Tuesday, 26 November 2019

                                                       नचिकेता धर्मराज की ड्योढ़ी पर

प्रष्ठभूमि :- लक्ष मुखी यज्ञ पूर्णाहुति के पश्चात भूमण्डलेश्वर वज्र्श्ववा अपना सर्वस्व दान करने में लगे हैं। कंचन ,रजत ,आभूषण ,वस्त्र ,दुधारू तथा स्वस्थ पशु दान में दिये जा चुके हैं। विप्रों की एक कतार अभी भी कुछ पाने को उत्सुक है। अब क्या दिया जाय ?बूढ़े निर्बल पशु ,बाँझ गायें और मृत्तिका पात्र के अतरिक्त शेष ही क्या है?

नचिकेता कथन :-अपने पिता भूमण्डलेश्वर वज्रश्ववा को नचिकेता का प्रणाम स्वीकृत हो। महाराज ,इन निरीह
मरणोन्मुख पशुओं के दान से क्या लाभ। बाँझ धेनुयें तो पाने वालो के लिये बोझा बन जायेंगी। मृत्तिका पात्र तो ले जाने में ही टूट -फूट जायेंगे। आप तो अद्वतीय दानी हैं। दान का महत्त्व तो अपनी सबसे प्यारी वस्तु को दान करने में होता है। यदि वस्तुयें न रहें तो अपने प्रियजनों का दान भी दिया जा सकता है।

वज्रश्ववा :- नचिकेता तुमने अभी -अभी कैश्योर्य छोड़ा है। तुम अभी दान की गहरी बातो को नहीं समझ पाये हो जो कुछ भी अपना है जिस किसी भी चीज में लगाव है उसका सहज भाव से दान करना और उसके वियोग में बिना तरंगायित हुये स्थिर रहना ही दानी की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है।

नचिकेता :- महाराज मैं आपका पुत्र हूँ और आप सदैव कहा करते हैं कि आप मुझे संसार की सभी वस्तुओं और प्राणियों से अधिक प्यार करते हैं। फिर आप मुझे दान में क्यों नहीं देते। बोलिये मुझे किसे दान में देंगें -उकडू स्वामी को या अकडू स्वामी को ?

वज्रश्ववा :- नचिकेता तुमनें अभी मौन का महत्त्व नहीं जाना है। देखता नहीं लेने वालों की पंक्ति में छपड़क जी और फनफड़ जी दोनों ही खड़े हैं। तेरी बड़ -बड़ के कारण वे कहीं तुझे ही न मांग लें।

नचिकेता :- जन्मदाता आप मुझे किसी योग्य पात्र को दीजिये। देना तो पड़ेगा ही । मेरे दान के बिना आपका यज्ञ सम्पूर्ण ही नहीं होगा बोलिये मुझे किसको देते हैं। चुप क्यों हैं -बोलिये न मोह आपको शोभा नहीं देता।

वज्रश्ववा :- (उत्तेजित स्वर में )अच्छा ! तू जिद्द पर अड़ा है। जा मैं तुझे यमराज को दान में देता हूँ।

नचिकेता :- आप धन्य हैं पिताजी। आपने मेरे लिये सर्वथा मोह का त्याग कर दिया। आह ! यम लोक के प्रस्थान के लिये कितनी बड़ी आत्मिक शक्ति आपने मुझे प्रदान कर दी हैं। अब किसमें शक्ति है जो मुझे जाने से वहाँ रोक ले। (और आकाशगामी नचिकेता का शून्य धावन ,बिजली की कौंध .क्षणिक अन्धकार )

नचिकेता :- (स्वगत )आज तीन दिन बीत गये पर अभी तक धर्म अधिष्ठाता के दरबार से दर्शन का बुलावा नहीं आया लगता है महिष पर आरुढ़ होकर म्रत्त्यु देवता १४ लोकों के भ्रमण पर हैं। ( नेपथ्य में कुछ आवाजें आती हैं ) चित्रगुप्त धर्मराज से कहते हैं कि एक युवा ब्राम्हण मेरे बिना बुलाये ही यमलोक की ड्योढ़ी पर आपके दर्शन को खड़ा है। तीन दिन हो गये हैं। कहता है उसके पिता नें उसे यमदेव को दान में दे दिया है। अब उसके पास और कहीं जाने का विकल्प ही नहीं है।

