दिव्य -नूपुर
अब कहूँ हर सांस मेरी बस तुम्हीं से सार्थक है
या कि तुमको घेर कर ही स्वप्न मेरे सज रहे हैं ,
बस तुम्हारी देह में भूगोल सिमटा है हमारा
या कि स्वर में बस तुम्हारे दिव्य नूपुर बज रहे हैं |
तो कथन कौटिल्य- पन्थी चाल होगा छद्म -मुद्रा
काव्य -सुषमा रिक्त शब्दों से सजाया जाल केवल ,
गूँज प्राणों की न उसके दिव्य पुलक -प्रसार देगी
झिलमिला सा झूठ ,बंचक जीव -हीना चाल केवल |
इसलिये कवि धर्म मेरा सत्य कहनें पर विवश है
जानता हूँ मोह भ्रम का तोड़ना अन्याय है ,
इंद्रधनुषी रंग पर नभ पर कहाँ टिकना सदा को
सत्य से ही जूझना है अन्य कौन उपाय है ?
आज भी तुम नभ परी सी ज्योति बसना लग रही हो
आज भी तुम रूप दीपित महकता मधुमास हो ,
आज भी तुम पुष्प -धन्वा सहचरी सी कान्ति मण्डित
रक्त का संगीत ,सरगम सजी प्राणोल्लास हो |
आज भी जग के चरण तुम तक पहुँच कर ठहर जाते
आज भी मुस्कान मारक यन्त्र का संधान है ,
आज भी पग चाप में लाखों नयन अटके हुये हैं
भौंह की हल -चल अभी भी मन्त्र कीलित वाण है |
पर न जानें क्यों मुझे यह लग रहा है रुष्ट मत हो ,
देह में किसके सिमट कर बैठता संसार है ?
राह को अवरुद्ध कर जो बैठता पाषाण सा ,
वह पठारी दंम्भ है ,पर वह कहाँ का प्यार है ?
राह जानें दो धरा के छोर तक मुक्त -कामी
नाग पाशी गुंजलक लघुता जनित अभिशाप है ,
रूप की सत्ता जगत कल्याण -है -युग कर्म है
धार की नव श्रष्टि -रचना ,अमृत शीतल ताप है |
राह तुम तक जा ठहर थमती नहीं अब ऊर्जस्वित
शत सहस बाहें पसारे दूर नभ तक फैलती है ,
घेर लेती है सितारों को परिधि में ,धरा आतुर
अंकुरित ,पुलकित ,प्रसारित दश दिशा में छैलती है |
कल तुम्हारा रूप सीमा बन खड़ा था ऐ मृगेक्षिण
कल तुम्हारे द्वार ही इतिहास का रथ आ रहा था
कल तुम्हीं हेलेन ,तुम्हीं कमला ,तुम्हीं थीं क्लियोपाट्रा
कल तुम्हें ही तो विजय की माल मैं पहरा रहा था |
आज पर मन नें नयी गहराइयों को छू लिया है
आज सागर नीर पर कृमि -कीट घोल लहर रहा है ,
सहस पग ले आज भस्मासुर बना निर्वन्ध निर्भय
आज भूषण बन प्रदूषण -केतु लहर -फहर रहा है |
स्वर्ग सांचों में ढली अनगिनत देहें पुष्प कलियाँ
व्यास के तट पर वितस्ता तीर पर हर रोज जलती ,
काम रूपी कल्पना से कलित जादू की पुतलियाँ
अर्थिओं के बोझ से दब ,मरण -डग भर रोज चलती |
मृत्यु और विनाश के भीषण भयावह दौर में
रूप की मादक सुरा पी बहकना अपराध है ,
कल तलक तुम तक पहुंचना जिन्दगी का लक्ष्य था
आज पर जग तक पहुंचना जिन्दगी की साध है |
मत समझना नेत्र -शर पैनें नहीं हैं अब तुम्हारे
मत समझना रूप की लौ अब तुम्हारी लच गयी है ,
मत समझना चाँदनीं तुमसे सुहावन बन गयी है
मत समझना सृष्टि कोई और सुन्दर रच गयी है |
आज भी तुम नभ परी सी ज्योतिवसना लग रही हो
आज भी तुम रूप दीपित महकता मधुमास हो
पर -मृत्यु और विनाश के भीषण भयावह दौर में
रूप की मादक सुरा पी बहकना अपराध है |
कल -तलक तुम तक पहुंचना जिन्दगी का लक्ष्य था
आज पर जग तक पहुंचना जिन्दगी की साध है |
अब कहूँ हर सांस मेरी बस तुम्हीं से सार्थक है
या कि तुमको घेर कर ही स्वप्न मेरे सज रहे हैं ,
बस तुम्हारी देह में भूगोल सिमटा है हमारा
या कि स्वर में बस तुम्हारे दिव्य नूपुर बज रहे हैं |
तो कथन कौटिल्य- पन्थी चाल होगा छद्म -मुद्रा
काव्य -सुषमा रिक्त शब्दों से सजाया जाल केवल ,
गूँज प्राणों की न उसके दिव्य पुलक -प्रसार देगी
झिलमिला सा झूठ ,बंचक जीव -हीना चाल केवल |
इसलिये कवि धर्म मेरा सत्य कहनें पर विवश है
जानता हूँ मोह भ्रम का तोड़ना अन्याय है ,
इंद्रधनुषी रंग पर नभ पर कहाँ टिकना सदा को
सत्य से ही जूझना है अन्य कौन उपाय है ?
