युधिष्ठिर -यक्ष संवाद
नेपथ्य ध्वनि : अंजुल में भरा हुआ जल सरोवर में छोड़ दो | जल की बूँदें ओष्ठों से लगते ही तुम भी अपनें छोटे भाइयों की तरह मृत्यु की न टूटनें वाली निद्रा चादर में लपेट लिये जाओगे | सावधान !
युधिष्ठिर : वाणीं के विधाता आप कौन हैं ? कुन्ती पुत्र युधिष्ठिर परिचय प्रार्थी है |
नेपथ्य स्वर : मैं यक्षराज अलकापति हूँ | यह सरोवर मेरे अधिकार में है | मेरे आदेश का उल्लंघन तुरन्त मृत्यु का बुलावा है
युधिष्ठिर : यक्षराज मेरा प्रणाम स्वीकार करें | क्या मुझे यह सौभाग्य मिलेगा कि अलकापति मुझे प्रत्यक्ष दर्शन दें | मैं आपका सदैव अनुग्रहित रहूँगा |
नेपथ्य स्वर : साधु ,साधु | तुम एक सत्पुरुष हो | मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ | लो मैं प्रकट होता हूँ ,कुछ दूर खड़े होकर ही मुझसे बात करना |
युधिष्ठिर : यक्षराज आपकी कृपा के लिये मैं कृतज्ञता यापन करता हूँ | कृपा करके यह बतानें का कष्ट करें कि मेरे चारो अनुज इस सुसुप्त अवस्था को कैसे प्राप्त हो गये ?
यक्षराज : उनमें इतना धैर्य न था कि वे पानी पीनें से पहले मेरे प्रश्नों को सुनकर उनका उत्तर देते | उन्हें अपनें शरीर से मोह था ज्ञान से नहीं | उनका अधैर्य उनकी चिर निद्रा का कारण बना है |
युधिष्ठिर : यक्षराज क्या आप मुझे अपनें प्रश्नों का उत्तर तलाशनें का सुअवसर देंगें |
यक्षराज : हाँ हाँ अवश्य | तुम्हारे धैर्य नें मुझे प्रभावित किया है लगता है तुममें गहरायी में पैठनेँ की क्षमता है | मैं तुमसे पांच प्रश्न पूछूंगा दिये गये उत्तरों की सार्थकता पर ही आगे का निर्णय लिया जायेगा | जल पीनें की पात्रता भी तभी मिलेगी | मेरा पहला प्रश्न है कि मानव अलकापुरी में कब तक प्रवेश कर सकेगा |
युधिष्ठिर : आपनें अलकापुरी की स्थिति के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं करायी है यदि वह धरती पर है तो अक्षांश और देशान्तरों के माध्यम से उसकी स्थिति बताइये | यदि वह सौर मण्डल का ग्रह है तो उसकी कक्षा का उल्लेख करिये और यदि वह किसी ग्रह का उपग्रह है तो वैसा बताइये | यदि उसकी स्थिति आकाश गंगाओं में है तो किन तारा वीथिकाओं में यक्षणियां नृत्य करती हैं यह स्पष्ट कीजिये | ऐसा होने पर मैं अलकापुरी में मानव प्रवेश की अनुमानित तिथि आपको बता सकूंगा |
यक्षराज : मैनें अपनें प्रश्न का उत्तर तुम्हारे प्रश्नों में पा लिया है | मैं तुम्हारे उत्तर से सन्तुष्ट हूँ | मेरा दूसरा प्रश्न है कि धरती से भी अधिक भरण -पोषण करने वाली और सब कुछ सहकर अपनी स्वाभाविक गति से न विचरने वाली शक्ति कौन सी है ?
