फ्रांस के किसी दार्शनिक लेखक नें भारत की औपनिषदिक विशेषताओं का उल्लेख करते हुये एक मनोरंजक कहानी का हवाला दिया है | वह लिखता है कि उसे काशी का एक चिन्तन शील ब्राम्हण मिला | जिसनें बातों ही बातों में उससे कहा कि यदि वो इस धरती पर जन्म न लेता तो कितना अच्छा होता | फ्रेन्च दार्शनिक नें पूछा , ' ऐसा क्यों ?' ब्राम्हण नें उत्तर दिया कि वह पिछले 40 वर्षों से शास्त्रों का अध्ययन कर रहा है | वह जानता है कि उसकी नर काया भौतिक तत्वों से बनी है पर उसे यह समझ में नहीं आता कि ये भौतिक तत्व किस प्रकार उसके मन में विचारों का सृजन करते हैं | उसनें आगे कहा मुझे इतना भी ज्ञान नहीं है कि जिस सहज भाव से मैं चल लेता हूँ या जिस आमाशयी प्रक्रिया से मेरा खाना हजम होता है ठीक वैसी ही कोई समझ में आ जानें वाली प्रक्रिया मेरी विचारधारा को संचालित करती है | जिस तरीके से मैं अपनें हाँथ से कोई वस्तु सहज भाव से उठा लेता हूँ क्या उसी प्रकार मेरा मष्तिष्क भी सहज भाव से किसी विचार को पकड़ लेता है | मैं मष्तिष्क की गहराइयों पर बड़े -बड़े व्याख्यान देता हूँ और सुननें वाले भले ही प्रभावित हो जांय पर बोल लेनें के बाद मैं स्वयं ही भ्रमित हो जाता हूँ और मुझको अपनेँ कहे हुये पर शर्म आनें लगती है | अब भला मैं मन की शान्ति कहाँ से लाऊँ | काश इस धरती पर मेरा जन्म न होता !
फ्रेन्च दार्शनिक नें आगे लिखा है कि उसी दिन उसनें उस चिन्तन शील ब्राम्हण से करीब 50 गज की दूरी पर एक घर में रहनें वाली माथे पर तिलक लगाये एक नारी से बात की | दार्शनिक नें उससे पूछा क्या कभी उसनें यह सोचा है कि उसकी आत्मा क्या उन्हीं तत्वों से बनी है जिनसे उनका शरीर | दार्शनिक लिखता है कि उस स्त्री नें उसके प्रश्न को समझ ही नहीं पाया | उस स्त्री नें अपनें सारे जीवन में इस प्रकार के प्रश्नों पर विचार ही नहीं किया था | वे प्रश्न जो चिन्तन शील ब्राम्हण को 40 वर्षों से तंग कर रहे थे उस स्त्री के लिये बेमानी थे | वो तो भगवान विष्णु के दस अवतारों में अटल विश्वास रखती थी और आचमन के लिये यदि उसे थोड़ा सा गंगाजल हथेली पर मिल जाय तो तो वह अपनें को संसार की सबसे सुखी स्त्री समझती थी | इस नारी से मुलाक़ात करनें के बाद फ्रेन्च दार्शनिक लौटकर फिर उस चिन्तनशील ब्राम्हण के पास गया और बोला पण्डित जी , ' आपसे 50 गज की दूरी पर जो तिलकधारी स्त्री रहती है उसने अपने को कभी भी मैटर और सोल के प्रश्नों में नहीं उलझाया | वह कितना सन्तुष्ट और सुखी जीवन जी रही है और एक हैं आप जो व्यर्थ की मानसिक अशान्ति मोल ले रहे हैं |
चिन्तन शील ब्राम्हण नें कहा , " फिरंगी दार्शनिक आप ठीक कहते हैं | हजारों बार मैनें सोचा है कि मैं भी वैसा ही प्रसन्न रहूँ जैसी वो तिलक धारी नारी देह | पर तब मुझे ऐसा लगा है कि मुझे वैसा ही मूर्ख भी होना होगा | मैं इतनी बड़ी मूर्खता मोल लेकर प्रसन्नता की गोद में नहीं जाना चाहता | मानसिक चिन्तन से उत्पन्न अशान्ति ही मेरा आभूषण है | ब्राम्हण अस्मिता की यह पहचान है | फ्रान्स के उस दार्शनिक नें लिखा है कि चिन्तनशील ब्राम्हण के इस उत्तर नें उसे एक ऐसी दिव्य आन्तरिक द्रष्टि प्रदान की जो उसे किन्हीं पश्चिमी धर्मग्रन्थों में नहीं मिल [पायी थी |
