Monday 17 June 2013

अर्थव्यवस्था नयी द्रष्टि से

                                                               अर्थव्यवस्था नयी द्रष्टि से

              मैंने कौटिल्य का अर्थशास्त्र तो नहीं पढ़ा पर भारत के इस समय के बड़े समझे जाने वाले अर्थशास्त्रियों के कथनों पर काफी सोचा विचारा है। महान सम्राट चन्द्रगुप्त के महामन्त्री ,अपार मेधा के धनी विष्णु गुप्त चाणक्य नें उस समय के सबसे विशालतम साम्राज्य की अर्थव्यवस्था को कैसे सजाया ,संवारा इसे वे ही जानते थे। उन्होंने उपभोगतावाद पर संयंम लगाने का सुझाव दिया था या इच्छाओं की भूख बढ़ाने का सुझाव दिया इन बातों को सहस्त्रों वर्ष पहले व्यतीत काल से खोज निकालना नामुमकिन है । पर हाँ , आज चाहे डा 0  मनमोहन सिंह हों चाहे चिदाम्बरम , चाहे कमलनाथ या मोंटेकसिंह अहलूवालिया सभी इस पूँजीवादी विचारधारा के पोषक हैं , कि इच्छाओं को बढ़ाकर सुख -सुविधा और भोग -विलास के नये -नये साधन जुटाना ही देश की तरक्की का सूचक है। ऐसा करने के लिये बैंकों के पास अपार धन हो ताकि वे उसे बहुत सस्ती दरों पर लोगों को उधार दे सकें और सामान्य जन नये घर , नयी गाड़ियां ,नये सौन्दर्य प्रसाधन और नये ताम -झाम खरीदते चले जाँये। अमरीका भी बहुत दिनों  तक इसी मुगालते में फँसा रहा कि पूँजी की अधिक से अधिक तरलता आर्थिक विकास का ग्राफ हमेशा बढ़ाती रहेगी। अन्धाधुन्ध कर्ज दिये गये बिना ये सोचे कि कर्ज लेने वालोँ के पास उसे वापस करने की क्षमता है भी या नहीं। बैंक और कारपोरेट सेक्टर के संचालकों और उच्च पदस्थ अधिकारियों  नें मनमानी तनख्वाहें , बेशुमार भत्ते और चकित कर देने वाली विलास सामिग्री इकठ्ठी कर डाली। लम्बी छलागों में उन्हें यह दिखायी नहीं पड़ा कि खाईं -खड्ड में गिरने का इन्तजाम करने के बाद ही अनियन्त्रित छलांगें लगानी चाहिये। अमरीका में आयी आर्थिक मन्दी ने सारी दुनियाँ में आर्थिक गिरावट का एक भयानक चक्र प्रारम्भ कर दिया है। योरोपीय संघ भी इस कमरतोड़ अघात से बच नहीं सका है। जापान की अर्थव्यवस्था लगड़ी होती जा रही है। और तो और चीन का आयात भी लड़खड़ा उठा है और भारत का सेन्सेक्स तो न जाने कितनी आँखों में आँसू भर चुका है। ऐसा इसलिये हुआकि सोवियत युनियन के विघटन के बाद सारी दुनियाँ में यह मान लिया गया कि अमरीका की अर्थव्यवस्था ही विकास का आदर्श है। मुक्त ,स्वच्छंद , अनियन्त्रित पूँजी को खुल कर अपना नंगा खेल खेलने दिया गया। परिणाम वही हुआ जो होना था। भारत नें इस दिशा में यह भुला दिया कि हमारे प्रथम प्रधान मन्त्री नें Mixed एकोनामी का जो Concept दिया था वह नग्न पूँजीवादी व्यवस्था के लिये एक सचेतक का काम कर सकता था। विश्व के और देशों की बैंक व्यवस्था जब लड़खड़ा गयी है और अमरीका के बड़े -बड़े बैंक जब टूट गये हैं या टूटने की कगार पर