युधिष्ठिर : यक्षराज क्या आप उस धरती की बात कर रहे हैं जो अन्तरिक्ष के एक छोटे से प्रकाश बिन्दु जिसे सूर्य के नाम से जाना जाता है के चारो ओर चक्कर लगा रही है या आप किसी अन्य ग्रह की बात करते हैं जिसे धरती के नाम से अभिहत किया जाता है | ब्रम्हाण्ड में अनगिनत सूर्यों के आस -पास अनगिनत ग्रह घूम रहे हैं | अपनी धुरी में चौबीस घण्टे में घूम लेने वाली धरती की बात यदि आप करते हों तो उसका कोई विशेष भू भाग आपके प्रश्न में लक्षित तो नहीं है | धरती के भरण पोषण में आप समुद्र से होनें वाले भरण पोषण को शामिल कर रहे हैं या नहीं | यह ठीक है कि भारत की नारी कष्ट सहनें में धरती से अधिक सहिष्णुं है पर अमरीका ,स्वीडन और फ्रांस के पुरुष अधिक सहनशील कहे जायेंगें क्योंकि वहां की नारियां पुरुषों को इतना अधिक कष्ट देती हैं जितना कष्ट धरती कभी नहीं पाती | वैसे सहनशीलता के क्षेत्र में हम मानव जिस धरती पर रहते हैं उसमें गर्दभराज का सबसे बड़ा स्थान है | यक्षराज जी आप गर्दभ राज को तो जानते ही होंगें |
यक्षराज : हे ज्येष्ठ पाण्डव तुम सचमुच ज्ञानी लगते हो | प्रश्न का उत्तर प्रश्न से देकर तुमनें मुझे प्रसन्न किया | साथ ही तुमनें एक उत्तर में नर -नारी के सम्बन्धों की व्याख्या की और साथ ही मेरे एक निकटतम सम्बन्धी को खोज निकाला | मेरा तीसरा प्रश्न यह है कि धर्म का सार क्या है ?
युधिष्ठिर : यक्षराज मेरे आदरणीय पितामह गंगा पुत्र भीष्म के आचरण से मैनें यही सीखा है कि आप सोचते कुछ भी रहें पर सिंहासन पर बैठी सत्ता से जुड़े रहना ही धर्म का सार है पर यक्षराज जी कभी -कभी अधर्म भी धर्म बन जाता है ,जैसे जल का सहज धर्म है जीवन को सिंचित कर उसे सुरक्षित रखना पर इस सरोवर के जल ने मेरे चार अनुजों को नींद में सुला दिया | क्षमा करेंगें यक्षराज जी अपनें क्षेत्र या गृह में आये हुये व्यक्तियों को जल -पान द्वारा स्वागत करा कर प्रश्न पूछे जाते हैं ,यही सहज जीवन धर्म है ,पर आप धर्म की स्वतन्त्र रूप से व्याख्या करनें में भी समर्थ हैं और गोसांई जी ने कहा ही है ," समरथ को नहिं दोष गुसाईं |" मैं कहता रहा हूँ कि धर्म का सार त्याग है पर पांचाली तो सदैव ही इस बात पर हठ करती रही है कि धर्म का सार सत्ता प्राप्ति के पश्चात ही जाना जा सकता है | पितामह द्वैपायन व्यास भी हमें यही समझाते रहे हैं कि फलाफल के भय से मुक्त शुभ कर्म में ही धर्म की चरम परिणित होती है | मैं अपनी मृत्यु की डर से जल पीनें से पीछे नहीं हटा हूँ | मैनें अंजलि का जल होठों से इसलिये नहीं छुवाया है कि शायद ऐसा करनें से मैं सच्चे अर्थों में बड़े होनें का दायित्व निभा सकूं |
यक्षराज : ज्येष्ठ कौन्तेय ,तुमनें बहुत सारगर्भित बात कही है ,धर्म की कई उलझी हुयी गुथ्थियां तुमनें सुलझा दी हैं | कुछ समय पहले राजस्थान के एक मरुस्थल में एक सरोवर की रक्षा करते हुये मैनें यही प्रश्न गर्दभ राज भूलोटा सिंह से किया था तो उन्होंने उत्तर में मुंह खोलकर कुछ बेसुरे उत्तर दिये थे जिन्हें मैं समझ नहीं सका था | तुम धर्म के सच्चे व्याख्यता हो मैं तुम्हें वर देता हूँ कि आज से तुम धर्मराज कहलाओगे | मेरा चौथा प्रश्न है कि समुद्र से गहरा क्या है ?