तो मष्तिष्क में जिज्ञासाओं का जन्म और उसके सन्तोषजनक उत्तर पाने के प्रयास सभ्य मानव की विरासत हैं | इनसे मुक्ति पानें का अर्थ है पशुओं जैसा सहज दिखनें वाला अज्ञान भरा जीवन | चिन्ता नहीं करनी है पर चिन्तन अवश्य करना है ,गूढ़ से गूढ़तम ,सूक्ष्म से सूक्ष्मतम चिन्तन की प्रक्रिया मष्तिष्क के अपार अपरिचित विस्तार से न जानें कितनें मणिं -माणिक खोजकर ले आती है | सर्वविदित है कि हर काया समान नहीं होती ठीक वैसे ही हर मष्तिष्क समान नहीं होता | पर जिस प्रकार मानव काया की संरचना के कुछ सामान्य नियम हैं वैसे ही मष्तिष्क के संरचना के भी कुछ सामान्य आधार मिल सकते हैं | मानव काया पर भी लाखों वर्षों के विकास क्रम की लुप्त प्राय छापें देखी जा सकती हैं | उसी प्रकार मानव मष्तिष्क में भी लाखों वर्षों से चिन्तन विकास को निरन्तरता के सूत्र तलाशे जा सकते हैं | शक्ति सत्ता और सुख उपभोग के अनेकानेक प्रयोगों के बाद अब मानव जाति Democracy के विश्वव्यापी प्रयोगों को अपनानें की ओर अग्रसर है | हजारों वर्ष पहले यह प्रयोग छोटे स्तर पर सीमित क्षेत्रों में किये गये थे | तब उनके रूप में आज जैसी समरसता नहीं थी पर मूल रूप से वे जनतान्त्रिक प्रयोग ही थे | आज का विश्व घूम फिर कर उन प्रयोगों को परिवर्धित , परिपोषित कर समस्त विश्व में लगू करना चाह रहा है | इस दिशा में आधुनिक मानव सभ्यता नें निश्चय ही आश्चर्यजनक उपलब्धियां प्राप्त की हैं | योरोपियन और अमेरिकन डिमोक्रेसीज तो सफल प्रयोग हैं हीं भारत का 70 वर्ष पुराना जनतान्त्रिक प्रयोग भी काफी कुछ सफल माना जा सकता है | यद्यपि उसके कुछ दुर्बल पक्ष भी उभर कर आये हैं | गहन चिन्तन के द्वारा ही इन दुर्बलताओं का निराकरण किया जा सकता है | अज्ञानी तिलकधारी पुजारिन की भांति इस भ्रम में डूबे रहना कि जो व्यवस्था चल रही है वही ठीक है हमें लक्षित ऊँचाइयों तक नहीं पहुंचा सकती |
सृष्टि में कितनी विभिन्नता है यह हम सभी जानते हैं | इसे सृष्टिकार का कौशल कहें या प्रकृति का रहस्यात्मक खेल कि जंगम श्रष्टि में जीवन संघर्ष का निर्दयी खूनी खेल प्रत्येक क्षण अनवरत गति से चलता रहता है | धरती ,समुद्र और आकाश सभी जगह कोई जीवन किसी जीवन का भक्षण कर रहा है और स्वयं किसी अन्य का भक्ष्य बन रहा है | मानव सभ्यता नें ही इस दिशा में कुछ प्रतिबन्ध लगा सकने में कुछ सफलता पायी है | चार्वाक नें तो कहा ही था , ' कि मैं आकाश में पतंग , धरती पर चारपायी और समुद्र में जलतरी को छोड़कर सभी कुछ खा सकता हूँ | ' उसनें भी विद्वान दार्शनिक होनें के नाते , धरती पर मनुष्य के खानें की बात नहीं कही पर अब तो आज मानव मानव को खा रहा है | याद करिये निठारी के उस राज कुमार कोली को जो बच्चों को फुसलाकर उन्हें मार कर पका कर उनका मांस खाया करता था और जिसनें एक नारी को भोगकर उसे पकाकर खा डाला | खैर तो छोड़िये मनुष्य के रूप में इस घिनौनें पशु का स्मरण और आइये हम जंगल में डिमोक्रेसी के संम्बन्ध में एक कहानी पर विचार करें |
कहते हैं मानव नें अपनी प्रारभ्भिक अवस्था में जब जंगलों को काटना प्रारभ्भ किया और जंगल में रहने वाले प्राणियों को अपनी हिंसा भरी भूख का शिकार बनाया तो जंगल के जानवरों नें सामूहिक रूप से मानव के हिंसक प्रयासों को रोकनें के लिये एक विचार मंच आयोजित किया | आखिर आदमी भी तो मिल -जुल कर कबीलायी भाई -चारे के डोरों से बंधकर जंगल पर जंगल विजय पाते जा रहे थे | उन दिनों बहुत विशाल जंगल रहते होंगें | साफ़ सुथरी भूमि तो बहुत ही कम रही होगी पर प्रारम्भिक आदि मानव के हाँथ में जब कुल्हाड़ा आ गया तो जंगल पर जंगल साफ़ होनें लगे | घने जंगल के बीच जानवरों की सभा में गजराज को प्रधान चुनकर सभा आयोजित हुयी | श्रगाल राज नें प्रस्ताव रखा कि जंगल सभी का है और सभी को