा।स्रष्टि के लक्ष्य कोटि जीवधारियों में जन्म -मृत्यु का चक्र एक अटूट अनिवार्यता के साथ गतिशील रहा। प्रकृति परिवर्तन के भिन्न भिन्न रूप देखने को आये । कभी हिम युग तो कभी भूतल की डोला डोली , कहीं लावा का विस्फूर्जन तो कहीं हिमानियों की स्रष्टि। न जाने जीवन की कितनी प्रजातियाँ जन्मी ,विकसी और विनिष्ट हो  गयीं। यह सब क्यों और कैसे हुआ इसे जानने के लिए या तो भारतीय ऋषियों ,मुनियों ,की समाधि अवस्था में जाना होगा या फिर आइन्स्टाइन के शिष्यत्व में बैठकर स्पेस  टेक्नालोजी  के द्वारा आकाशगंगाओं के सैर करनी होगी। इतनी सामर्थ्य जुटा पाना सुधी पाठकों में से तो शायद किसी के लिये सम्भव हो सके पर मुझे इस दिशा में तो अपनी लघुता का पूरा विश्वाश है । तो आइये हम फिर हजारों हजार वर्षों की उछाल लेते हैं और आज से लगभग १ ० -१ २  हजार वर्ष पूर्व उस काल में पहुचते हैं जब जंगलों के बीच छोटी -मोटी बस्तियां बसने लगती हैं। जब अतिशय रगड़ के द्वारा अग्नि पैदा कर ली गयी है। जब पेड़ों से गिरे बीजों से उगती नयी पौध को देखकर कृषि कर्म की धारणा ,द्विपदीय वनचर में जड़ें जमाने लगी है । खाने के योग्य कुछ प्रकृति जन्य पौधों के बीज तलाश में आ गये हैं । धान नें शायद पहला स्थान पाया हो और फिर यव ,गन्दम (गेहूं )और इतर खाने योग्य बीजों की उपलब्धि और उनको भूमि में डालकर दुबारा उगाने की महारथ पा ली गयी हो। समय चलता रहा कई पशु -पक्षी अपने बूढों को अपने टोल से खदेड़ कर अकेले में रहकर मरने के लिये विवश कर देते होंगें। दो पैरों पर चलने वाले वनचर ने जो अब नर पशु न रहकर मानव बनने की ओर बढ़ रहा था। अपने बूढों को अपने बीच रखकर ही पालने पोसने और जीने मरने का न्याय विधान रचा। रोमावालियाँ प्रकृति के चपेट में कम होती गयीं। रक्त का प्रवाह मस्तिष्क की ओर बढ़ता गया।झुका हुआ कपि माथा सीधा होने लगा। लाखों वर्षों से पाए हुये मस्तिष्क में चिन्तन प्रक्रिया को और तीव्रतर करने के लिए ब्रेन का विकास होना शुरू हुआ। अनवरत वर्षा ,बिजली की भयानक कौंध ,केसरी की दहाड़ , अजगर का गुन्जलन और कृमि कीटों का दंश सह कर भी मानव इन्सानियत की ओर बढ़ता गया। कृषि उत्पादन और विपणन की प्रारम्भिक प्रक्रियाओं ने हमें उस सभ्यता के द्वार तक पहुचाया जिसकी झलक हमें पुराने मिस्र , बेबीलोन ,(ईराक )मिसुपटानिया ,हड़प्पा .मोहनजोदड़ो ,कालीबंगा और चीन की यांग टुसी कांग सभ्यता में झलकती दिखायी पड़ती है । प्रकृति की घटनाओं से प्रेरित होकर देवी -देवताओं का जन्म हुआ। पशुओं से उठकर उनका मानवीकरण किया गया। अब नारी गृहणी बनने लग गयी।घुमन्तू जीवन छोड़ कर एक स्थान पर रहकर शिशु पालन करना उसे सुलभ होगा। घुमन्तू जीवन में पशुओं और विरोधी कबीलों से टक्कर लेते समय नर पशु नें अपने से अधिक विकसित नर ने नारी के शारीरिक कमजोरी का अहसास कर लिया था । पर उसकी सजगता और मानसिक सूझ -बूझ ने उसे अभी तक उसे बराबर की श्रेणी में बिठाल रखा था । ताम्र युग तक आते आते पुरुष जंगली जानवरों से इतना भयभीत नहीं रहा जितना की विरोधी कबीलों के आक्रमण और सामूहिक नर संहार से। ताम्र युग से लौह युग और युद्ध में  शारीरिक असमर्थता या शस्त्र प्रयोग का हस्तकौशल ही श्रेष्ठता का मापदण्ड बन गया । माँ बनने का महानतम गौरव प्रकृति नें नारी को दे  रखा था पर विकसित सभ्यता