हैं तब भारत के बैंकों की मजबूत स्थिति हमें इन्दिरा गांधी का स्मरण करा देती है। इन्दिरा जी ने जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था तब मुक्त पूंजी के हिमायती उन्हें देश का सबसे बड़ा शत्रु बताते थे। आज सारा देश यह मान रहा है कि अपार पूँजी पर सोशल कन्ट्रोल रखने का नेहरू जी का द्रष्टिकोण न केवल भारत वरन समस्त विश्व के लिये समाज के आर्थिक विकास का आदर्श मार्ग है। यहाँ पर बात ध्यान रखनी है कि सोशल कन्ट्रोल का कान्सेप्ट साम्यवाद के टोटल कन्ट्रोल कान्सेप्ट से एक भिन्न विचार -धारा है एक उदार नियन्त्रण ,एक मूल्य आधारित दिशा निर्देश देकर मुनाफ़ा कमाने की दानवीय भूख को सयंम में रखा जा सकता है।
              भारत की आर्ष परम्परा निरन्तर इस बात का आग्रह करती रही है कि मनुष्य की इच्छाओं को सयंमित किया जाना चाहिये। स्वस्थ्य जीवन के लिये जो आवश्यक है उसको जुटा सकने के साधन मुहैया कराने का उतरदायित्वदेश की सरकार का होता है । पर भोग लिप्सा बढ़ाकर धन का अनैतिक संचयन करने की नीति सामाजिक अराजकता को जन्म देती है। हम ऊपर से कितनी ही लम्बी -चौड़ी क्यों न हांकें पर इस सत्य को सभी जानते हैं कि धन का बहुतायत से अर्जन अनैतिक मार्गों से ही हो पाता है। घूसखोरी , कमीशन प्रतिशत या सुविधा शुल्क यदि अनैतिक है तो उद्योगपतियों और महाजनों का मनमाना शोषण भी अनैतिक ही है।कागजों में क़ानून भी इन अमानवीय प्रवृत्तियों का विरोध करता है। पर वास्तविक जीवन में ये प्रवृत्तियाँ भारतीय जनमानस का सहज स्वभाव बन गयीं हैं हमें फिर से उन औपनिषदिक जीवन मूल्यो की ओर प्रेरणा के लिए देखना होगा जो यह सिखाते हैं कि जीवन यापन की समकालीन ,सुविधाओं के संचयन के बाद इकठ्ठा किया गया अतिरिक्त धन एक प्रकार से सामाजिक पाप है भले ही वह अपराध न हो। दुनिया के दिग्गज अर्थशास्त्री जिनके पास हारवर्ड ,लन्दन ,टोक्यो और सिडनी आदि से भारी -भरकम उपाधियाँ हैं उन्हें भारत की मिट्टी से उपजी आर्थिक  विचारधाराओं का भी अनुशीलन करना चाहिये ताकि वे अपने विचारों में एक सच्चा सन्तुलन बना सकें। बुद्ध ,लाओत्से ,टालस्टाय और विनोबा भावे सन्त और महात्मा होने के साथ ही साथ ऊँचे आर्थिक विचारक भी थे। इन सबने भोग वृत्ति पर संयम रखने का निर्देश दिया है। मन के वायु गामी अश्व पर संयम की वल्गा लगाकर ही नियन्त्रण पाया जा सकता है। सेंसेक्स ,सट्टाबाजी ,लाटरी और होर्डिंग से थोड़े समय में ही बिना परिश्रम धनी हो जाने की प्रक्रति को बढ़ावा देना सरकारी तन्त्र के लिये शोभा नहीं देता। इन सभी क्षेत्रों को सामाजिक मूल्यों से जोड़कर उदार आर्थिक संरक्षण में परिचालित करना चाहिये।