इसमें रहनें का बराबरी का अधिकार मिलना चाहिये | लोमड़ मामा नें भी इसका समर्थन किया | खरगोशों के सरदार नें अपनी पतली आवाज की सीटी बजाते हुये यह बताया कि छोटे -बड़े सभी बराबर हैं | कुदरत नें हम सबको बनाया है | आखिर आदमियों की कौम में भी तो कोई लम्बा है तो कोई नाटा , कोई बहुत मोटा है तो कोई सींकिया है ,कोई काला है तो कोई गेंहुंआ है | कोई ललौंछ है तो कोई पीताभ | कुछ लोगों के बाल हमारे पूँछ के नोक जैसे घुंघराले हैं और कुछ के ऐसे लम्बे जैसे सिंह महराज के अयाल | खरगोश की इस बात की बहुत सराहना हुयी और सभी सभा में उपस्थित वन्य प्राणियों नें ताली बजाकर इन बातों का अनुमोदन किया | ताली बजाते समय जब सिंह राज नें अपने पंजे को देखा तो उसके मन में एक विचार कौंध गया | उसने गजराज से कुछ कहनें की अनुमति मांगीं | गजराज नें उनका उठा हुआ पंजा देख लिया था और उन्हें अनुमति तो देनी ही थी | सिंह राज ने कहा राजा खरगोश की बात बहुत पायेदार है | सभी कुछ पंजों पर ही खड़ा होता है | पंचायत का मतलब ही है पंजों का बोलबाला | मैं खरगोश राज से कहूंगा कि वे अपना पंजा दिखावें | मैं आप सबको अपना पंजा दिखाता हूँ ,यह कहकर सिंह राज दहाड़े और जंगली जानवरों की पंचायत एक दूसरे को कुचलती हुयी भाग खड़ी हुयी | क्या पता शायद इसी कहानी के बल पर भारतीय जनतन्त्र में किसी राजनैतिक पार्टी ने पंजे को अपना निशान बना लिया है | सिंह राज की बात आ गयी तो बहुत पहले का एक चुनावी नारा दिमाग में कौंध गया | नारे को कृपया किसी राजनैतिक प्रचार से जोड़कर न देखें | उसके शब्दों की संगीतमयता और उसके अर्थ की गहनता की ओर ध्यान दें |
' एक शेरनी सौ लंगूर ,चिक मगलूर ,चिक मगलूर | ' चलिये छोड़िये इन हल्की -फुल्की बातों को | मिल जुलकर थोड़ा कुछ गहन चिन्तन कर लें | आखिर सकारात्मक चिन्तन ही तो किसी समस्या के समाधान की ओर ले जाता है |
हमारी आज की जम्हूरियत कई मायनों में एक लचड़पचड़ क़ानून की व्यवस्था ही कही जा सकती है | हर एक वयस्क नर -नारी को वोट का अधिकार है यह हमारी जम्हूरियत का सबसे सबल पक्ष है पर अंधविश्वास ,अशिक्षा ,घोर गरीबी और गर्दन तोड़ महगाई झेलनें वाला भारत का लगभग दो तिहायी जनसमुदाय यूनिवर्सल फ्रैन्चाइजी के अधिकार को एक छलावे भरी चाल से अधिक कुछ नहीं मानता | और है भी तो यह एक छलावा ही | सपनों की सौदागरी | जाति -पाँति का मिथकीय , लुभावनी तकनीकी प्रगति का मायाजाल | क्षेत्रीय पहचानों का महाकाव्यीय विस्तार | यही कारण है कि आजादी के संग्राम के महानायकों के महाप्रयाण के बाद सारा भारत क्षेत्रीय भूखण्डों में बटकर जीवन और मरण के बीच में पड़ा है | अपंग होकर भी वह जीवित है और जिजीविषा लेकर भी वह मरणोन्मुख है | भिन्न -भिन्न राज्यों की गलियों ,मुहल्लों और प्रखण्डों में घूम फिर कर मुश्किल से हमें कुछ ही भारतीय या हिन्दुस्तानी मिल पाते हैं | हम तिलंग हैं , हम मराठे हैं , हम बंगाली हैं , हम पंजाबी हैं ,हम कश्मीरी हैं , हम बुन्देलखण्डी हैं ,हम झारखण्डी हैं ,हम उड़िया हैं ,हम असमियाँ हैं पर शायद हम सच्चे अर्थों में हिन्दुस्तानी नहीं | हम जाट हैं , हम अहीर हैं ,हम गूजर हैं , हम जाटव हैं , हम राजपूत हैं , हम जांगड़ हैं , हम रांगण हैं ,हम मुखर्जी हैं ,हम मिश्रा हैं , हम शेख हैं , हम सैय्यद हैं ,हम कुंजड़ा हैं ,हम चिकवा हैं पर शायद ही हम हिन्दुस्तानी हैं | और तो और अगर हम हिन्दुस्तानी हैं तो क्या हम भारतीय भी हैं और अगर हम भारतीय भी हैं तो क्या हम हिन्दुस्तानी भी हैं ?