की विकसित जटिलताओं नें उसे ह्त्या और और खून खराबा से दूर रह कर नयी श्रष्टि को पाल पोस कर खड़ा करने के लिये विवश कर दिया। इस विवशता नें तो उसे समानता के पद से तो हटाया पर उसे एक अतिरिक्त गौरव भी दिया। पुरुष जानता था कि नारी के माध्यम से  ही नयी श्रष्टि हो सकती है। कबीलाई लड़ाके भी जानते थे कि कबीले की बृद्धि  के लिए नारी की सुरक्षा आवश्यक है। नारी को सुरक्षा भी मिली और मात्रत्त्व भी पर इसके बदले उस पर ऐसे बहुत से नीति विधान लाद  दिये गये जो पक्षपात पूर्ण थे और जिन्हें पशु बल जिसे पौरुष कहा जाता था से संचालित किया जाता था। सहस्त्रों वर्ष गुजरते गये अलक्क्षेन्द्र आया। फारस की राजसत्ता लड़खड़ा गयी। यूनान के बाद रोमन इम्पायर का सूत्रपात हुआ। चीन में हैंन साम्राज्य की स्थापना हुई। महात्मा बुद्ध आये ,मौर्य साम्राज्य और भारत के महानतम सम्राट अशोक की उपलब्धियां इतिहास में अंकित हुईं\ जेसस क्राइस्ट नें मानव चिन्तन को एक नयी दिशा दे दी। दूसरों की पीड़ा को दूर करना जीवन का महानतम लक्ष्य बन गया। पर युद्ध चलते रहे ,महापुरुष जहर देकर या क्रास पर चढ़ाकर या तलवार की धार से काटकर समाप्त किये जाते रहे। पर कुछ मस्तिष्क थे जो प्रकृति के रहस्यों को खोलने में ऋषियों -मुनियों की तरह मननशील रहते थे। भारत में आर्य भट्ट आये ,बराहमिरी आये। दशमलव का सूत्र खोजा गया। सातवीं शताब्दी के आस -पास हजरत मुहम्मद नें अरबवासियों को सामान मानव भाई चारे का प्रभावी नारा दिया। युद्ध फिर भी चलते रहे। अहँकार के जनून में न जाने कितनी नर संहार की योजनायें चलती रहीं। पुरुष युद्ध में मरते रहे और अपनी लाज बचाकर नारी उत्पीडन सहकर घुट -घुट कर मरती रहीं। हजारों वर्षों तक विजाताओं ने उसे भोग्या के अतिरिक्त उसे कुछ नहीं समझा। प्रकृति द्वारा उसे माँ बनने के लिये बनाये गये उसके शारीरिक ढाँचे को मिथकों से जोड़कर नारी सौन्दर्य के नाम पर विभत्स नर संहारों की योजनायें बनी जिन्हें गौरव के आडम्बर में ढालकर न जाने कितने चारण और भाट दुहराते रहे\ पर प्रकृति ने कहीं मस्तिष्क में (ब्रेन )नाम के रहस्य भेदी चिन्तन केंद्र को विकसित कर दिया था उसका काल की छाती को चीरता हुआ मानव सभ्यता की नयी मंजिलें उठाने में लगा रहा। अभी ५० वर्ष पहले तक जीवन विशेषत : एशिया ,अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के महाद्वीपों में बहुत कुछ मध्य युगीन परम्पराओं से जुड़ा हुआ था। पिछली एक शताब्दी के मानव दिमाग नें जितनी उपलब्धियां हासिल की हैं वे लक्ष्य लक्ष्य वर्ष के लम्बे युगों में भी आदमी से संभव नहीं हो पायी थीं। आकाश गंगायें हमारे लिए अपना द्वार खोलने के लिये तैयार हैं। गुण सूत्रों की व्याख्या ने जीवन के रहस्य को समझने की सूझ -बूझ दे दी है। क्लोनिंग के द्वारा हम अन्य प्रजातियाँ क्या मानव तक की नयी श्रष्टि करने में समर्थ हो गये हैं । संकर बीजों की स्रष्टि से हम समुद्र और चाँद पर फसलें उगाने में सक्षम हैं। अब नारी अपना समस्त यौवन काल शिशिओं को जन्म देने के लिये विवश नहीं है। हिरोशिमा और नागासाकी की विभीषका के बाद मानव जाति अपने सामूहिक विनाश से बचने के लिये कुछ सूझ -बूझ का मार्ग अपना रही है ।
              (  आगे अगले अंक में )

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