यमराज :- ठीक है मैं भ्रमण पर था पर मुझे यदि बीच में सूचना मिल जाती तो मैं अपने महिष को और द्रुतगामी बनाकर पहले आ सकता था। चित्रगुप्त इन तत्व खोजी ब्राम्हणों का अपमान उचित नहीं होता। लोग बुलाने पर भी मेरे पास आने से कतराते हैं। क्या नाम बताया इसका ,चित्रगुप्त ? नचिकेता : आह बड़ा भब्य नाम है। इस नाम का यही अर्थ है न वो ब्राम्हण जो कभी याचना नहीं करता तभी तो उसे नचिकेता नाम दिया गया है। वह मुझसे मिलने की याचना कर रहा है। साधु -साधु । उसे आदर से बुलाकर मेरे पास लाओ। दो यमदूतों के साथ नचिकेता सर्पाकार आबनूसी सिंहासन पर बैठे हुये यमराज को प्रणाम करते हैं। नचिकेता का तरुण सुन्दर शरीर और उसका दीप्त भाल यमराज को प्रभावित करता है।

यमराज :- तुम्ही हो नचिकेता ? वत्स तुम तो अत्यन्त तेजस्वी लगते हो। इतनी कम उम्र में इतना अधिक साहस तीन दिन तक मेरी प्रतीक्षा में ड्योढ़ी पर बैठे रहे। मैं अत्यन्त प्रसन्न हुआ। हाँ एक दिन की प्रतीक्षा के लिये मैं तुम्हें एक -एक वर देता हूँ। तुम कोई तीन वर मुझसे मांग लो।

नचिकेता :- हे धर्म के अधिष्ठाता , मैं  आपकी प्रसन्नता पा सका इससे अधिक मुझे और क्या चाहिये। जब मैंने आपकी ड्योढ़ी में माथा टिका दिया तो मुझे सांसारिक वरों की आवश्यकता ही नहीं रही। पर मैं आपसे तीन वरों  के बदले में सिर्फ एक भिक्षा माँगता हूँ। आप मुझे म्रत्यु का रहस्य बता दीजिये। मरण और अमरण ,म्रत्यु और अमरत्व इनके बीच क्या अन्तर हैं। और म्रत्यु के अमिट विधान को नकार सकने का क्या कोई उपाय है।

यमराज :- वत्स तुम अभी बहुत छोटे हो। इन प्रश्नों का उत्तर पूछने के लिये तो तीन लोकों में भ्रमण करने वाले नारद जी भी मुझे मिले थे। कहते थे क्षीर सागर से शेष शायी लक्ष्मी पति नें उन्हें इन जिज्ञासाओं के समाधान के लिये मेरे पास भेजा है। पर मैंने यह कहकर टाल दिया कि इन प्रश्नों के उतर के लिये मुझे कई विभागों से सूचनायें और सुझाव इकठ्ठे करने होंगे। नारद जी कह गयें हैं कि वह मार्कण्डेय और अमरत्व प्राप्त शुकदेव तीनो  मेरे पास मिलकर  आयेंगे तब तक हम अपने सारे विभागों से राय मशविरा कर लूँ। वत्स तुम्हारी कच्ची उम्र तुम्हे यह ज्ञान पाने का अधिकार नहीं देती। हाँ तुम चाहो तो तुम्हे कन्चन के ढेर ,हस्ति झुण्डों का अधिकार या अश्व समूहों का निर्देशन सौंप सकता हूँ।

नचिकेता :- देव , मरण आपकी मुठ्ठी में है। और अमरत्व पाने की कुंजी  आपके द्वारा प्रदान की जाने  वाली दार्शनिक द्रष्टि में है । पिताजी द्वारा मैं आपको दे दिया गया हूँ। म्रत्यु के देवता यदि आप मुझे म्रत्यु के बन्धन से मुक्त करते हैं तो हमें अमरत्व की कुन्जी दीजिये।

यमराज :- अरे नचिकेता तू अभी युवा है ,शक्तिशाली है। संसार के सुख भोगने की पूरी क्षमतायें तेरे शरीर में क्रियाशील हैं। देख ऊपर नभ विहार की ओर देख। आकाश गंगा के बीच प्रकाश के झूलों पर झूलती अपार रूप की धनी अप्सरायें तुझे बुला रहीं हैं देख उनमें से कुछ वीणा के सुरों पर और कुछ कुम्भ हस्त चालन द्वारा तुझे अपने पास बुला रहीं हैं। बोल नचिकेता जायेगा मैं तुझे उनके बीच भेज देता हूँ।

नचिकेता :- हे कर्म फलों के निर्णायक मेरे हठ को क्षमा करना मुझे तो आत्मा और अमरत्व का ज्ञान ही  चहिये। देह का कोई भी सुख मुझे अपनी ओर नहीं खीचता। मैं तो मन के प्रबल वेग को भी आत्म सयंमके  द्वारा बाँधने के पक्ष में हूँ।

