Wednesday 27 November 2019

        मत ,जाति ,वर्ण, नस्ल ,भाषा ,खान -पान ,पहनावा ,जल -वायु ,और भूखण्डीय विभिन्नताओं के बीच भारत का जनतन्त्र  लंगड़ाता -लंगड़ाता लगभग 62 वर्ष पार कर चुका है। कई बार ऐसा लगा कि यह लड़खड़ा  कर गिर जायेगा पर एक छिपी अन्तर शक्ति उसे अब तक चला रही है ।और ऐसा आभाष  होने लगा है कि जनतन्त्र की लड़खडाहट धीरे -धीरे सधे क़दमों में बदल जायेगी। पर किसी भी बहुलता वादी समाज में कुछ वर्ग ऐसे होते हैं जो दूसरे बड़े वर्गों की तुलना में संख्या के आधार पर अपनें में छोटे होनें का भाव जगा लेते हैं। कई बार अपनें को छोटा समझने का यह भाव एक तरह जनतान्त्रिक व्यवस्था से ही उपजता है। क्योकि जनतंत्र का हर निर्णय 51-49 के अनुपात पर निर्भर होता है इसलिये किसी भी समूह का छोटापन उसमें असुरक्षा की भावना पैदा कर देता है| विश्व के राजनीतिक मानचित्र पर हम जब एक नजर डालते है तो हम देखते हैं कि लगभग प्रत्येक महाद्वीप में रंगभेद ,नस्लभेद और अनुष्ठानित मतभेद एक लम्बे काल तक वहां के समाज को विभाजित करते रहें हैं।समाज के विभिन्न वर्गों की यह तनाव पूर्ण स्थिति न जाने कितनी मनोवैज्ञानिक कुंठाओं को जन्म देती है।व्यक्ति कुंठा के साथ सामूहिक कुंठा कई बार उग्र होकर विष्फोटक बन जाती है। तब अन्तर कलह और हिन्सा का खुला या  लुका -छिपा खेल दशकों -दशक चलता रहता है ।आज संसार के सबसे बड़े और सम्पन्न और शक्तिशाली माने जाने वाले संयुक्त राष्ट्र अमरीका ने भी एक लम्बे समय तक रंग भेद और नस्ल भेद की विभीषका झेली है । दक्षिणी अफ्रीका के नेल्सन मण्डेला को महात्मा गान्धी के समकक्ष रखा जाने का अधिकार उन्हें उनके अटूट संघर्ष ने दिया जिसके कारण दक्षिणी अफ्रीका रंग भेद और नस्ल भेद के क्षरण कारी कीटाणुओं से मुक्त हो पाया है।चीन के मंगोलिया प्रखण्ड में भी अलगाव वादी तत्त्वों नें कई हिंसक घटनाओं को अन्जाम दिया है।दक्षिण एशिया ,अफ्रीका तो सामाजिक विभाजन की न जाने कितनी अबूझ विभिन्नताओं से जूझते रहे हैंऔर जूझ रहें हैं।हम जब अपने ब्रिटिश कालीन भारत के मानचित्र पर एक नजर डालते हैं तो हमें आज का अपना स्वतन्त्र भारत एक विखन्डित रूप में दिखाई पड़ता है।यह विखंडन भी अंग्रेजों द्वारा फूट डालो और विभाजित करों वाली कूटनीतिक चाल का ही परिणाम है।विभाजन के बाद भी भारत की गान्धी ,नेहरु की बहुलतावादी मानवीय प्रवृत्ति नें भारत की विभिन्न वर्गों में ताल मेल बिठाने की पूरी कोशिश की है पर ऐसा लगता है कि भारत के हर प्रखण्ड में जो भी अल्प संख्यक वर्ग हैं उनमें अभी तक असुरक्षा की भावना पनप रही है । जम्मू कश्मीर तो स्वतन्त्र भारत के लिये एक कभी न मिटनें वाला सिरदर्द बना ही हुआ है पर गुजरात ,पंजाब ,दिल्ली और असंम जैसे राज्यों की बड़े पैमानों पर हुई हिंसायें भारतीय जनतंत्र के वहुलता वादी चिन्तन पर वदनुमा धब्बों की न जानें कितनी छापें छोड़ गयी हैं। एक गुलाम राष्ट्र कभी भी प्रगति नहीं कर पाता क्योंकि विजेता द्वारा वीत राष्ट्र के निवासियों में हीन ग्रन्थि उपजा देने की पूरी कोशिश की जाती है।