मदर मेरी को साड़ी पहनाकर गोद में शिशु लेकर जाते हुये दिखनें पर भी क्या वे भारतीयों की श्रद्धा पा सकेंगीं ? मसीह की सेवा में निरत न जानें कितने पादरी स्वयं ही इस प्रकार के परिवर्तन का विरोध करते दिखायी पड़ रहे हैं | स्पष्ट है कि भारतीय जनतन्त्र सच्चे अर्थों में भारतीय जनता को अपनें पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं कर सका है | भारत का सर्वोच्च न्यायालय तो यहां तक कह चुका है कि शायद भगवान भी इस देश में उचित न्याय व्यवस्था लागू नहीं कर पायेंगें |
ऐसा उसनें इसलिये कहा क्योंकि कितने ही सांसद चुनाव हार जानें के बाद भी सरकारी बंगले और निवास स्थान नहीं छोड़ते और क़ानून उन्हें ऐसा करने में अपनें को लचर पाता है | जिस जनतन्त्र में सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश भी व्यवहारिक रूप न ले सके जन -तन्त्र की गौरव गाथा को मात्र शब्द आडम्बर ही कहा जायेगा तो सोचिये क्या आत्म पवित्रता का भारत की आज की राजनीति में कोई अर्थ रह गया है ? " हम्माम में हम सब नंगे हैं " यह कहकर राजनीतिक पार्टियां सच्चायी से दूर भागनें की कोशिश कर रही हैं | पर काल का अहेरी अपनी कमान पर तीर चढ़ाये ठीक समय का इन्तजार कर रहा है | शर- विद्ध पक्षी की भांति अपनी काल्पनिक ऊंचाई में उड़ते हुये अधिकाँश भ्रष्ट और भ्रमित जन -प्रतिनिधि लुंज -पुंज होकर माटी में लोटते दिखायी पड़ेंगें |
गहन चिन्तन करने पर हम यह पाते हैं कि आज के भारत में सदाचार ,ज्ञान और त्याग का कोई अर्थ नहीं रह गया है | अब तो ऐसा लगनें लगा है कि दुष्ट ,दुराचारी , आततायी , और आतंकी हुये बिना राजनीति में सफलता पायी ही नहीं जा सकती | ग्राम पंचायत से लेकर राज्य की विधान सभाओं और केन्द्रीय संसद में भी जघन्य अपराधों के षड्यन्त्रकारी और विधाता बैठे दिखायी पड़ते हैं | तब क्या किया जाय ? एक मार्ग तो यह है कि हम मानव जन्मों की अनवरत श्रंखला में विश्वास करें | यह मान लें कि हमारे अच्छे कर्मों का फल इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में या फिर उससे अगले जन्म में मिलेगा | भारतीय चिन्तन का मूल स्वर आस्तिकता का रहा है | हम मानते हैं कि स्रष्टा का न्याय सम्पूर्ण और ब्रम्हाण्डीय विवेक पर आधारित है | हम मानते हैं कि अन्याय से पोषित वृत्तासुर , दशानन , और कंस निश्चय ही एक दिन राख के ढेर बनकर वायु में उड़ जायेंगें | सदाचारी रहकर भी, सद्पथ पर चल कर भी ,मूल्य आधारित जीवन जी कर भी ,प्रतिभा पुत्र होकर भी जब हमें आज की सामाजिक ,राजनीतिक व्यवस्था में सम्माननीय स्थान नहीं मिल पाता तो हमारा चिन्तन माओ ,चे गवेरा , Fidel Castro,और प्रचण्ड की ओर देखने लगता है | पर हमें अंग्रेजी की इस कहावत में पूरा विश्वास करना होगा कि , ' Wheels of Justice grind slowly but grind surely." बापू तभी तो कहा करते थे , " It is only through pure means that ideal results can be attained , " और अब कहीं -कहीं दिखायी तो पड़ने लगा है कि कुछ मन्त्री , आई ० ए०एस और आई ० पी ० एस ० अधिकारी , कुछ सर्विस सेलेक्शन बोर्ड्स के सदस्य और कुछ सांसद और विधायक जेल की सलाखों के पीछे खड़े हैं | ऊषा की कुछ किरणें ही आने वाले प्रभात का आभाष देती हैं | हमें भारतीय आस्तिक दर्शन के अनुगर्मियों और चिन्तकों को ईश्वरीय न्याय की अटलता और सर्वोच्चता में विश्वास रखना ही होगा | इस मार्ग पर चलनें में हमें जो भी मिले सफलता -असफलता , सुख -दुःख , राग -विराग , जीवन -मृत्यु , उसे हमें हंस -हंस कर वरण करना होगा | यह वरण ही समाधिस्थ योगी की प्रसन्नता हमें दे पायेगा |
फ्रेन्च दार्शनिक नें आगे लिखा है कि उसी दिन उसनें उस चिन्तन शील ब्राम्हण से करीब 50 गज की दूरी पर एक घर में रहनें वाली माथे पर तिलक लगाये एक नारी से बात की | दार्शनिक नें उससे पूछा क्या कभी उसनें यह सोचा है कि उसकी आत्मा क्या उन्हीं तत्वों से बनी है जिनसे उनका शरीर | दार्शनिक लिखता है कि उस स्त्री नें उसके प्रश्न को समझ ही नहीं पाया | उस स्त्री नें अपनें सारे जीवन में इस प्रकार के प्रश्नों पर विचार ही नहीं किया था | वे प्रश्न जो चिन्तन शील ब्राम्हण को 40 वर्षों से तंग कर रहे थे उस स्त्री के लिये बेमानी थे | वो तो भगवान विष्णु के दस अवतारों में अटल विश्वास रखती थी और आचमन के लिये यदि उसे थोड़ा सा गंगाजल हथेली पर मिल जाय तो तो वह अपनें को संसार की सबसे सुखी स्त्री समझती थी | इस नारी से मुलाक़ात करनें के बाद फ्रेन्च दार्शनिक लौटकर फिर उस चिन्तनशील ब्राम्हण के पास गया और बोला पण्डित जी , ' आपसे 50 गज की दूरी पर जो तिलकधारी स्त्री रहती है उसने अपने को कभी भी मैटर और सोल के प्रश्नों में नहीं उलझाया | वह कितना सन्तुष्ट और सुखी जीवन जी रही है और एक हैं आप जो व्यर्थ की मानसिक अशान्ति मोल ले रहे हैं |
चिन्तन शील ब्राम्हण नें कहा , " फिरंगी दार्शनिक आप ठीक कहते हैं | हजारों बार मैनें सोचा है कि मैं भी वैसा ही प्रसन्न रहूँ जैसी वो तिलक धारी नारी देह | पर तब मुझे ऐसा लगा है कि मुझे वैसा ही मूर्ख भी होना होगा | मैं इतनी बड़ी मूर्खता मोल लेकर प्रसन्नता की गोद में नहीं जाना चाहता | मानसिक चिन्तन से उत्पन्न अशान्ति ही मेरा आभूषण है | ब्राम्हण अस्मिता की यह पहचान है | फ्रान्स के उस दार्शनिक नें लिखा है कि चिन्तनशील ब्राम्हण के इस उत्तर नें उसे एक ऐसी दिव्य आन्तरिक द्रष्टि प्रदान की जो उसे किन्हीं पश्चिमी धर्मग्रन्थों में नहीं मिल [पायी थी |
तो मष्तिष्क में जिज्ञासाओं का जन्म और उसके सन्तोषजनक उत्तर पाने के प्रयास सभ्य मानव की विरासत हैं | इनसे मुक्ति पानें का अर्थ है पशुओं जैसा सहज दिखनें वाला अज्ञान भरा जीवन | चिन्ता नहीं करनी है पर चिन्तन अवश्य करना है ,गूढ़ से गूढ़तम ,सूक्ष्म से सूक्ष्मतम चिन्तन की प्रक्रिया मष्तिष्क के अपार अपरिचित विस्तार से न जानें कितनें मणिं -माणिक खोजकर ले आती है | सर्वविदित है कि हर काया समान नहीं होती ठीक वैसे ही हर मष्तिष्क समान नहीं होता | पर जिस प्रकार मानव काया की संरचना के कुछ सामान्य नियम हैं वैसे ही मष्तिष्क के संरचना के भी कुछ सामान्य आधार मिल सकते हैं | मानव काया पर भी लाखों वर्षों के विकास क्रम की लुप्त प्राय छापें देखी जा सकती हैं | उसी प्रकार मानव मष्तिष्क में भी लाखों वर्षों से चिन्तन विकास को निरन्तरता के सूत्र तलाशे जा सकते हैं | शक्ति सत्ता और सुख उपभोग के अनेकानेक प्रयोगों के बाद अब मानव जाति Democracy के विश्वव्यापी प्रयोगों को अपनानें की ओर अग्रसर है | हजारों वर्ष पहले यह प्रयोग छोटे स्तर पर सीमित क्षेत्रों में किये गये थे | तब उनके रूप में आज जैसी समरसता नहीं थी पर मूल रूप से वे जनतान्त्रिक प्रयोग ही थे | आज का विश्व घूम फिर कर उन प्रयोगों को परिवर्धित , परिपोषित कर समस्त विश्व में लगू करना चाह रहा है | इस दिशा में आधुनिक मानव सभ्यता नें निश्चय ही आश्चर्यजनक उपलब्धियां प्राप्त की हैं | योरोपियन और अमेरिकन डिमोक्रेसीज तो सफल प्रयोग हैं हीं भारत का 70 वर्ष पुराना जनतान्त्रिक प्रयोग भी काफी कुछ सफल माना जा सकता है | यद्यपि उसके कुछ दुर्बल पक्ष भी उभर कर आये हैं | गहन चिन्तन के द्वारा ही इन दुर्बलताओं का निराकरण किया जा सकता है | अज्ञानी तिलकधारी पुजारिन की भांति इस भ्रम में डूबे रहना कि जो व्यवस्था चल रही है वही ठीक है हमें लक्षित ऊँचाइयों तक नहीं पहुंचा सकती |
सृष्टि में कितनी विभिन्नता है यह हम सभी जानते हैं | इसे सृष्टिकार का कौशल कहें या प्रकृति का रहस्यात्मक खेल कि जंगम श्रष्टि में जीवन संघर्ष का निर्दयी खूनी खेल प्रत्येक क्षण अनवरत गति से चलता रहता है | धरती ,समुद्र और आकाश सभी जगह कोई जीवन किसी जीवन का भक्षण कर रहा है और स्वयं किसी अन्य का भक्ष्य बन रहा है | मानव सभ्यता नें ही इस दिशा में कुछ प्रतिबन्ध लगा सकने में कुछ सफलता पायी है | चार्वाक नें तो कहा ही था , ' कि मैं आकाश में पतंग , धरती पर चारपायी और समुद्र में जलतरी को छोड़कर सभी कुछ खा सकता हूँ | ' उसनें भी विद्वान दार्शनिक होनें के नाते , धरती पर मनुष्य के खानें की बात नहीं कही पर अब तो आज मानव मानव को खा रहा है | याद करिये निठारी के उस राज कुमार कोली को जो बच्चों को फुसलाकर उन्हें मार कर पका कर उनका मांस खाया करता था और जिसनें एक नारी को भोगकर उसे पकाकर खा डाला | खैर तो छोड़िये मनुष्य के रूप में इस घिनौनें पशु का स्मरण और आइये हम जंगल में डिमोक्रेसी के संम्बन्ध में एक कहानी पर विचार करें |
कहते हैं मानव नें अपनी प्रारभ्भिक अवस्था में जब जंगलों को काटना प्रारभ्भ किया और जंगल में रहने वाले प्राणियों को अपनी हिंसा भरी भूख का शिकार बनाया तो जंगल के जानवरों नें सामूहिक रूप से मानव के हिंसक प्रयासों को रोकनें के लिये एक विचार मंच आयोजित किया | आखिर आदमी भी तो मिल -जुल कर कबीलायी भाई -चारे के डोरों से बंधकर जंगल पर जंगल विजय पाते जा रहे थे | उन दिनों बहुत विशाल जंगल रहते होंगें | साफ़ सुथरी भूमि तो बहुत ही कम रही होगी पर प्रारम्भिक आदि मानव के हाँथ में जब कुल्हाड़ा आ गया तो जंगल पर जंगल साफ़ होनें लगे | घने जंगल के बीच जानवरों की सभा में गजराज को प्रधान चुनकर सभा आयोजित हुयी | श्रगाल राज नें प्रस्ताव रखा कि जंगल सभी का है और सभी को इसमें रहनें का बराबरी का अधिकार मिलना चाहिये | लोमड़ मामा नें भी इसका समर्थन किया | खरगोशों के सरदार नें अपनी पतली आवाज की सीटी बजाते हुये यह बताया कि छोटे -बड़े सभी बराबर हैं | कुदरत नें हम सबको बनाया है | आखिर आदमियों की कौम में भी तो कोई लम्बा है तो कोई नाटा , कोई बहुत मोटा है तो कोई सींकिया है ,कोई काला है तो कोई गेंहुंआ है | कोई ललौंछ है तो कोई पीताभ | कुछ लोगों के बाल हमारे पूँछ के नोक जैसे घुंघराले हैं और कुछ के ऐसे लम्बे जैसे सिंह महराज के अयाल | खरगोश की इस बात की बहुत सराहना हुयी और सभी सभा में उपस्थित वन्य प्राणियों नें ताली बजाकर इन बातों का अनुमोदन किया | ताली बजाते समय जब सिंह राज नें अपने पंजे को देखा तो उसके मन में एक विचार कौंध गया | उसने गजराज से कुछ कहनें की अनुमति मांगीं | गजराज नें उनका उठा हुआ पंजा देख लिया था और उन्हें अनुमति तो देनी ही थी | सिंह राज ने कहा राजा खरगोश की बात बहुत पायेदार है | सभी कुछ पंजों पर ही खड़ा होता है | पंचायत का मतलब ही है पंजों का बोलबाला | मैं खरगोश राज से कहूंगा कि वे अपना पंजा दिखावें | मैं आप सबको अपना पंजा दिखाता हूँ ,यह कहकर सिंह राज दहाड़े और जंगली जानवरों की पंचायत एक दूसरे को कुचलती हुयी भाग खड़ी हुयी | क्या पता शायद इसी कहानी के बल पर भारतीय जनतन्त्र में किसी राजनैतिक पार्टी ने पंजे को अपना निशान बना लिया है | सिंह राज की बात आ गयी तो बहुत पहले का एक चुनावी नारा दिमाग में कौंध गया | नारे को कृपया किसी राजनैतिक प्रचार से जोड़कर न देखें | उसके शब्दों की संगीतमयता और उसके अर्थ की गहनता की ओर ध्यान दें |
' एक शेरनी सौ लंगूर ,चिक मगलूर ,चिक मगलूर | ' चलिये छोड़िये इन हल्की -फुल्की बातों को | मिल जुलकर थोड़ा कुछ गहन चिन्तन कर लें | आखिर सकारात्मक चिन्तन ही तो किसी समस्या के समाधान की ओर ले जाता है |
हमारी आज की जम्हूरियत कई मायनों में एक लचड़पचड़ क़ानून की व्यवस्था ही कही जा सकती है | हर एक वयस्क नर -नारी को वोट का अधिकार है यह हमारी जम्हूरियत का सबसे सबल पक्ष है पर अंधविश्वास ,अशिक्षा ,घोर गरीबी और गर्दन तोड़ महगाई झेलनें वाला भारत का लगभग दो तिहायी जनसमुदाय यूनिवर्सल फ्रैन्चाइजी के अधिकार को एक छलावे भरी चाल से अधिक कुछ नहीं मानता | और है भी तो यह एक छलावा ही | सपनों की सौदागरी | जाति -पाँति का मिथकीय , लुभावनी तकनीकी प्रगति का मायाजाल | क्षेत्रीय पहचानों का महाकाव्यीय विस्तार | यही कारण है कि आजादी के संग्राम के महानायकों के महाप्रयाण के बाद सारा भारत क्षेत्रीय भूखण्डों में बटकर जीवन और मरण के बीच में पड़ा है | अपंग होकर भी वह जीवित है और जिजीविषा लेकर भी वह मरणोन्मुख है | भिन्न -भिन्न राज्यों की गलियों ,मुहल्लों और प्रखण्डों में घूम फिर कर मुश्किल से हमें कुछ ही भारतीय या हिन्दुस्तानी मिल पाते हैं | हम तिलंग हैं , हम मराठे हैं , हम बंगाली हैं , हम पंजाबी हैं ,हम कश्मीरी हैं , हम बुन्देलखण्डी हैं ,हम झारखण्डी हैं ,हम उड़िया हैं ,हम असमियाँ हैं पर शायद हम सच्चे अर्थों में हिन्दुस्तानी नहीं | हम जाट हैं , हम अहीर हैं ,हम गूजर हैं , हम जाटव हैं , हम राजपूत हैं , हम जांगड़ हैं , हम रांगण हैं ,हम मुखर्जी हैं ,हम मिश्रा हैं , हम शेख हैं , हम सैय्यद हैं ,हम कुंजड़ा हैं ,हम चिकवा हैं पर शायद ही हम हिन्दुस्तानी हैं | और तो और अगर हम हिन्दुस्तानी हैं तो क्या हम भारतीय भी हैं और अगर हम भारतीय भी हैं तो क्या हम हिन्दुस्तानी भी हैं ?