धर्मराज : आपनें मुझे धर्मराज कहकर मेरे उत्साह को और अधिक बढ़ा दिया है | पर स्वतन्त्र भारत में तो सारी उपाधियाँ पद्म से शुरू होती हैं | श्री भूषण ,अभिभूषण ,पद्म के साथ ही लगते हैं धर्म के साथ नहीं और भारत के संविधान में धर्म तो हर व्यक्ति के अपनें निजी जीवन का आन्तरिक चिन्तन है | कोई राजनैतिक मान्यता नहीं है , पर आपकी दी हुयी सौगात मैं नकारूँगा नहीं क्योंकि आप के वात्सल्य स्नेह की छाँह मुझे इसमें मिल रही है | रह गया आपके चौथे प्रश्न का उत्तर तो मैं कहना चाहूंगा कि समुद्र की गहरायी से भी गहरी है सत्ता प्राप्ति के लिये खेली जानें वाली कूटनीतिक चालें | समुद्र की अपनी एक मर्यादा है पर राजनीति की छलनायें और साजिशों की गहराइयाँ सर्वथा मर्यादा रहित हैं | हाँ यदि आप गहरायी को शाब्दिक अर्थों में लेते हैं तो उससे गहरा है नीलाभ शून्य का आकाश | ज्योतित बिन्दुओं के बीच न जानें कितनें समुद्रों की अपरमित गहरायी अनुमानित की जा सकती है | यों शारीरिक उष्मा के क्षणों में एक पुरुष को प्रकम्पित नारी स्वर में न जानें कितने समुद्रों की गहरायी झलक जाती है | आप मेरी न मानें तो अपनें निकट सम्बन्धी गर्दभ राज से इसकी तसदीक करा लें | उनका मिलन तो कविता की अमरवस्तु है |
यक्षराज : धन्य हो धर्मराज ,तुमनें मुझे अपनी प्रतिभा से चमत्कृत कर दिया | चक्रधारी द्वारिकाधीश की भांति तुम भी इतिहास में धर्मरक्षा के लिये सदैव स्मरण किये जाओगे | मैं तुम्हें दूसरा वर देता हूँ कि तुम कभी पूरा झूठ नहीं बोल पाओगे | तुम्हारी झूठ में भी आधा सत्य अवश्य होगा | मेरा पांचवा और अन्तिम प्रश्न है कि संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? मानव अमरता का रहस्य इस उत्तर में छिपा है अपनें अन्तरतम में झाँक कर इस उत्तर को तलाशो |
धर्मराज : ज्ञानियों के गौरव अलकापति जी मुझे तो यह प्रश्न आपके अन्य चार प्रश्नों की तुलना में बहुत सीधा और सरल दिखायी पड़ता है | मैनें अपनें पूज्य पितामह द्वैपायन व्यास से एक बार पूछा था कि यौवन और वार्धक्य में क्या अन्तर होता है ? उन्होंने बताया था कि यौवन त्वरित अनियन्त्रित अश्व की भांति है और वार्धक्य दंश विहीन फुफकार मारनें वाले सर्पराज की भांति ,फिर उन्होंने यह भी कहा कि ज्ञान की सच्ची उपलब्धि और अनुभूति वार्धक्य में ही होती है | मैनें उनसे शत सहस्त्र से अधिक आयु के उन ऋषियों के नाम पूछे जिनके पास जाकर मैं अपनी ज्ञान पिपासा शान्त कर सकूं | एक नाम निरन्तर गतिशील नारद का | एक नाम था पातालवासी कपिल का ,और एक नाम था आच्छादन मुक्त शुकदेव का | मैनें उनसे जानना