यमराज :- अच्छा नचिकेता मैं तुझे तेरे पिता के पास वापस भेज देता हूँ\ राज्य कर । धर्म का आचरण कर। सत्य का आचरण कर। संसार बसा। फिर जब म्रत्यु को प्राप्त होगे तब यमलोक में आना। उस समय तुम्हे आत्म ज्ञान पाने का अधिकार होगा।

नचिकेता :- भगवान अब तो मैं आपके पास आ ही गया हूँ।आपके  पास आकर वापस जाना और फिर आपके पास आना तो एक उल्टी -सीधी प्रक्रिया है। आपके  चरणों के पास बैठकर ही आपके बिना कहे ही मुझे सब कुछ समझ में आ जायेगा। भूमि पथों या तारापथों पर जहाँ भी आप जायेगे मैं आपके पीछे -पीछे चलता रहूँगा। (इतना कहकर नचिकेता यमराज के सिंहासन के पास स्थिर चित्त होकर बैठ जाता है। )

यमराज :- आँखे खोलो नचिकेता ,तुम्हे अब नये जीवन का प्रकाश मिल जयेगा। तुम अमरत्व की कुंजी पा सकोगे मैं तुम्हें आत्मा की रहस्य मयी शक्तियों के बारे में बताता हूँ। तुम सचमुच ही देह के बन्धन से मुक्त दिब्य चेतना से संपन्न एक सच्चे जिज्ञासु हो तुम आत्म ज्ञान के अधिकारी हो वत्स। ध्यान से सुनना।
 (यमराज उवाच  )(कठोपनिषद का सार )

देखो नचिकेता ज्ञानी जन इन्द्रिय सुख और आत्म सुख का अन्तर जानते हैं। आनन्द और मनोरंजन इन दोनों में बहुत गहरा अंतर है। आनन्द आत्मा की पुलक भरी अनुभूति है जबकि मनोरंजन सुखेन्द्रियोँ की क्षणिक उत्तेजना है। नचिकेता तुम तो विश्व की कई भाषायें जानते हो इण्डो आर्यन भाषा समूह में एक भाषा अंग्रेजी भी है। उसकी भी शब्द राशि इतनी ही प्रचुर है जितनी संस्कृत की। अंग्रेजी के दो शब्द हैं एक है Happiness और एक है Pleasure दोनों में बड़ा अन्तर है। Happiness आत्मसंतोष और आत्मसुख की टिकाऊ आधारशिला पर खड़ा है। Pleasure मचलती हुई लहरियों की तरह चलायमान धरातल पर स्थित है पर नचिकेता आनन्द की भी कई कोटियाँ हैं। आनन्द से बढ़कर अति आनन्द से होते हुये जब हम परमानन्द पर पहुच जाते हैं तब हमें यह मानव देह निरर्थक ही लगने लगती है। आत्मा का उर्ध्वगामी विहंग उस समय ज्योतित पथ के पार श्रष्टा के चिर आनन्दित प्रकाश पुंज में उड़ जाने के लिये व्याकुल हो जाता है।

नचिकेता :- हे ज्ञान सागर जब आत्मा देह में अविस्थित है तो देह का सुख -दुःख भी तो आत्मा को प्रभावित करता होगा। आपके कथन से लगता है कि देह का गठन आत्मा के निवेश के लिये ही होता है। उसका अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। पर अबूझ पर्वत के ऊपर मेरे राज्य में कमर में बाघम्बर लपेटे एक मुनि मुझे मिले थे।उन्होंने मुझसे कहा थाकि देह और आत्मा के अलग -अलग होने की बातें शब्दों की काब्यात्मक उक्तियाँ हैं। सच पूछो तो देह के बिना तो आत्मा रह ही नहीं सकतीऔर फिर यदि आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व है तो उसे कभी किसी ने देखा जाना क्यों नहीं। न तो किसी ने शरीर में उसका प्रवेश देखा है और न वहिर्गमन। कई बार मुझे मेरे कुल गुरु ने बताया है कि तपश्वी ऋषियों के सिर के ऊर्ध्व भाग से म्रत्त्यु के समय प्रकाश की एक लौ निकलती है और विद्दयुत कौंध के साथ गगन में विलीन हो जाती है। क्या ऐसा ही होता है। आप तो म्रत्यु के देवता हैं आपसे तो कुछ छिपा हुआ नहीं है ।



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