स्वप्न सोपान
पण्डित जी का प्रवचन चल रहा था ," जीवन एक सपना है । हम सपनें में न जाने क्या क्या देखते हैं । कहीं आकाश की सैर करते हैं , तो कहीं गहरी घाटियों में घूमते रहते हैं । पर जो सच्चा भक्त है उसे सपनें में भी अपना आराध्य देवता ही दिखायी देता है । राम भक्त को सीता बल्लभ श्री राम दिखायी देते हैं तो वायु पुत्र हनुमान के भक्त को पवन दूत मिल जाते हैं । "
उमाशंकर जी श्रोताओं के बीच बैठे पण्डित जी का प्रवचन सुन रहे थे । अभी कुछ ही महीने पहले एक इण्टर कालेज से हिन्दी प्राध्यापक के रूप में सेवा निवृत्त हुये थे ,शुरू से ही धार्मिक प्रवत्ति के थे और अब रिटायरमेन्ट के बाद पूजा पाठ ,मन्दिर और प्रवचन के अतिरिक्त और रह ही क्या था । अगर विज्ञान ,मैथ्स या अंग्रेज़ी के प्राध्यापक होते तो तो शायद सेवा निवृत्ति के बाद भी कुछ विद्यार्थी पढ़ने के लिये आ जाते पर हिन्दी अध्यापक क पास हिन्दी पढ़ने के लिए कौन आये । उ ० प्र ० में तो सभी अपने को हिन्दी का आधिकारिक विद्वान मानते है और एकाध राजनैतिक पार्टी तो हिन्दी के सार्वभौम साम्राज्य की स्थापना के लिए अंग्रेजी को इतनीं गहरायी से दफनाने के मूड है कि वह फिर कभी अपना सिर न उठा सके । अगर उस पार्टी के सक्रिय सदस्यों से यह कहा जाय कि उनका ऐसा सोचना एक दिवा स्वप्न मात्र है तो शायद वे झुँझला कर धक्का -मुक्की करने लग जायँ । खैर तो बात चल रही थी स्वप्नों की । उमाशंकर जी काफी देर से प्रवचन में बैठे थे पर पण्डित जी का प्रवचन सपनें पर सपनें सजा रहा था । पंडाल में खम्भों के पास बैठे उमाशंकर जी को एक श्रोता के थोड़े से खिसक जाने से खम्भों के और पास आने का मौक़ा मिल गया । उनकी पीठ को खम्भों का सहारा मिला और प्रवचन की नीरसता उन्हें ऊँघ के झोंकें देने लगी । प्रवचन चलता रहा और और उमाशंकर जी सपनों के सागर में डूबते गये ।
उन्हें लगा कि वे कक्षा बारहवीं को हिन्दी पढ़ा रहे हैं । मैथलीशरण गुप्त द्वारा रचित यशोधरा खण्ड काब्य पाठ्य पुस्तक के रूप में निर्धारित हुआ था । उमाशंकर जी ने यशोधरा काब्य के एक बहुचर्चित छन्द की रचना की व्याख्या शुरू की " सखि वे मुझ से कहकर जाते तो क्या वे मुझको अपने पथ की बाधा ही पाते ?
