Tuesday, 13 November 2012

मोक्ष ,निर्वाण, कैवल्य या दिब्य समाधि की धार्मिक -दार्शनिक धारणायें जीवन सम्पूर्णता को पाने का श्रेष्ठतम मानव प्रयास ही है । पूर्णत्व की संकल्पना विभिन्न सन्दर्भों में परिवर्तन के माध्यम से गुजरती रहती है। श्रष्टि संचालन के पीछे छिपी किसी दिब्य और रहस्यात्मक शक्ति की अवधारणा ने मनुष्य को उत्कर्ष के ऊर्ध्वगामी पथ पर संचालित कर पूर्णत्व प्राप्ति के लिये प्ररित किया है। ऊँचाई की ओर ले जाने वाला यह 
मार्ग सराहनीय और चुनौती भरा तो है पर इसमें मानव अन्तर्मन में रमण कर अद्दभुत आनन्द पाने के सुअवसर भी प्राप्त होते हैं । शब्द को ब्रम्ह इसलिये कहा गया है क्योंकि सार्थक पुकार पर ही परम प्रकृति अपना आश्रय देने के लिये प्रेरित होती है । इसीलिये प्राणवान शब्द शिल्पी स्वयं में किसी दिव्य रहस्य की संभावना छिपाये रहता है । वेद मन्त्र,ऋषियो की ऋचायें और मुनियों के मंत्र, शब्द साधना के वे उच्चतर सोपान हैं जिनपर चढ़कर मानव मन प्रकृति नियमन के पीछे छिपे गूढ़ रहस्यों का आभास पा जाता है । हम सभी जानते हैं कि जो जन्मा है वह जायेगा ही पर जाने का भय यदि निरन्तर मानव को ग्रसता रहे तो वह अकर्मण्यता की गोद में जा बैठता है । इसीलिये मृत से अमृत की ओर जाने की प्रार्थना करते हैं । म्रत्यु के भय को भूल जाना म्रत्यु पर विजय पाना है । भय जब पैनिक विचार बन जाता है तो हाँथ पावँ फुला देता है और बुद्धि बौनी हो जाती है। इसीलिये म्रत्यु का भय शब्द ब्रम्ह की अमृत साधना के द्वारा सकारात्मक रूप ले लेता है और अपने जीवन काल में कुछ ऐसा करने के लिए प्रेरित करता है जो म्रत्त्युन्जय हो। काल के कपाल पर अकाल लेख लिखने की शक्ति जिन महापुरुषों में होती है वे ही म्रत्यु की सर्व जयी विजय यात्रा को चुनौती दे पाते हैं। माटी इसी अम्रत्व की भावना का प्रतीक है।वह सनातन है,शाश्वत है,कालजयी है और निरन्तरता का अमिट सूत्र है।कुम्भकार आते हैं,माटी को रचते,सवांरते हैं।और पात्रों,घटों तक श्रन्गारिकाओं का संयोजन करते हैं।पर घट ,पात्र ,खिलौने और प्रतिकृतियाँ विनिष्ट हो जाती हैं पर माटी तो केवल रूप बदलती है।और इसी द्रष्टि से आत्मा के अमरतत्व का प्रतीक है।संम्भवत :कबीर के इस दोहे में सामान्य अर्थ के अतिरिक्त एक रहस्य पूर्ण अर्थ भी निहित है।"माटी कहे कुम्हार से,तू रौंदत है मोंहि , एक दिन ऐसा आयेगा ,मैं रौदोंगी तोहि।।"पर इन असंख्य कुंम्भ्कारों में कुछ ऐसे शिल्पी भी हैं जिनके हांथों में पड़कर माटी फूली नहीं समाती उन्हें वह रौंदती नहीं बल्कि चन्दन बनकर उन्हें सुशोभित करती है और मानव इतिहास में उनकी विरासत को युगों युगों तक पूज्य ब ना देती है।कब और कहाँ ,कैसे और किस प्रक्रिया से ज्ञान-विज्ञान के छेत्र में कोई युगांतकारी प्रतिभा उभर आयेगी इसका उत्तर न तो अभी ज्योतिष दे पायी है और न ही विश्व की कोई दार्शनिक ब्याख्या। यह अद्दभुत रहस्य ही तो मानव जाति को और संम्भवत :प्रत्येक संकल्पित परिवार को उत्कर्षता की ओर प्रेरित कर सघर्ष रत रखता है।कौन जाने कब कुल परम्परा में कोई भगीरथ आ जाय।

ये सच है कि जन्मजात प्रतिभा पर रहस्यमय आवरण पड़ा रहता है पर यह भी सच है कि यदि जन्मजात प्रतिभा को परिमार्जित कर निखारने का प्रयास न किया जाय तो उसे उन उंचाइयो तक नहीं पहुँचाया जा सकता जिस की संभावनाएं उसमें छिपी होती हैं।साहित्य के छेत्र में या यों कह लें कि ललित कलाओं के छेत्र में शिछ ण और परिमार्जन एक प्रांसंगिक आवश्यकता ही बन पाते हैं पर विज्ञान और तकनीक के छेत्र में उनकी सार्वभौम सार्थकता से इन्कार ही नहीं किया जा सकता।और हमें यह भूलना नहीं चाहिये कि विज्ञान,नाभिकीय गणित और रहस्य भेदक तकनीक भी परम सत्य को पाने का प्रयास ही है।यही कारण है कि विश्व के सभी सभ्य देश शिछा की गुणवत्ता के प्रति अत्यंत सचेत रहते हैं। प्राचीन भारत में उपनिषद काल में हम इस विशेषता का आश्चर्य जनक प्रसार और परिणाम देख पाते । यही कारण है कि उस काल में उस समय के जाने गये ज्ञान -विज्ञान आयामों में भारत ने अपना अददवितीय स्थान बनाया था फिर दिब्य ऊंचाइयों से फिसलन की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई और कुछ छोटे मोटे काल के लिये किसी असाधारण ब्यक्तित्व के आ जाने के कारण कुछ ठहराव भले ही दिखलाई पडा हो पर आखिकार यह फिसलन हमें तलहटी तक ले आयी। पुनर्निर्माण और पुनर्जागरण की नयी श्रष्टि का आधार श्रेष्ठ शिछा का ढांचा ही प्रदान कर सकता है।स्वतंत्रता के प्रारम्भ के दिनों में एक दो प्रतिशत उच्च शिच्छा प्राप्त भारतीय अपने को मात्र पाशचात्य मूल्यों से ही मापते रहे।महात्मा गाँधी के प्रभाव ने उन्हें थोड़ा बहुत देश की माटी के नजदीक खींच कर खड़ा किया पर गाँधी जी के महानिर्वाण के बाद हम फिर कृत्रिम सुगंन्धों में सांस लेने के आदी हो गये।तकनीकी ज्ञान,प्रद्योगकीय,नाभकीय,प्रासार कीय और जैवकीय इन सभी छेत्रों में हमें भारत की उर्वरा धरती से जीवंत तत्त्वों को लेकर उन्हें भारतीयता से महिमा मन्डित करना है।ज्ञान -विज्ञान की यह बहुमुखी विपुल -रूपा शाखायें हमारी अपनी माटी में जड़ें जमाकर जीवन रस पायें और हमारी अपनी समस्याओं का निदान करें यह हमारा प्रयास होना चाहिये।यदि भारत का पाश्चात्यीकरण हमें जीवन मूल्यों और संस्कारों से दूर हटाता है तो हमें उस पाश्चात्यीकरण का भारतीय करण करना होगा।यह एक अत्यन्त दुष्कर कार्य है।हमें इसके लिये गोपाल क्रष्ण गोखले ,रवीन्द्र नाथ ,जगदीश चन्द्र वसु ,सी .वी रमन ,और अब्दुल कलाम जैसे अद्दभुत प्रतिभा संपन्न श्रेष्ठ पुरुषों की आवश्यकता है।भारतीय संस्कृति यह मानती है की प्रभु कृपा के बिना सारे प्रयास प्रात्यासित सफलता तक नहीं पहुचाते इसलिये माटी प्रकृति के नियन्ता शक्तियों के प्रति नत -मस्तक होकर इस प्रयास में रत है की वह श्रेष्ठता के परिवर्धन संशोधन में एक उत्तरदायी भूमिका निभा सके।न तो मानव पूर्ण है और न मानव के प्रयास पर अपनी अपूर्णता में ही पूर्णता के प्रति प्रयास रत रहना जीवन्त संस्कृति का लक्ष होता है पाठकों ,रचनाकारों ,और आलोचकों का त्रिकोणीय सहयोग ही माटी को एक ज्यामितीय आकार प्रदान कर सकेगा ऐसा मेरा विश्वाश है ।

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