चाहा कि इनसे कहाँ मुलाक़ात हो सकती है ,तो उन्होंने कहा इन्हें आदर पूर्ण स्मृति के पंखों पर चढ़कर ही मिला जा सकता है | देह का खोल उतारकर यह फेंक चुके हैं | उन्होंने आगे कहा वत्स , मानव भविष्य के कल्याण के लिये समर्पित विचारधारा ही अमरत्व का वहन कर सकती है | इस विचाधारा के प्रणेता महापुरुष मृत्यु को जीत लेते हैं | सर्वग्राही काल उनकी देह उनसे भिखारी बनकर मांग लेता है पर उनकी आत्मा की ऊर्जा अनन्तकाल तक जीवित रहकर श्रष्टि का संचालन करती है | उन्होंने आगे कहा था वत्स तुम सत्य के सच्चे शोधार्थी हो,मिथ्या के पीछे कभी मत दौड़ना | देह तो मिथ्या है इसे तो छोड़ना ही होता है | कितना बड़ा आश्चर्य है आश्चर्यों का आश्चर्य कि अपनें आस -पास जलती गलती अनेकानेक देहें देख कर भी मूर्ख व्यक्ति देह के अमरत्व की कल्पना करता रहता है | उन्होंने आगे कहा था वत्स तुम कालजयी बनोगे | तुम्हें सदेह स्वर्ग ले जानें के लिये रथ आयेगा पर वत्स देह का मोह छोड़कर आत्म ऊर्जा के प्रकाशित पुंज बनकर तुम सदैव चर्चित रहोगे | यक्षराज मैं पूज्य पितामह के इन्हीं विचारों को आप के समक्ष रखकर आपके प्रश्न का उत्तर देना चाहता हूँ | क्षमा करें आप हमें मार सकते हैं पर काल आपको भी मार देगा | देह के अमरत्व की आकांक्षा छोड़ दीजिये | यक्षराज हम और आप दोनों ही अपनें प्रश्न उत्तरों के लिये सदैव जानें जाते रहेंगें |
यक्षराज : धन्य हो ,धन्य हो ,धन्य हो धर्मराज युधिष्ठिर तुम भारतीय आत्मिक चिन्तन और दर्शन मनन के इतिहास में सर्वोच्च स्थान पानें के अधिकारी हो | मैं अलकापति तुम्हारे आत्मिक ज्ञान के सामनें अपनें को बौना पाता हूँ | बोलो ,कौन सा वर मांगना चाहोगे ? चाहो तो मैं तुम्हारे चारो भाइयों में से एक को जीवित कर सकता हूँ |
धर्मराज : अलकापति आप मुझे भी चारो भाइयों के साथ जानें दीजिये ,अकेला जीवन मुझे मृत्यु से भी भारी पड़ेगा ,पर यदि आप यह चुनाव इसलिये करवाना चाहते हैं कि आपको मेरे मानसिक राग ,द्वेष ,सत्ता सुख भोग के प्रति मेरी मनोवृत्ति और अपनें पराये की भेद वृत्ति से परिचय हो जाय तो मैं यह कहूंगा कि मैं पाँचों का जीवन या पाँचों की मृत्यु इन्हीं दो विकल्पों को स्वीकार करना चाहता हूँ | मेरा निवेदन है कि आपका नाम मृत्यु के वाहक के रूप में न जाना जाय | आप जैसे ज्ञानी के लिये जीवन संरक्षक का गौरव पाना ही उचित है |
यक्षराज : पाण्डु पुत्र ,आर्य भूमि तुम्हें सदैव सर्वोपरि सम्मान देती रहेगी | तुम निश्चय ही स्वार्थपरता के क्षुद्र लगावों से ऊपर उठ चुके हो | मैं जानता हूँ कि यदि मैं एक को ही जीवित कर देनें की हठ करता और तुम्हारी राय माँगता तो तुम निश्चय ही नकुल या सहदेव में से किसी एक को चुनते | धन्य हो युधिष्ठिर तुमनें माता माद्री को माता कुन्ती के समकक्ष या उससे भी ऊपर का स्थान दिया | अलकापति होकर भी मैं आज के बनवासी ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर जैसा निः स्पृह और तटस्थ जीवन द्रष्टि नहीं पा सका हूँ | परीक्षा पूरी हो गयी युधिष्ठिर अपनें सुसुप्त भाइयों की ओर देखो ,उनकी अलसायी आँखें खुल रही हैं | जी भर कर जलपान करना | अलकापुरी का यह यक्ष तुम्हारी कीर्ति के साथ जुड़कर भारत के इतिहास में सदैव स्मरण किया जाता रहेगा | अच्छा धर्मराज अब हम वायु की लहरियों में विलीन होते हैं | वनपर्व का यह मिलन अमर कथा बनकर घर -घर में गूँजें यही मेरी कामना है | जाते -जाते कुछ हंसी की बात कर लूँ ,मेरे निकट सम्बन्धी गर्दभ राज भूलोट सिंह यदि कभी आप से मिल जांय तो उनसे इतनी गहरी ज्ञान की बात न करना क्योंकि वह प्रसन्न होकर यदि प्रशंसा का स्वर निकालेंगें तो आस -पास का वातावरण संगीतमय हो उठेगा |
वायु की एक गहरी हलचल और यक्षराज का अन्तर्ध्यान हो जाना और चारो पाण्डवों का उठकर ज्येष्ठ भ्राता धर्मराज युधिष्ठिर को प्रणाम करना | युधिष्ठिर यक्ष संवाद का पटाक्षेप |
(यह संवाद महाभारत का आधार लेते हुये भी एक काल्पनिक साहित्य रचना है | धार्मिक आस्था के प्रति संवाद लेखक के मन में आदर भरा स्वीकार भाव है | संवाद में थोड़ा -बहुत हास्य का पुट देकर गहन दार्शनिकता को सहज सुलभ और रुचिकर बनाने का प्रयास किया गया है | )
नेपथ्य ध्वनि : अंजुल में भरा हुआ जल सरोवर में छोड़ दो | जल की बूँदें ओष्ठों से लगते ही तुम भी अपनें छोटे भाइयों की तरह मृत्यु की न टूटनें वाली निद्रा चादर में लपेट लिये जाओगे | सावधान !
युधिष्ठिर : वाणीं के विधाता आप कौन हैं ? कुन्ती पुत्र युधिष्ठिर परिचय प्रार्थी है |
नेपथ्य स्वर : मैं यक्षराज अलकापति हूँ | यह सरोवर मेरे अधिकार में है | मेरे आदेश का उल्लंघन तुरन्त मृत्यु का बुलावा है
युधिष्ठिर : यक्षराज मेरा प्रणाम स्वीकार करें | क्या मुझे यह सौभाग्य मिलेगा कि अलकापति मुझे प्रत्यक्ष दर्शन दें | मैं आपका सदैव अनुग्रहित रहूँगा |
नेपथ्य स्वर : साधु ,साधु | तुम एक सत्पुरुष हो | मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ | लो मैं प्रकट होता हूँ ,कुछ दूर खड़े होकर ही मुझसे बात करना |
युधिष्ठिर : यक्षराज आपकी कृपा के लिये मैं कृतज्ञता यापन करता हूँ | कृपा करके यह बतानें का कष्ट करें कि मेरे चारो अनुज इस सुसुप्त अवस्था को कैसे प्राप्त हो गये ?