पर एक स्वतन्त्र राष्ट्र भी तब तक प्रगति की पूरी रफ़्तार नहीं पाता जब तक उस राष्ट्र के सभी वर्ग असुरक्षा की भावना से सम्पूर्णत : मुक्त न हो जाँय। कितना आश्चर्य है कि जब हम सौर मण्डल को पार कर दूसरी आकाश गंगाओं की खोज में सफल हो रहें हैं और जब चाँद पर सब्जी उगाने की संभावनायें चल रहीं हैं तब भी दुनिया के न जाने कितने देशों में संकीर्ण मत ,नस्ल और आरोपित जीवन पद्धति को लेकर हिसात्मक घटनाओं को अन्जाम दिया जा रहा है।महापुरुषों के वलिदान की गाथाओं को स्कूलों और कालेजों में प्रेरणा देने के लिये प्रस्तावित किया जाता है पर न जाने क्यों यह प्रेरणा पूरी शिक्षा के बाद भी समाज के व्यवहारिक धरातल पर कामगर साबित नहीं हो रही है । ऐसा लगता है कि स्वार्थ का जहरीला कोबरा लुक -छिप कर सभी को दंश मार रहा है। और यह साम्राज्यवादी जहर धीरे -धीरे हमारी धमनियों में बहती रक्त की धारा से अभिन्न रूप से मिल चुका है। तो आइये सोचें कि अब क्या किया जाय?भ्रष्टाचार भारतीय राजनीति का अब सबसे बड़ा मुद्दा है पर मैं समझता हूँ कि साम्प्रदायिक या मजहबी भिन्नता का तनाव किसी भी मायनें में भ्रष्टाचार से कम वजन वाला राजनीतिक बोझ नहीं माना जा सकता।साम्प्रदायिकता के सम्पूर्ण उन्मूलन के लिये कारगर क़ानून बने हुए हैं भले ही भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए सशक्त लोक पाल बिल न बन पाया हो।पर सम्पूर्ण क़ानून संहिता आँसू बहा -बहा कर अपनी लाचारी प्रकट कर रही है और साम्प्रदायिक तत्व शब्दों की मीठी चासनी में जहर घोल कर भारतीय समाज को विषाक्त कर रहे हैं।राष्ट्र रक्षा के लिए अपना सर्वश्व बलिदान करनें वाले सेना के नायक परमवीर और महावीर चक्र से सम्मानित किये जाते हैं।प्रत्येक भारतीय को उनके इस सम्मान पर गर्व होता है।वे सचमुच इस वन्दना के योग्य हैं पर साम्प्रदायिक सदभावना की स्थापना के लिए अपना जीवन निछावर करने वाले परमवीरों की श्रेणी मे खड़ा हो पाना शायेद उतना ही मुश्किल है जितना युद्ध में परमवीर चक्र का पाना और सच कहा जाय तो यह परम वीरत्व युद्ध के परम वीरत्व से भी श्रेष्ठ है ।श्रद्धेय गणेश शंकर विद्यार्थी को मैं इसी परमवीरत्व की आभा से मण्डित पाता हूँ।समूचा राष्ट्र उन्हें प्रेरणा पुरुष के रूप में स्वीकार करते हुए उनके जीवन दर्शन को स्वीकार कर आने वाले भविष्य की श्वर्निम मन्जिलें विनिर्मित कर सकता है। आइये हम सब विनत भाव से इस शताब्दी वर्ष में उस महापुरुषके चरणों के पास स्थान पाने के अधिकारी बननें का प्रयास करें।
                                      शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर वरस मेले ..........
                         सिनेमा का यह गीत आज कितना सार्थक लग रहा है ।
                             

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