                       अपने विद्यार्थी दिनों की कुछ कहानियाँ मेरे मस्तिष्क में गूँज जाती हैं। लियो टालस्टाय की कालजयी कहानी " How much land does a man need " में मनुष्य के अनियन्त्रित लालच की करूँण - कथा चित्रित की गयी है। सूर्योदय से सूर्यास्त तक आप कितनी जमीन अपनी दौड़ के दायरे में ले आवें वह आपकी हो जायेगी। कहानी का प्रमुख पात्र दौड़ते -दौड़ते बेदम होकर डूबते हुये सूरज की ओर देखता है और फिर थोड़ी और जमीन घेर लेने की प्राण लेवी लिप्सा में आख़िरी छलांगें लगाता है। इधर सूर्यास्त होता है उधर सीमाँ पर पहुचते ही दानवी लिप्सा के कारण कहानी के प्रमुख पात्र का प्राणांत। अब आप ही सोचिये उसे कितनी भूमि की आवश्यकता थी। मृत्यु के बाद तो शायद दो गज जमीन ही काफी है पर मृत्यु के पहले की अप्पर लिप्सा न जाने कितने सिकन्दर ,नेपोलियन ,चंगेजखाँ ,हलाकू ,हिटलर और मुसोलनी आदि को खा चुकी है। जो बात व्यक्ति के सन्दर्भ  में सही है वही देश या राष्ट्र के सम्बन्ध में भी सही है। दुनिया के चौधरी बनने का ढोंग अपने वैज्ञानिक रग पट्ठों की ताकत दिखाकर बहुत दिन तक नहीं चलाया जा सकता। काल के अनन्त प्रवाह में न जाने कितने सुनहरे बुलबुले फूटकर विलीन हो जाते हैं।  इसी सन्दर्भ में मुझे एक दूसरी कहानी का स्मरण हो आता है। यह कहानी है मोपांसा की "The Diamond Neck Lace." इस कहानी में मैटिल्डा नाम की सुन्दरी तरुणी ख़्वाब देखती है कि वह राज महलों में रहे , खानसामा उसके लिये खाना लगायें , शोफर उसके लिये वेश कीमती गाड़ियों का दरवाजा खोलें और उसके पास पहनने के लिये रत्नों से सजे अमूल्य आभूषण हों। सामान्य घर की यह तरुणी एक सामान्य घर में ब्याही जाती है। उसका लिपिक पति अपनी सुन्दरी पत्नी के ख़्वाबों से मानसिक विक्षोभ की स्थिति में रहता है। किसी प्रकार उसे अपने विभाग के मन्त्री के घर होने वाली एक पार्टी का निमन्त्रण मिल जाता है। वह अपनी पत्नी को इस उच्च वर्ग की पार्टी में ले चलने की बात कहता है तो मैटिल्डा अपने पास आभूषण न होने का रोना रोती है । पति उसे राय देता है क्यों न अपनी धनी सहेली से एक रात के लिये हीरे का हार माँग ले। मैटिल्डा ऐसा ही करती है। उस रात उसके सौन्दर्य की धूम मची रहती है। पार्टी में बड़े -बड़े लोग पार्टी में उसके साथ नाचने के लिये उत्सुक रहते हैं । बेचारा पति एक कोने में दुबका बैठा रहता है। पार्टी के बाद वापस आते समय वह पाती है कि उसका हार गले में नहीं है। हार पाने की सारी तलाश व्यर्थ रहती है। अब क्या किया जाये ? उधार तो चुकाना ही है। इस अत्यन्त रोचक कहानी का अन्त हमें झूठे ख़्वाबों से दूर रहने की समर्थ द्रष्टि देता है। बेचारी मैटिल्डा अपनी सारी जवानी छोटी मोटी बचत कर पैसे जुटाने में लगी रहती है ताकि उधार चुकाया जा सके वह असमय वृद्ध हो जाती है। मोपांसा फ्रांस के एक बहुत समर्थ कहानी कार हैं और विश्व के तीन श्रेष्ठ  कहानी कारों में माने जाते है। उन्होंने इस कहानी को  एक नाटकीय मोड़ देकर इसके अन्त को रोचक बना दिया है पर कहानी की कलात्मकता पर मुझे कुछ नहीं कहना है। मुझे तो यही कहना है कि धनी होने का दिखावा , छलनाओं के पीछे दौड़ना और ख़्वाबों की साया में सोना किसी भी देश की तरुण पीढ़ी के लिये आत्मघात से कम नहीं है।