हम्हीं भेज देती हैं रण में
प्राणों को प्राणों के पण में
छात्र धर्म के नाते
सखि वे मुझसे कहकर जाते । "
सिद्धार्थ के रात्रि के अन्धकार में बिना बताये कंथक घोड़े पर सवार होकर सत्य की प्राप्ति के लिये वनगमन की बात करते हुये उन्हें लगा कि घोड़ों के खुरों की आवाज आ रही है और एक झटके से उनकी झपक टूट गयी पण्डित जी का प्रवचन अभी चल रहा था । "अगर सपनें में आपको कोई डरावनी चीज नजर आये तो आप तुरन्त अंजनी पुत्र हनुमान जी का स्मरण करिये । उनके नाम का स्मरण करते ही भूत -पिशाच दूर भाग जाते हैं ।"अब भूत पिशाच दूर भाग जाते हों तो भाग जाते हों पर थके -हारे रिटायर्ड हिन्दी अध्यापक को छोड़कर नींद की निशाचरी भला कहीं भग सकती है ?उमाशंकर जी के एक सुभीता भी था प्रवचन में आँखें बंद हो जाने पर आस -पास के श्रोता उन्हें गहरा ध्यानी ,ज्ञानी समझ सकते थे और झटका खाकर आँख खुलने पर भी यह माना जा सकता था कि उन्हने पण्डित जी के प्रवचन की सराहना में सिर हिलाया है ।
नीन्द की झोंक में फिर एक नया दृश्य । सिद्धार्थ अब तथागत गौतम हो गए हैं । बोधिवृक्ष के नीचे उन्हें जीवन सत्य की उपलब्धि हो गयी है । सारनाथ में आकर उन्होंने अपने शिष्यों की प्रारम्भिक कड़ी का सूत्रपात कर दिया है । संयोगवश वे सभी शिष्य उच्चकुलीन ब्राम्हण हैं । धर्म चक्र का प्रवर्तन हो रहा है । एक जनपद से दूसरे जनपद और फिर जंगल ,नली -नालों को पार करता हुआ आर्याव्रत के पूर्वी भूभाग पर तथागत की अष्टमार्ग की गूँज सुनायी पड़ने लगी है । और यह क्या दमकते चेहरे वाले भिक्खुओं की एक टोली के साथ तथागत कपिलवस्तु की ओर क्यों बढ़ रहे हैं ?क्या महाराज शुद्दोधन ने उन्हें आमंत्रित किया है या वे स्वयं ही अपनीं किसी भूल के लिये क्षमाँ प्रार्थी होने जा रहे हैं ? तो क्या गुप्त जी की काब्य पँक्ति " सखि वे मुझ से कहकर जाते ।" ने तथागत पर भी अपना प्रभाव दिखा दिया है ?
पण्डित जी ने अपना प्रवचन समाप्ति की ओर बढ़ाते हुये कहा ,"आँखों का देखा भी सच नहीं होता और कानों का सुना भी सच नहीं होता ।" सच तो केवल अन्तरतम में है बाकी सब सपना है इसके बाद उन्होंने रामचरित मानस की सहस्त्रों बार दोहरायी जाने वाली " उमा कहहुँ मैं अनुभव अपना ,सत हरि भजन जगत सब सपना ।"और उमाशंकर जी का सपना चल चित्र की भांति नये -नये दृश्य प्रस्तुत कर रहा था ।
यह क्या नगर के कोटे के मुख्य द्वार पर नंगें पैर महाराज शुद्धोधन अपनी अमात्य मण्डली के साथ खड़े हैं । पिता पुत्र को प्रणाम कर रहा है और मुक्त हथेली मुद्रा में पुत्र उन्हें स्वास्ति का वरदान दे रहा है । तथागत महल की ओर देखते हैं । राजघराने की सभी सम्मानीय स्त्रियां तथागत के दर्शन और उनके आशीर्वाद पाने के लिये खड़ी हैं । पर यशोधरा कहाँ है ? और राहुल भी तो दिखायी नहीं पड़ता एक नन्हें शिशु के रूप में वे उसे छोड़ कर गये थे । अब तो वह काफी बड़ा हो गया होगा । क्या माँ ने उसे दादा के साथ नगर प्राचीर के मुख्य द्वार नहीं भेजा ।
स्वर्गीय शान्ति जिसकी दैवीय मुख मुद्रा पर विराज रही थी उसमें सह्रदय चिन्तन की एकाध लकीर पड़ती दिखायी दी , हाँ माननीय तो वह सदा से थी, सत्य की उपलब्घि पाने का मेरा दंभ्भ एक कोरा दंभ्भ ही है । क्योंकि मान -अपमान का भाव तो अभी तक मेरे मन में उठता है । यशोधरा का मान तो एक ठोस आधार पर खड़ा है । पर मेरा अमिताभ होने का अभिमान कहीं सामान्य जन की प्रशंसा के कारण तो नहीं फल -फूल रहा है ?नहीं नहीं मुझे स्वयं यशोधरा के द्वार पर जाना होगा । उसके कक्ष के द्वार तक जाने वाले मार्ग के कण कण से मैं परिचित हूँ । खिलखिलाती चांदनीं रातों की कितनीं ही बसन्ती वयारें हम दोनों को स्पर्श कर वहां बहती रही हैं । लो यशोधरा मैं तथागत बुद्ध तुम्हारे द्वार पर स्वयं भिक्षा के लिये आता हूँ । क्षमाँ की भिक्षा दे सकोगी न यशोधरे ?