यक्षराज : उनमें इतना धैर्य न था कि वे पानी पीनें से पहले मेरे प्रश्नों को सुनकर उनका उत्तर देते | उन्हें अपनें शरीर से मोह था ज्ञान से नहीं | उनका अधैर्य उनकी चिर निद्रा का कारण बना है |
युधिष्ठिर : यक्षराज क्या आप मुझे अपनें प्रश्नों का उत्तर तलाशनें का सुअवसर देंगें |
यक्षराज : हाँ हाँ अवश्य | तुम्हारे धैर्य नें मुझे प्रभावित किया है लगता है तुममें गहरायी में पैठनेँ की क्षमता है | मैं तुमसे पांच प्रश्न पूछूंगा दिये गये उत्तरों की सार्थकता पर ही आगे का निर्णय लिया जायेगा | जल पीनें की पात्रता भी तभी मिलेगी | मेरा पहला प्रश्न है कि मानव अलकापुरी में कब तक प्रवेश कर सकेगा |
युधिष्ठिर : आपनें अलकापुरी की स्थिति के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं करायी है यदि वह धरती पर है तो अक्षांश और देशान्तरों के माध्यम से उसकी स्थिति बताइये | यदि वह सौर मण्डल का ग्रह है तो उसकी कक्षा का उल्लेख करिये और यदि वह किसी ग्रह का उपग्रह है तो वैसा बताइये | यदि उसकी स्थिति आकाश गंगाओं में है तो किन तारा वीथिकाओं में यक्षणियां नृत्य करती हैं यह स्पष्ट कीजिये | ऐसा होने पर मैं अलकापुरी में मानव प्रवेश की अनुमानित तिथि आपको बता सकूंगा |
यक्षराज : मैनें अपनें प्रश्न का उत्तर तुम्हारे प्रश्नों में पा लिया है | मैं तुम्हारे उत्तर से सन्तुष्ट हूँ | मेरा दूसरा प्रश्न है कि धरती से भी अधिक भरण -पोषण करने वाली और सब कुछ सहकर अपनी स्वाभाविक गति से न विचरने वाली शक्ति कौन सी है ?
युधिष्ठिर : यक्षराज क्या आप उस धरती की बात कर रहे हैं जो अन्तरिक्ष के एक छोटे से प्रकाश बिन्दु जिसे सूर्य के नाम से जाना जाता है के चारो ओर चक्कर लगा रही है या आप किसी अन्य ग्रह की बात करते हैं जिसे धरती के नाम से अभिहत किया जाता है | ब्रम्हाण्ड में अनगिनत सूर्यों के आस -पास अनगिनत ग्रह घूम रहे हैं | अपनी धुरी में चौबीस घण्टे में घूम लेने वाली धरती की बात यदि आप करते हों तो उसका कोई विशेष भू भाग आपके प्रश्न में लक्षित तो नहीं है | धरती के भरण पोषण में आप समुद्र से होनें वाले भरण पोषण को शामिल कर रहे हैं या नहीं | यह ठीक है कि भारत की नारी कष्ट सहनें में धरती से अधिक सहिष्णुं है पर अमरीका ,स्वीडन और फ्रांस के पुरुष अधिक सहनशील कहे जायेंगें क्योंकि वहां की नारियां पुरुषों को इतना अधिक कष्ट देती हैं जितना कष्ट धरती कभी नहीं पाती | वैसे सहनशीलता के क्षेत्र में हम मानव जिस धरती पर रहते हैं उसमें गर्दभराज का सबसे बड़ा स्थान है | यक्षराज जी आप गर्दभ राज को तो जानते ही होंगें |
यक्षराज : हे ज्येष्ठ पाण्डव तुम सचमुच ज्ञानी लगते हो | प्रश्न का उत्तर प्रश्न से देकर तुमनें मुझे प्रसन्न किया | साथ ही तुमनें एक उत्तर में नर -नारी के सम्बन्धों की व्याख्या की और साथ ही मेरे एक निकटतम सम्बन्धी को खोज निकाला | मेरा तीसरा प्रश्न यह है कि धर्म का सार क्या है ?