             अंग्रेजों के लम्बे शासन काल में भारत नें विज्ञान और तकनीक के लिये कुछ नयी द्रष्टियाँ अर्जित की हैं। इस बात का श्रेय हमें योरोप के लोगों को देना ही होगा पर भारत नें जो खोया है वह इस लाभ से सहस्त्रों गुना भारी है। भारत नें खोया है आत्म विश्वास।  भारत नें खोयी है वह अन्वेषक द्रष्टि जो अतीत के तल में गडी स्वदेशी चिन्तन की स्वर्ण मुद्रायें खोज लाती है। आजादी के बाद हमने अपनी मिट्टी को रासायनिक खादों से भर दिया और अब जब राष्ट्र की रक्त प्रणाली क्रमिकीटों से भर गयी तो फिर हम देशी खाद की ओर मुड रहें हैं। स्वतन्त्रता प्रारम्भ के कुछ वर्षों के बाद खुली पूंजी के पैरोकारों ने खुली लूट की स्वतन्त्रता पा ली और अब हम फिर अर्थव्यवस्था पर सामाजिक नियन्त्रण की बात कह रहें हैं। नारी स्वतन्त्रता के नाम पर हमने भारत में आत्मा के अमर बन्धन विवाह -सम्बन्ध को शरीर के खिलवाड़ से जोड़ दिया और अब जब तलाकों और अवैध सन्तानों की भरमार हो रही है तो फिर हमें मजबूर होकर विवाह सम्बन्ध की  पवित्रता बात माननी पड़  रही है। मूत्रालयों ,शौच घरों ,रिक्शावाड़ों और तांगा स्टैण्ड पर अंग्रेजी की गालियाँ पंहुँच जाने के बाद अब हम फिर अपनी भाषा का शिष्टाचार सराहने लगे। दर असल हर अति अन्त में मुड़कर अपने प्रारम्भिक मूल्यों की तलाश करती है। ऐसा ही कुछ आज के भारत के सन्दर्भ में हो रहा है। हम बीते कल को बोझ न बनावें पर बीते कल में बहुत कुछ ऐसा है जो आज के लिये सहेजा जा सकता है\ भारत के आर्थिक सूत्रधार भारत की सांस्कृतिक परम्परा से समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता दूर करने के लिये बहुत सी बातें सीख सकते हैं\ मेरा मानना है कि भारत की अधिकतर सामाजिक विसंगतियों और आर्थिक अभावों का मूल कारण औसत भारतीय के जीवन में कर्तब्य निष्ठा और ईमानदारी का अभाव है। किसी भी देश की तरुणाई पथ प्रदर्शन के लिये नेतृत्व की ओर देखती है या सन्त महात्माओं की ओर। कल के भारत में इस द्रष्टि दर्शन के लिये बहुत कुछ था पर आज के भारत में बहुत कम। हमें इस दिशा में लफ्फाजी छोड़ कर ठोस आदर्श उपस्थित करने की आवश्यकता है। गान्धी जी के इस द्रष्टिकोण को फिर से अपनाने की आवश्यकता है कि पूँजी का संचयन व्यापक सामाजिक हित के लिये किया जाना चाहिये , कि पूँजी के ऊपर सर्प की भांति बैठे रहना एक भयावह प्रवृत्ति है उसे जन हित के लिये लगाना चाहिये। दुर्भाग्य है कि आज अधिकाँश लोग सरकारी पैसे की चोरी को चोरी ही नहीं मानते हैं। बिजली की चोरी ,टैक्स की चोरी ,सरकारी