चकित भिख्खुओं ने देखा कि तथागत अन्तः पुर की ओर जाने वाले एक मार्ग की ओर डग बढ़ा कर चल पड़े हैं । कक्ष के द्वार पर श्वेत नील कमलों का गुच्छक लिये पलक -पावड़े बिछाये यशोधरा खड़ी है । आओ मेरे भाग्य विधाता !भारतीय सांस्कृतिक परम्परा के महानतम गौरव तुम्हें पाकर मेरा नारित्व धन्य हुआ । यशोधरा प्रणत हो आपका पद वन्दन करती है । उसे निर्वाण प्रदान करें महापुरुष । ज्ञान प्राप्ति के बाद पहली बार बुद्ध को लगा कि शब्द उनका साथ नहीं दे रहे हैं फिर वे बोले यशोधरे मैं तो भिखु हूँ भिक्षा नहीं दोगी ? यशोधरा ने पीछे मुड़कर इंगित किया और किशोर राहुल आकर पिता के चरणों में नतमस्तक हो गया । यशोधरा ने कहा ," भगवन मेरे पास और है ही क्या ? आपका दिया हुआ राहुल ही तो है इसे ही आपको देती हूँ । स्वीकारिये ।"
................ पण्डित जी की कथा समाप्त हो चुकी थी लोग उठने लगे थे । लोगों के उठने की हलचल ने उमाशंकर जी के स्वप्न में कुछ नया मोड़ ला दिया । उन्होंने देखा कि शुद्धोधन ,पुत्र ,पुत्रबधू और पौत्र के पास आकर खड़े हुये हैं । उन्होंने वापस आने को तत्पर तथागत से विनत स्वर में कहा कि वे एक वरदान माँगना चाहते हैं । गौतम ने कहा कि वे तो स्वयं भिक्खु हैं । दूसरों को कल्याण कामना के अतिरिक्त और क्या सकते हैं । शुदोधन ने कहा नहीं सिध्दार्थ यह वरदान तो तुम्हें अपने पिता को देना ही होगा ।
" बोलो! शुद्धोधन ने कहा आगे कोई भी किशोर या नवयुवक माता -पिता की आज्ञा के बिना आपके धर्म समाज का भिक्खु न बने यह वर देकर आप मुझे कृतार्थ करें । राहुल को भी मुझसे छीनकर सिद्धार्थ मेरे बेटे , तुमनें मुझे तृणवत जीवन समुद्र की लहरों पर छोड़ दिया है । ऐसा और किसी के साथ न हो । तथागत बोले पिता श्री सिद्धार्थ का प्रणाम स्वीकार करें । तथागत को सदैव इस बात का गर्व रहेगा कि शुद्धोधन जैसे प्रज्ञा पुरुष ने उन्हें धरती पर आने का सौभाग्य दिया था । भिक्खुओं की टोली में राहुल शामिल हो गया । एक समवेत स्वर गूँजा ।
" बुद्धम् शरणम् गच्छामि ,
संघंम शरणम् गच्छामि
धम्मम शरणम् गच्छामि । "
उमाशंकर जी चौंक कर खड़े हो गये अरे यह क्या सभी लोग खड़े हैं । आरती हो रही है । अरे यह तो हनुमान जी की आरती है ।
" आरति कीजै हनुमान लला की
दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ।"
धत्त तेरी की । तो क्या मैं स्वप्न देख रहा था ?मैनें स्वयं सूर्य के समान प्रकाशित महाप्रभु अमिताभ के दर्शन किये । उमाशंकर जी ने अभी तक कभी आरती में चवन्नी भी नहीं डाली थी पर आज उन्हें न जाने क्या हो गया उन्होंने एक रुपये का बिल्कुल नया चमकता हुआ सिक्का आरती में डाल दिया । आरती के बाद पण्डित जी के पास गये और उनके प्रवचन की भूरि -भूरि प्रशंसा की । अगर आप उमाशंकर जी से मिलना चाहें तो उनका पता नीचे दिया जा रहा है .................
पण्डित जी का प्रवचन चल रहा था ," जीवन एक सपना है । हम सपनें में न जाने क्या क्या देखते हैं । कहीं आकाश की सैर करते हैं , तो कहीं गहरी घाटियों में घूमते रहते हैं । पर जो सच्चा भक्त है उसे सपनें में भी अपना आराध्य देवता ही दिखायी देता है । राम भक्त को सीता बल्लभ श्री राम दिखायी देते हैं तो वायु पुत्र हनुमान के भक्त को पवन दूत मिल जाते हैं । "
उमाशंकर जी श्रोताओं के बीच बैठे पण्डित जी का प्रवचन सुन रहे थे । अभी कुछ ही महीने पहले एक इण्टर कालेज से हिन्दी प्राध्यापक के रूप में सेवा निवृत्त हुये थे ,शुरू से ही धार्मिक प्रवत्ति के थे और अब रिटायरमेन्ट के बाद पूजा पाठ ,मन्दिर और प्रवचन के अतिरिक्त और रह ही क्या था । अगर विज्ञान ,मैथ्स या अंग्रेज़ी के प्राध्यापक होते तो तो शायद सेवा निवृत्ति के बाद भी कुछ विद्यार्थी पढ़ने के लिये आ जाते पर हिन्दी अध्यापक क पास हिन्दी पढ़ने के लिए कौन आये । उ ० प्र ० में तो सभी अपने को हिन्दी का आधिकारिक विद्वान मानते है और एकाध राजनैतिक पार्टी तो हिन्दी के सार्वभौम साम्राज्य की स्थापना के लिए अंग्रेजी को इतनीं गहरायी से दफनाने के मूड है कि वह फिर कभी अपना सिर न उठा सके । अगर उस पार्टी के सक्रिय सदस्यों से यह कहा जाय कि उनका ऐसा सोचना एक दिवा स्वप्न मात्र है तो शायद वे झुँझला कर धक्का -मुक्की करने लग जायँ । खैर तो बात चल रही थी स्वप्नों की । उमाशंकर जी काफी देर से प्रवचन में बैठे थे पर पण्डित जी का प्रवचन सपनें पर सपनें सजा रहा था । पंडाल में खम्भों के पास बैठे उमाशंकर जी को एक श्रोता के थोड़े से खिसक जाने से खम्भों के और पास आने का मौक़ा मिल गया । उनकी पीठ को खम्भों का सहारा मिला और प्रवचन की नीरसता उन्हें ऊँघ के झोंकें देने लगी । प्रवचन चलता रहा और और उमाशंकर जी सपनों के सागर में डूबते गये ।
उन्हें लगा कि वे कक्षा बारहवीं को हिन्दी पढ़ा रहे हैं । मैथलीशरण गुप्त द्वारा रचित यशोधरा खण्ड काब्य पाठ्य पुस्तक के रूप में निर्धारित हुआ था । उमाशंकर जी ने यशोधरा काब्य के एक बहुचर्चित छन्द की रचना की व्याख्या शुरू की " सखि वे मुझ से कहकर जाते तो क्या वे मुझको अपने पथ की बाधा ही पाते ?