युधिष्ठिर : यक्षराज मेरे आदरणीय पितामह गंगा पुत्र भीष्म के आचरण से मैनें यही सीखा है कि आप सोचते कुछ भी रहें पर सिंहासन पर बैठी सत्ता से जुड़े रहना ही धर्म का सार है पर यक्षराज जी कभी -कभी अधर्म भी धर्म बन जाता है ,जैसे जल का सहज धर्म है जीवन को सिंचित कर उसे सुरक्षित रखना पर इस सरोवर के जल ने मेरे चार अनुजों को नींद में सुला दिया | क्षमा करेंगें यक्षराज जी अपनें क्षेत्र या गृह में आये हुये व्यक्तियों को जल -पान द्वारा स्वागत करा कर प्रश्न पूछे जाते हैं ,यही सहज जीवन धर्म है ,पर आप धर्म की स्वतन्त्र रूप से व्याख्या करनें में भी समर्थ हैं और गोसांई जी ने कहा ही है ," समरथ को नहिं दोष गुसाईं |" मैं कहता रहा हूँ कि धर्म का सार त्याग है पर पांचाली तो सदैव ही इस बात पर हठ करती रही है कि धर्म का सार सत्ता प्राप्ति के पश्चात ही जाना जा सकता है | पितामह द्वैपायन व्यास भी हमें यही समझाते रहे हैं कि फलाफल के भय से मुक्त शुभ कर्म में ही धर्म की चरम परिणित होती है | मैं अपनी मृत्यु की डर से जल पीनें से पीछे नहीं हटा हूँ | मैनें अंजलि का जल होठों से इसलिये नहीं छुवाया है कि शायद ऐसा करनें से मैं सच्चे अर्थों में बड़े होनें का दायित्व निभा सकूं |
यक्षराज : ज्येष्ठ कौन्तेय ,तुमनें बहुत सारगर्भित बात कही है ,धर्म की कई उलझी हुयी गुथ्थियां तुमनें सुलझा दी हैं | कुछ समय पहले राजस्थान के एक मरुस्थल में एक सरोवर की रक्षा करते हुये मैनें यही प्रश्न गर्दभ राज भूलोटा सिंह से किया था तो उन्होंने उत्तर में मुंह खोलकर कुछ बेसुरे उत्तर दिये थे जिन्हें मैं समझ नहीं सका था | तुम धर्म के सच्चे व्याख्यता हो मैं तुम्हें वर देता हूँ कि आज से तुम धर्मराज कहलाओगे | मेरा चौथा प्रश्न है कि समुद्र से गहरा क्या है ?
धर्मराज : आपनें मुझे धर्मराज कहकर मेरे उत्साह को और अधिक बढ़ा दिया है | पर स्वतन्त्र भारत में तो सारी उपाधियाँ पद्म से शुरू होती हैं | श्री भूषण ,अभिभूषण ,पद्म के साथ ही लगते हैं धर्म के साथ नहीं और भारत के संविधान में धर्म तो हर व्यक्ति के अपनें निजी जीवन का आन्तरिक चिन्तन है | कोई राजनैतिक मान्यता नहीं है , पर आपकी दी हुयी सौगात मैं नकारूँगा नहीं क्योंकि आप के वात्सल्य स्नेह की छाँह मुझे इसमें मिल रही है | रह गया आपके चौथे प्रश्न का उत्तर तो मैं कहना चाहूंगा कि समुद्र की गहरायी से भी गहरी है सत्ता प्राप्ति के लिये खेली जानें वाली कूटनीतिक चालें | समुद्र की अपनी एक मर्यादा है पर राजनीति की छलनायें और साजिशों की गहराइयाँ सर्वथा मर्यादा रहित हैं | हाँ यदि आप गहरायी को शाब्दिक अर्थों में लेते हैं तो उससे गहरा है नीलाभ शून्य का आकाश | ज्योतित बिन्दुओं के बीच न जानें कितनें समुद्रों की अपरमित गहरायी अनुमानित की जा सकती है | यों शारीरिक उष्मा के क्षणों में एक पुरुष को प्रकम्पित नारी स्वर में न जानें कितने समुद्रों की गहरायी झलक जाती है | आप मेरी न मानें तो अपनें निकट सम्बन्धी गर्दभ राज से इसकी तसदीक करा लें | उनका मिलन तो कविता की अमरवस्तु है |