मैटीरियल की चोरी हमारे जीवन का सहज अंग बन गयी है। ऊपर से लेकर नीचे तक निर्माण विभाग के निश्चित प्रतिशत लिफाफों में बन्द  होकर कुर्सी में बैठे लोगों के पास पंहुँच जाते हैं यह सब कैसे बंद होगा। भ्रष्टाचार रूपी सुरसा का मुँह बढ़ता ही जा रहा है। कई बार तो ऐसा लगने लगता है कि सत्य का थोड़ा -बहुत अंश तो माओ वादी और नक्सलवादियों के साथ भी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि चाँद पर पाये गये खनिजों और शुक्र पर पाये गये शक्ति भण्डारों के लिये चुपके -चुपके नरसंहार की तैयारियां चल रहीं हैं।  कहीं ऐसा तो नहीं कि सहलिंगी सेक्स को स्वीकृत देकर और स्वच्छन्द आचरण को कानूनी जामा पहनाकर हम उन विषाणुओं को बुला रहें हैं जो मानव जाति को ही एक दो पीढ़ियों में समाप्त कर दें।  कहीं ऐसा तो नहीं कि नग्न पूंजी खेल के समर्थक एक ऐसी राजनैतिक व्यवस्था को जन्म दे रहें हैं जहाँ हर समर्थ अपने कमजोर भाई बन्धुओं के घर -बार और बीबियाँ लूट लेगा। अपनी तेज चाल में हमें ठहर कर इस पर सोचना होगा अन्धाधुन्ध रफ़्तार से मोटर साइकिल में बैठे हुये तीन चार गैर जिम्मेवाराना नवयुवक यह नहीं जानते कि म्रत्यु उन्हें अपनी ओर बुला रही है। कहीं मानव जाति यह मानने पर विवश तो नहीं हो रही है कि मानव जाति का कोई उद्देश्य ही नहीं हैं।कि मानव जीवन का आविर्भाव एक निरर्थक घटना है , कि भोग की शक्ति क्षीण होने के बाद जीना एक पाप है , कि वृद्ध जनों को पशु -पक्षियों की भांति समाज से खदेड़कर मरने पर विवश कर दिया जाये। हमें भूलना नहीं चाहिये कि प्रकृति नें पेट की एक सीमा बनायी है। निरन्तर अधिक खाते रहने से हम मृत्यु को ही बुलावा देते हैं। यदि अपने पास आवश्यकता से कुछ अधिक हो तो उसे जरूरत मन्द को देने का सुख ईश्वर आराधना का सा सुख देता है। हमें अपने अर्थशास्त्रियों से एक ऐसी राह दिखाने का अनुरोध है जो खुली रहकर निरन्तर हवादार रास्ते बनाती जाये न कि एक ऐसी राह जो किसी अन्धेरे में जाकर किसी शमशान में जाकर गुम हो जाती हो। मेरी पुकार शीर्ष पर बैठे लोगों तक न भी पहुंचे तो भी मुझे कोई दुःख नहीं है। मेरे ज्ञान नें मुझे जिस सत्य तक पहुँचाया है उसे मैं निरन्तर दोहराता रहूँगा भले ही मेरा विश्वास  आधारहीन हो पर मैं जानता हूँ कि भूल भटक कर मानव जाति भारत के जीवन दर्शन को अपनाकर ही सच्चा जीवन सुख प्राप्त कर सकेगी। भारतीय जीवन दर्शन की तीन प्रमुख बातें हैं -छद्म हीन शत प्रतिशत वित्तीय ईमानदारी , पति -पत्नी सम्बन्ध की अटूट पवित्रता और नैतिक मूल्यों से सन्चालित बौद्धिक या शारीरिक श्रम से अर्जित धन से परिवार का भरण पोषण तथा शिक्षा -दीक्षा। आइये हम मूल्यों के इस त्रिभुज को फिर से अपने आस -पड़ोस खड़ा कर दें। 'माटी 'इस प्रयास में आपके साथ निरन्तर सहयोगी के रूप में काम करेगी। 

1 comment: