Saturday, 13 October 2018

         जन्माष्टमी पूजन
      चारो ओर से घनी वृक्षावलियों से घिरा अभ्यारण्य के मध्य में मानव श्रम द्वारा स्वच्छ सपाट किया हुआ एक विस्तृत मैदान । मैदान के दाहिने पार्श्व में छोटे छोटे कृषि क्षेत्र जिनमें शालियों की क्यारियाँ लगी हुयी हैं । मैदान के बायें पार्श्व में स्वस्थ हरे -भरे फलदार वृक्षों की चार पंक्तियाँ । आम ,जामुन ,बिल्वफल ,और अमरूद के वृक्ष । बीच -बीच में केले की पाँति जिनमें लम्बी लम्बी गौहरें लटक रही हैं । कुछ खुले में और कुछ पेड़ों के नीचे मिट्टी की सजी- बजी पीठिकायें बनी हैं मैदान के उत्तरी भाग में एक साफ़- सुथरी मिट्टी , लकड़ी और तृण आच्छादित तीन कक्षों  की कुटी । कुटी के साथ खुले में तीन -चार श्वेत श्याम धनुयें और उनसे कुछ दूर बंधें धेनु  वत्स । कुटी के पीछे मिट्टी की दीवारों के ऊपर बांस की पट्टिकाओं पर लम्बी घास और विशालकाय पेंड़ की  पत्तियों से ढका हुआ छप्पर जहाँ रात्रि में विद्यार्थी विश्राम करते हैं । छप्पर को संभ्भालनें वाली दीवारों में बने आलो में अरण्डी तेल भरे दीपक ।
                               आचार्य सन्दीपन की बहुचर्चित पाठशाला जहाँ हर वर्ण का प्रवेश योग्यता के आधार पर सुनिश्चित । गोधूलिबेला ।
                                    आचार्य सन्दीपन का कुटी में प्रवेश । आचार्य तरुणायी के दौर में हैं । काले लहराते बाल ,प्रशस्त भाल ,कंचन जैसा पीताभ गौर वर्ण ,काष्ठ पादुकाओं पर आचार्य के पद ,अधोवस्त्र और सिरोवस्त्र से विभूषित ,कुटी में प्रवेश करते ही सहचारिणी पत्नी को सम्बोधित करते हुये कहते हैं ," सुभागे  अन्धेरा होने वाला है । अन्य सभी छात्र शयनशाला में आ गये हैं पर वासुदेव श्रीकृष्ण और तपस्वी प्रभुपद  पुत्र सुदामा अभी तक दिखायी नहीं पड़े । तुमनें उन्हें किसी काम के लिये भेजा था । ,तीसरे पहर से ही बरसात हो रही है । कहीं भटक भूल तो नहीं गये ,सुदामा का शरीर तो वैसे भी दुर्बल है । अति वृष्टि उसे नहीं झेलनी चाहिये ।
सुभागा :-आर्य पुत्र ,पाकशाला की लकड़ियाँ लगभग समाप्त प्राय थीं । श्रीकृष्ण पुष्ट देह का परिश्रमी और  आज्ञाकारी आपका प्रिय शिष्य है । मैनें उसे बन में गिरी हुयी सूखी लकड़ियाँ इकट्ठा करके लाने को कहा था । उसके आग्रह पर उसके साथ के लिये मैनें तपस्वी प्रभु पद के पुत्र को भी उसके साथ भेज दिया था । आते ही होंगें ।
सन्दीपन :-आर्ये ,दूर जंगल में भटकते -भटकते उन्हें क्षुधा की अनुभूति भी तो  हो रही होगी । तुमनें उन्हें थोड़े भुने हुये शष्य कण दे दिये हैं न ?
सुभागा :-आचार्य आप तो जानते ही हैं कि गुरु माता होने के नाते मुझे आपके हर शिष्य का ध्यान रखना होता है ।  कृष्ण तो आगे चला गया था सुदामा को इससे पहले कि दौड़ कर कृष्ण के साथ पहुँचे मैंने अपने पास बुला लिया था और काफी सारे भुनें हुये चनें उसे देकर कह दिया था कि भूख लगने पर दोनों मिल कर खा लें ।
सन्दीपन :- स्वस्ति , आप निश्चय ही आदर्श गुरुमाता हैं ।
                            दो पास -पास खड़े विशाल वृक्षों के तनों  में बने कोटरों में श्रीकृष्ण और सुदामा बैठे हैं । घटाटोप  अन्धकार और अविरल वर्षा बूँदों के बीच के तने की कोटरों में सिकुड़े -सहमें बैठे हैं । एक दूसरे को देख नहीं पाते पर बात -चीत के लिये स्वर ऊँचा कर एक दूसरे को साहस बँधा रहे हैं । श्रीकृष्ण जी सुदामा से कहते हैं कि उन्हें गहरी भूख लग आयी है । पेड़ों की पत्तियों की घनी  छाँह में सूखी लकड़ियों का एक बड़ा गट्ठर पड़ा है । उसे आस -पास की घास फूस बटोर कर बड़ी चतुरायी से ढक दिया गया है ताकि वह अधिक गीला न हो सके । भूमि पर एक प्रस्तर रख कर उसके ऊपर उसे रखा गया है । इस सारे श्रम में सुदामा की देंन  ना के बराबर है शरीर से दुर्बल होने के कारण श्रीकृष्ण उसे स्वयं कड़े काम से दूर रखते हैं । हाँ उसके साथ बातचीत में उन्हें एक पवित्रता का आभाष होता है । वे जानते हैं कि सुदामा के पिता तपस्वी प्रभुपद के पास आर्थिक साधनों की कमी है । सुदामा गुरुकृपा से ही इस आश्रम में  शिक्षा पा रहा है । वर्षा और तेज हो जाती है । तेज हवा के झोंकें ठंडक की लहर फैलाने लगते हैं । कंप -कंपी लगने लगती है । श्रीकृष्ण जी फिर आवाज ऊँची कर सुदामा से कहते हैं कि भूल हो गयी, साथ में कुछ भुना या उबला शष्य लाना चाहिये था । सुदामा उन्हें नहीं बताते कि उनके पास गुरुपत्नी के दिये हुये भुनें हुये चनें हैं । उन्हें भी गहरी भूख लगी है । न जाने कब वर्षा बन्द होगी । उनके अपने पेंड के तने का कोटर काफी छोटा है । उसमें पुष्ट श्रीकृष्ण नहीं बैठ पायेंगें । एक बार उनके मन में आता है कि उठकर श्रीकृष्ण के कोटर में चले जायँ ,चनें चबाने की इच्छा तीब्र हो रही है फिर सोचते हैं कि चलो हम आधा चना चबाये लेते हैं । बाकी आधे चनें वर्षा बन्द होने पर श्रीकृष्ण जी को दे देंगें । झोली से चनें निकालकर मुँह में डालते हैं । दांतों से चबाने पर कट -कट की आवाज होती है । श्रीकृष्ण जी कट -कट की आवाज सुनते हैं । उन्हें कुछ शक होता है ।
श्रीकृष्ण :-अरे मित्र यह कट -कट करके क्या चबा रहे हो ? क्या गुरुमाता ने कुछ खाने को दिया था । सुदामा संकोच में पड़ जाते हैं । उन्हें याद आता है कि गुरुमाता ने स्पष्ट आदेश दिया था कि दोनों मिलकर साथ -साथ खाना । बड़ी चूक हो गयी । क्षुधा की आतुरता ने उन्हें बेचैन कर दिया फिर सोचा कि मेरे मन में कोई खोट तो थी नहीं, मैं तो आधे चनें मित्र कृष्ण को देने की सोचता  ही था पर यदि वह जान गया कि मैं चने खा रहा हूँ और वह भी  बिना उसके  बताये तो शायद उसका मन खिन्न हो जाय और क्या पता बात ही बात में गुरुमाता को भी बता दे । अब तो यही ठीक है मैं उसको बताऊँ ही नहीं कि गुरुमाता ने उसे चने दिये  हैं। अब तो कुछ चने बचाने भी नहीं हैं । सभी को चबा लेना ही अच्छा होगा । फिर सुदामा के मन में एक प्रश्न उठा श्रीकृष्ण शरीर और मस्तिष्क दोनों ही द्रष्टियों से सब छात्रों में सर्वोत्तम हैं कहीं उसने यह आभाष पा लिया हो कि मेरे पास खाने की कोई  सामग्री है । कुछ रूककर सुदामा ने फिर भुनें चने मुँह में डाले । कोशिश की कि कट -कट का शब्द न हो पर बीच -बीच में कुछ दाने कड़े होते थे और उन्हें तोड़ने के लिये दाँतों की चोट लगानी होती थी । थोड़ी -बहुत कट -फट की आवाज तो आनी ही थी ।
श्री कृष्ण :-मित्र सुदामा तू तो कभी झूठ नहीं बोलता । मैंने तो कई बार झूठ भी बोल दिया है । कहीं ऐसा तो नहीं कि तू कुछ खा रहा हो  और मुझसे छिपाने की कोशिश कर रहा हो । सुदामा ने आगे अधिक पूछ ताछ न हो इसलिये जो जवाब दिया उस जवाब ने श्रीकृष्ण को चुप कर दिया ।
सुदामा :-श्रीकृष्ण तुम सम्पन्न घराने से हो, ऐसे घरों में झूठ का स्तेमाल किया जाता है । मैं गरीब ब्राम्हण पुत्र हूँ झूठ बोलना मेरे कुल का स्वभाव नहीं हैं।  लीलाधर श्रीकृष्ण ने कभी भी गुरुगृह में इस बात को प्रकट नहीं किया कि सुदामा ने चने खाकर पुरानी झोली पेंड़ के पास ही फेंक दी थी । जिसे वह अगले दिन जब सूखी लकड़ी का गट्ठर उठाने गया था उठा लाया था और गुरुमाता को दे दिया था । गुरुमाता ने उससे पूँछा था कि चने अच्छे भुने थे न तो वासुदेव पुत्र ने सिर हिला कर स्वीकृति दी थी । और कहा था ,"हाँ मातु ,आपके हाथ का छुआ अन्न तो देवताओं को भी धन्य कर देता है । आपके दिये ये चने भारत के इतिहास के स्वर्ण पृष्ठों पर चर्चित होंगें । \

No comments:

Post a Comment