Saturday, 17 November 2012


भारत की सांस्कृतिक ..............

                             भारत की सांस्क्रतिक परम्परा और धार्मिक प्राणपरता यह मान कर चलती है की मनुष्य का जीवन प्रभु की एक दुर्लभ देन है ।गोस्वामी जी की इस पंक्ति से तो आप ,हम सब परिचित ही हैं -"बड़े भग्य  मानुस तन पावा।"प्राक्रतिक विज्ञान भी यह मानकर चलता है की मानव अरबों वर्षों की विकास प्रक्रिया का चरम प्रतिफल है।अब यदि मनुष्य होकर भी हम मात्र अपने लिये जीते हैं तो इस जीनें  में और पशु जीवन में अंतर ही क्या ?मुझे चार्ल्स डिकन्स की बहुचर्चित कहानी क्रिसमस कैरल की याद आती है जिसमें एब्ने क्रूज को जब उसके मित्र पावल गोन का भूत मिलता है और उससे अपनी आत्मा की दारुण व्यथा की बात करता है तो एब्ने क्रूज उससे कहता है कि तुम तो एक अत्यन्त सफल व्यापारी थे इस पर ईथर में गूँजता उसके मृत मित्र का उत्तर आता है -कैसा व्यापारी ?मैनें मानव जाति के लिये क्या किया ?मैंने अपने अतिरिक्त दूसरों के लिये क्या कभी त्याग या बलिदान का भाव पाला ।कैसा वैभव ?अपने इन्द्रिय सुख के अतिरिक्त क्या उस वैभव से मैंने वृहत्तर मानव कल्याण की संयोजना की ।
                                                                                            बन्धुओं मानव जीवन निश्चय और अनिश्चय का एक ऐसा समुच्चय है जो विज्ञान की सारी चमत्कारी विशेषताओं के बावजूद अनुत्तरित है ।निश्चय इस लिये जो जन्मा है वह मरेगा अवश्य और अनिश्चय इसलिये कि उस महाप्रयाण की बेला गोधूलि की धुंधलके की  भाँति झिपी -अनझिपी रहती है।यही कारण है कि न जाने कितनी बार महामानव भी चाहते हुए कल की तलाश में बहुत कुछ नहीं कर पाते।हमें याद रखना है कि हमारे पास समय कम है और हमारे संकल्पों के यात्रा अत्यन्त कठिन और एक प्रकार अन्तहीन है।हमारे रास्ते में कितने ही मनमोहक पड़ाव आते हैं जहां रुकने का मन होता है।हम विचलित होते हैं अपने लक्ष्य पद से और सुहावन मरीचकाओं में भटकते हैं।हमें राबर्ट फ्रास्ट की उन अमर पंक्तियों को कभी नहीं भूलना चाहिये जिन्हें पंडित जवाहर लाल नेहरु ने अपनी राइटिंग टेबिल ग्लास के नीचे लगा रखा था।
 "The woods are lovely dark and deep
But I have promises to keep
And miles to go before I sleep
And miles to go before I sleep"
अभी कहाँ आराम बदा,यह मूक निमंन्त्र्ण छलना है ।
अरे अभी तो मीलों मुझको ,मीलों मुझको चलना है ।।
                         बन्धुओ अपने को दूसरों से बड़ा मानने का भाव अहंकार से जन्मता है और अहंकार सामाजिक समर्पण के रास्ते में रूकावट बन कर खड़ा हो जाता है इसलिये यह कहना कि हमारा जीवन अन्य लोगों के मुकाबले में कहीं अधिक स्वच्छ और सुथरा होना चाहिये ,शायद उपदेश की सी बात लगे पर इसमें दो राय नहीं हैं कि भारतवर्ष का लगभग समूचा तन्त्र जाल प्रशासन की भ्रष्ट लाल फीताशाही में फंसा हुआ है ।भ्रष्टाचार मिटाने के न जाने कितने संकल्प शीर्षस्थ पर बैठे राजनीतिज्ञों के किये थे और करते जा रहे थे पर भारत का हर सामान्य नागरिक यह मान कर चल रहा है कि प्रशासन की स्वच्छता एक असंभव उपलब्धि बनती जा रही है।असंभव   को संभव कर दिखाना असाधारण साहस की मांग करता है।उस साहस को उत्पन्न किया जाता है जन चेतना जगाने वाली सामाजिक संस्थाओं ,संगठनों ,क्लबों और प्रकाशनों के द्वारा।अर्नाल्ड ट्वायनबी नोबेल पुरस्कार विजेता इतिहासकार कहते है कि असाधारण जन नायक एक विशिष्ट चेतना से भरी सामाजिक गुणवत्ता के उपज होते हैं।हम इस दिशा में कुछ ठोस कदम उठा सकते हैं।हमारा आचरण ,हमारी भाषा ,हमारा व्यवहार ,हमारी सेवा वृत्ति और हमारी निर्मलता ,क्रांतिकारी चारित्रिक पवित्रता को जन्म दे सकती है।असत्य के खिलाफ भीरु बन कर बैठे रहना,घोर अनाचार के प्रति उदासीन रहना और ऐन्द्रिक कर्दभ में गले तक डूबे रहना भारतीय समाज का अभिशाप हो चुका है।आइये हम अपने भीतर वह शक्ति पैदा करें कि हम किसी भी अनुचित दबाव के आगे नो कहने की हिम्मंत रखें।निहारिकाओं से भरा आकाश हमारा लक्ष्य हो।नाबदान के गलीज में बुद बुद करते कीड़ों को मानव जीवन की अस्मिता का ज्ञान नहीं होता।प्रकाश का दिब्य पुन्ज,पावनता का दिब्य आलोक हमारे
"If winter comes can spring be for behind."
                           आइये हम नये युग के सार्थवाह बने।आइये हम म्रत्यु को ललकारनेचारो ओर व्याप्त है यदि हममें आत्म मन्थन कर उसे पाने की शक्ति है।सभी कुछ परिवर्तनशील है।आज का यह कदाचार,यह तुच्छता ,यह राजनीतिक लम्पटता चिरस्थाई नहीं है।परिवर्तन सनातन है।कविवर पन्त ने परिवर्तन को वर्तुल वासुकिनाद का रूपक देते हुए लिखा है :-
                                         "  शत शत फेनोच्छासित स्फीत फुत्कार भयंकर।
                                           घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अम्बर ।।
                                            विश्व तुम्हारा गरल दन्त कन्चुक कल्पान्तर ।
                                           अखिल विश्व ही विवर ,वक्र कुन्डल दिग मण्डल ।।  
                                           अये वासुकि सहस्त्र फन "
                                          मित्रो मुझे आप भले ही अतिरिक्त आशावादी कहें पर मुझे क्षितिज पर नये प्रभात की अरुणिमा का आभास हो रहा है। "माटी "कल के उस प्रभात की अग्रदूत है ।घोर जाड़े के बाद भी तों  वसन्त          का शुभ आगमन होता है। की हिम्मत पा लें ताकि जो अम्रत है,जो सत्य है ,जो सनातन है ,ऐसा शुद्ध परमार्थ भाव हममें जग सके।मेरा विश्वाश है कि माटी परिवार अपने चरण चिन्हों की ऐसी छाप अपने भू क्षेत्र में छोड़ सकेगा जिसका अनुसरण करके मानव जीवन को उद्देश्य प्राप्ति हो सके।
                                                    "O God !Illumine what is dark in me ."

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