हम्हीं भेज देती हैं रण में
प्राणों को प्राणों के पण में
छात्र धर्म के नाते
सखि वे मुझसे कहकर जाते । "
सिद्धार्थ के रात्रि के अन्धकार में बिना बताये कंथक घोड़े पर सवार होकर सत्य की प्राप्ति के लिये वनगमन की बात करते हुये उन्हें लगा कि घोड़ों के खुरों की आवाज आ रही है और एक झटके से उनकी झपक टूट गयी पण्डित जी का प्रवचन अभी चल रहा था । "अगर सपनें में आपको कोई डरावनी चीज नजर आये तो आप तुरन्त अंजनी पुत्र हनुमान जी का स्मरण करिये । उनके नाम का स्मरण करते ही भूत -पिशाच दूर भाग जाते हैं ।"अब भूत पिशाच दूर भाग जाते हों तो भाग जाते हों पर थके -हारे रिटायर्ड हिन्दी अध्यापक को छोड़कर नींद की निशाचरी भला कहीं भग सकती है ?उमाशंकर जी के एक सुभीता भी था प्रवचन में आँखें बंद हो जाने पर आस -पास के श्रोता उन्हें गहरा ध्यानी ,ज्ञानी समझ सकते थे और झटका खाकर आँख खुलने पर भी यह माना जा सकता था कि उन्हने पण्डित जी के प्रवचन की सराहना में सिर हिलाया है ।
नीन्द की झोंक में फिर एक नया दृश्य । सिद्धार्थ अब तथागत गौतम हो गए हैं । बोधिवृक्ष के नीचे उन्हें जीवन सत्य की उपलब्धि हो गयी है । सारनाथ में आकर उन्होंने अपने शिष्यों की प्रारम्भिक कड़ी का सूत्रपात कर दिया है । संयोगवश वे सभी शिष्य उच्चकुलीन ब्राम्हण हैं । धर्म चक्र का प्रवर्तन हो रहा है । एक जनपद से दूसरे जनपद और फिर जंगल ,नली -नालों को पार करता हुआ आर्याव्रत के पूर्वी भूभाग पर तथागत की अष्टमार्ग की गूँज सुनायी पड़ने लगी है । और यह क्या दमकते चेहरे वाले भिक्खुओं की एक टोली के साथ तथागत कपिलवस्तु की ओर क्यों बढ़ रहे हैं ?क्या महाराज शुद्दोधन ने उन्हें आमंत्रित किया है या वे स्वयं ही अपनीं किसी भूल के लिये क्षमाँ प्रार्थी होने जा रहे हैं ? तो क्या गुप्त जी की काब्य पँक्ति " सखि वे मुझ से कहकर जाते ।" ने तथागत पर भी अपना प्रभाव दिखा दिया है ?
पण्डित जी ने अपना प्रवचन समाप्ति की ओर बढ़ाते हुये कहा ,"आँखों का देखा भी सच नहीं होता और कानों का सुना भी सच नहीं होता ।" सच तो केवल अन्तरतम में है बाकी सब सपना है इसके बाद उन्होंने रामचरित मानस की सहस्त्रों बार दोहरायी जाने वाली " उमा कहहुँ मैं अनुभव अपना ,सत हरि भजन जगत सब सपना ।"और उमाशंकर जी का सपना चल चित्र की भांति नये -नये दृश्य प्रस्तुत कर रहा था ।
यह क्या नगर के कोटे के मुख्य द्वार पर नंगें पैर महाराज शुद्धोधन अपनी अमात्य मण्डली के साथ खड़े हैं । पिता पुत्र को प्रणाम कर रहा है और मुक्त हथेली मुद्रा में पुत्र उन्हें स्वास्ति का वरदान दे रहा है । तथागत महल की ओर देखते हैं । राजघराने की सभी सम्मानीय स्त्रियां तथागत के दर्शन और उनके आशीर्वाद पाने के लिये खड़ी हैं । पर यशोधरा कहाँ है ? और राहुल भी तो दिखायी नहीं पड़ता एक नन्हें शिशु के रूप में वे उसे छोड़ कर गये थे । अब तो वह काफी बड़ा हो गया होगा । क्या माँ ने उसे दादा के साथ नगर प्राचीर के मुख्य द्वार नहीं भेजा ।
स्वर्गीय शान्ति जिसकी दैवीय मुख मुद्रा पर विराज रही थी उसमें सह्रदय चिन्तन की एकाध लकीर पड़ती दिखायी दी , हाँ माननीय तो वह सदा से थी, सत्य की उपलब्घि पाने का मेरा दंभ्भ एक कोरा दंभ्भ ही है । क्योंकि मान -अपमान का भाव तो अभी तक मेरे मन में उठता है । यशोधरा का मान तो एक ठोस आधार पर खड़ा है । पर मेरा अमिताभ होने का अभिमान कहीं सामान्य जन की प्रशंसा के कारण तो नहीं फल -फूल रहा है ?नहीं नहीं मुझे स्वयं यशोधरा के द्वार पर जाना होगा । उसके कक्ष के द्वार तक जाने वाले मार्ग के कण कण से मैं परिचित हूँ । खिलखिलाती चांदनीं रातों की कितनीं ही बसन्ती वयारें हम दोनों को स्पर्श कर वहां बहती रही हैं । लो यशोधरा मैं तथागत बुद्ध तुम्हारे द्वार पर स्वयं भिक्षा के लिये आता हूँ । क्षमाँ की भिक्षा दे सकोगी न यशोधरे ?
चकित भिख्खुओं ने देखा कि तथागत अन्तः पुर की ओर जाने वाले एक मार्ग की ओर डग बढ़ा कर चल पड़े हैं । कक्ष के द्वार पर श्वेत नील कमलों का गुच्छक लिये पलक -पावड़े बिछाये यशोधरा खड़ी है । आओ मेरे भाग्य विधाता !भारतीय सांस्कृतिक परम्परा के महानतम गौरव तुम्हें पाकर मेरा नारित्व धन्य हुआ । यशोधरा प्रणत हो आपका पद वन्दन करती है । उसे निर्वाण प्रदान करें महापुरुष । ज्ञान प्राप्ति के बाद पहली बार बुद्ध को लगा कि शब्द उनका साथ नहीं दे रहे हैं फिर वे बोले यशोधरे मैं तो भिखु हूँ भिक्षा नहीं दोगी ? यशोधरा ने पीछे मुड़कर इंगित किया और किशोर राहुल आकर पिता के चरणों में नतमस्तक हो गया । यशोधरा ने कहा ," भगवन मेरे पास और है ही क्या ? आपका दिया हुआ राहुल ही तो है इसे ही आपको देती हूँ । स्वीकारिये ।"
................ पण्डित जी की कथा समाप्त हो चुकी थी लोग उठने लगे थे । लोगों के उठने की हलचल ने उमाशंकर जी के स्वप्न में कुछ नया मोड़ ला दिया । उन्होंने देखा कि शुद्धोधन ,पुत्र ,पुत्रबधू और पौत्र के पास आकर खड़े हुये हैं । उन्होंने वापस आने को तत्पर तथागत से विनत स्वर में कहा कि वे एक वरदान माँगना चाहते हैं । गौतम ने कहा कि वे तो स्वयं भिक्खु हैं । दूसरों को कल्याण कामना के अतिरिक्त और क्या सकते हैं । शुदोधन ने कहा नहीं सिध्दार्थ यह वरदान तो तुम्हें अपने पिता को देना ही होगा ।
" बोलो! शुद्धोधन ने कहा आगे कोई भी किशोर या नवयुवक माता -पिता की आज्ञा के बिना आपके धर्म समाज का भिक्खु न बने यह वर देकर आप मुझे कृतार्थ करें । राहुल को भी मुझसे छीनकर सिद्धार्थ मेरे बेटे , तुमनें मुझे तृणवत जीवन समुद्र की लहरों पर छोड़ दिया है । ऐसा और किसी के साथ न हो । तथागत बोले पिता श्री सिद्धार्थ का प्रणाम स्वीकार करें । तथागत को सदैव इस बात का गर्व रहेगा कि शुद्धोधन जैसे प्रज्ञा पुरुष ने उन्हें धरती पर आने का सौभाग्य दिया था । भिक्खुओं की टोली में राहुल शामिल हो गया । एक समवेत स्वर गूँजा ।
" बुद्धम् शरणम् गच्छामि ,
संघंम शरणम् गच्छामि
धम्मम शरणम् गच्छामि । "
उमाशंकर जी चौंक कर खड़े हो गये अरे यह क्या सभी लोग खड़े हैं । आरती हो रही है । अरे यह तो हनुमान जी की आरती है ।
" आरति कीजै हनुमान लला की
दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ।"
धत्त तेरी की । तो क्या मैं स्वप्न देख रहा था ?मैनें स्वयं सूर्य के समान प्रकाशित महाप्रभु अमिताभ के दर्शन किये । उमाशंकर जी ने अभी तक कभी आरती में चवन्नी भी नहीं डाली थी पर आज उन्हें न जाने क्या हो गया उन्होंने एक रुपये का बिल्कुल नया चमकता हुआ सिक्का आरती में डाल दिया । आरती के बाद पण्डित जी के पास गये और उनके प्रवचन की भूरि -भूरि प्रशंसा की । अगर आप उमाशंकर जी से मिलना चाहें तो उनका पता नीचे दिया जा रहा है .................
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