मदर मेरी को साड़ी पहनाकर गोद में शिशु लेकर जाते हुये दिखनें पर भी क्या वे भारतीयों की श्रद्धा पा सकेंगीं ? मसीह की सेवा में निरत न जानें कितने पादरी स्वयं ही इस प्रकार के परिवर्तन का विरोध करते दिखायी पड़ रहे हैं | स्पष्ट है कि भारतीय जनतन्त्र सच्चे अर्थों में भारतीय जनता को अपनें पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं कर सका है | भारत का सर्वोच्च न्यायालय तो यहां तक कह चुका है कि शायद भगवान भी इस देश में उचित न्याय व्यवस्था लागू नहीं कर पायेंगें |
ऐसा उसनें इसलिये कहा क्योंकि कितने ही सांसद चुनाव हार जानें के बाद भी सरकारी बंगले और निवास स्थान नहीं छोड़ते और क़ानून उन्हें ऐसा करने में अपनें को लचर पाता है | जिस जनतन्त्र में सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश भी व्यवहारिक रूप न ले सके जन -तन्त्र की गौरव गाथा को मात्र शब्द आडम्बर ही कहा जायेगा तो सोचिये क्या आत्म पवित्रता का भारत की आज की राजनीति में कोई अर्थ रह गया है ? " हम्माम में हम सब नंगे हैं " यह कहकर राजनीतिक पार्टियां सच्चायी से दूर भागनें की कोशिश कर रही हैं | पर काल का अहेरी अपनी कमान पर तीर चढ़ाये ठीक समय का इन्तजार कर रहा है | शर- विद्ध पक्षी की भांति अपनी काल्पनिक ऊंचाई में उड़ते हुये अधिकाँश भ्रष्ट और भ्रमित जन -प्रतिनिधि लुंज -पुंज होकर माटी में लोटते दिखायी पड़ेंगें |
गहन चिन्तन करने पर हम यह पाते हैं कि आज के भारत में सदाचार ,ज्ञान और त्याग का कोई अर्थ नहीं रह गया है | अब तो ऐसा लगनें लगा है कि दुष्ट ,दुराचारी , आततायी , और आतंकी हुये बिना राजनीति में सफलता पायी ही नहीं जा सकती | ग्राम पंचायत से लेकर राज्य की विधान सभाओं और केन्द्रीय संसद में भी जघन्य अपराधों के षड्यन्त्रकारी और विधाता बैठे दिखायी पड़ते हैं | तब क्या किया जाय ? एक मार्ग तो यह है कि हम मानव जन्मों की अनवरत श्रंखला में विश्वास करें | यह मान लें कि हमारे अच्छे कर्मों का फल इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में या फिर उससे अगले जन्म में मिलेगा | भारतीय चिन्तन का मूल स्वर आस्तिकता का रहा है | हम मानते हैं कि स्रष्टा का न्याय सम्पूर्ण और ब्रम्हाण्डीय विवेक पर आधारित है | हम मानते हैं कि अन्याय से पोषित वृत्तासुर , दशानन , और कंस निश्चय ही एक दिन राख के ढेर बनकर वायु में उड़ जायेंगें | सदाचारी रहकर भी, सद्पथ पर चल कर भी ,मूल्य आधारित जीवन जी कर भी ,प्रतिभा पुत्र होकर भी जब हमें आज की सामाजिक ,राजनीतिक व्यवस्था में सम्माननीय स्थान नहीं मिल पाता तो हमारा चिन्तन माओ ,चे गवेरा , Fidel Castro,और प्रचण्ड की ओर देखने लगता है | पर हमें अंग्रेजी की इस कहावत में पूरा विश्वास करना होगा कि , ' Wheels of Justice grind slowly but grind surely." बापू तभी तो कहा करते थे , " It is only through pure means that ideal results can be attained , " और अब कहीं -कहीं दिखायी तो पड़ने लगा है कि कुछ मन्त्री , आई ० ए०एस और आई ० पी ० एस ० अधिकारी , कुछ सर्विस सेलेक्शन बोर्ड्स के सदस्य और कुछ सांसद और विधायक जेल की सलाखों के पीछे खड़े हैं | ऊषा की कुछ किरणें ही आने वाले प्रभात का आभाष देती हैं | हमें भारतीय आस्तिक दर्शन के अनुगर्मियों और चिन्तकों को ईश्वरीय न्याय की अटलता और सर्वोच्चता में विश्वास रखना ही होगा | इस मार्ग पर चलनें में हमें जो भी मिले सफलता -असफलता , सुख -दुःख , राग -विराग , जीवन -मृत्यु , उसे हमें हंस -हंस कर वरण करना होगा | यह वरण ही समाधिस्थ योगी की प्रसन्नता हमें दे पायेगा |
No comments:
Post a Comment