आज भी तुम नभ परी सी ज्योति बसना लग रही हो
आज भी तुम रूप दीपित महकता मधुमास हो ,
आज भी तुम पुष्प -धन्वा सहचरी सी कान्ति मण्डित
रक्त का संगीत ,सरगम सजी प्राणोल्लास हो |
आज भी जग के चरण तुम तक पहुँच कर ठहर जाते
आज भी मुस्कान मारक यन्त्र का संधान है ,
आज भी पग चाप में लाखों नयन अटके हुये हैं
भौंह की हल -चल अभी भी मन्त्र कीलित वाण है |
पर न जानें क्यों मुझे यह लग रहा है रुष्ट मत हो ,
देह में किसके सिमट कर बैठता संसार है ?
राह को अवरुद्ध कर जो बैठता पाषाण सा ,
वह पठारी दंम्भ है ,पर वह कहाँ का प्यार है ?
राह जानें दो धरा के छोर तक मुक्त -कामी
नाग पाशी गुंजलक लघुता जनित अभिशाप है ,
रूप की सत्ता जगत कल्याण -है -युग कर्म है
धार की नव श्रष्टि -रचना ,अमृत शीतल ताप है |
राह तुम तक जा ठहर थमती नहीं अब ऊर्जस्वित
शत सहस बाहें पसारे दूर नभ तक फैलती है ,
घेर लेती है सितारों को परिधि में ,धरा आतुर
अंकुरित ,पुलकित ,प्रसारित दश दिशा में छैलती है |
कल तुम्हारा रूप सीमा बन खड़ा था ऐ मृगेक्षिण
कल तुम्हारे द्वार ही इतिहास का रथ आ रहा था
कल तुम्हीं हेलेन ,तुम्हीं कमला ,तुम्हीं थीं क्लियोपाट्रा
कल तुम्हें ही तो विजय की माल मैं पहरा रहा था |
आज पर मन नें नयी गहराइयों को छू लिया है
आज सागर नीर पर कृमि -कीट घोल लहर रहा है ,
सहस पग ले आज भस्मासुर बना निर्वन्ध निर्भय
आज भूषण बन प्रदूषण -केतु लहर -फहर रहा है |
स्वर्ग सांचों में ढली अनगिनत देहें पुष्प कलियाँ
व्यास के तट पर वितस्ता तीर पर हर रोज जलती ,
काम रूपी कल्पना से कलित जादू की पुतलियाँ
अर्थिओं के बोझ से दब ,मरण -डग भर रोज चलती |
मृत्यु और विनाश के भीषण भयावह दौर में
रूप की मादक सुरा पी बहकना अपराध है ,
कल तलक तुम तक पहुंचना जिन्दगी का लक्ष्य था
आज पर जग तक पहुंचना जिन्दगी की साध है |
मत समझना नेत्र -शर पैनें नहीं हैं अब तुम्हारे
मत समझना रूप की लौ अब तुम्हारी लच गयी है ,
मत समझना चाँदनीं तुमसे सुहावन बन गयी है
मत समझना सृष्टि कोई और सुन्दर रच गयी है |
आज भी तुम नभ परी सी ज्योतिवसना लग रही हो
आज भी तुम रूप दीपित महकता मधुमास हो
पर -मृत्यु और विनाश के भीषण भयावह दौर में
रूप की मादक सुरा पी बहकना अपराध है |
कल -तलक तुम तक पहुंचना जिन्दगी का लक्ष्य था
आज पर जग तक पहुंचना जिन्दगी की साध है |
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