यक्षराज : धन्य हो धर्मराज ,तुमनें मुझे अपनी प्रतिभा से चमत्कृत कर दिया | चक्रधारी द्वारिकाधीश की भांति तुम भी इतिहास में धर्मरक्षा के लिये सदैव स्मरण किये जाओगे | मैं तुम्हें दूसरा वर देता हूँ कि तुम कभी पूरा झूठ नहीं बोल पाओगे | तुम्हारी झूठ में भी आधा सत्य अवश्य होगा | मेरा पांचवा और अन्तिम प्रश्न है कि संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? मानव अमरता का रहस्य इस उत्तर में छिपा है अपनें अन्तरतम में झाँक कर इस उत्तर को तलाशो |
धर्मराज : ज्ञानियों के गौरव अलकापति जी मुझे तो यह प्रश्न आपके अन्य चार प्रश्नों की तुलना में बहुत सीधा और सरल दिखायी पड़ता है | मैनें अपनें पूज्य पितामह द्वैपायन व्यास से एक बार पूछा था कि यौवन और वार्धक्य में क्या अन्तर होता है ? उन्होंने बताया था कि यौवन त्वरित अनियन्त्रित अश्व की भांति है और वार्धक्य दंश विहीन फुफकार मारनें वाले सर्पराज की भांति ,फिर उन्होंने यह भी कहा कि ज्ञान की सच्ची उपलब्धि और अनुभूति वार्धक्य में ही होती है | मैनें उनसे शत सहस्त्र से अधिक आयु के उन ऋषियों के नाम पूछे जिनके पास जाकर मैं अपनी ज्ञान पिपासा शान्त कर सकूं | एक नाम निरन्तर गतिशील नारद का | एक नाम था पातालवासी कपिल का ,और एक नाम था आच्छादन मुक्त शुकदेव का | मैनें उनसे जानना चाहा कि इनसे कहाँ मुलाक़ात हो सकती है ,तो उन्होंने कहा इन्हें आदर पूर्ण स्मृति के पंखों पर चढ़कर ही मिला जा सकता है | देह का खोल उतारकर यह फेंक चुके हैं | उन्होंने आगे कहा वत्स , मानव भविष्य के कल्याण के लिये समर्पित विचारधारा ही अमरत्व का वहन कर सकती है | इस विचाधारा के प्रणेता महापुरुष मृत्यु को जीत लेते हैं | सर्वग्राही काल उनकी देह उनसे भिखारी बनकर मांग लेता है पर उनकी आत्मा की ऊर्जा अनन्तकाल तक जीवित रहकर श्रष्टि का संचालन करती है | उन्होंने आगे कहा था वत्स तुम सत्य के सच्चे शोधार्थी हो,मिथ्या के पीछे कभी मत दौड़ना | देह तो मिथ्या है इसे तो छोड़ना ही होता है | कितना बड़ा आश्चर्य है आश्चर्यों का आश्चर्य कि अपनें आस -पास जलती गलती अनेकानेक देहें देख कर भी मूर्ख व्यक्ति देह के अमरत्व की कल्पना करता रहता है | उन्होंने आगे कहा था वत्स तुम कालजयी बनोगे | तुम्हें सदेह स्वर्ग ले जानें के लिये रथ आयेगा पर वत्स देह का मोह छोड़कर आत्म ऊर्जा के प्रकाशित पुंज बनकर तुम सदैव चर्चित रहोगे | यक्षराज मैं पूज्य पितामह के इन्हीं विचारों को आप के समक्ष रखकर आपके प्रश्न का उत्तर देना चाहता हूँ | क्षमा करें आप हमें मार सकते हैं पर काल आपको भी मार देगा | देह के अमरत्व की आकांक्षा छोड़ दीजिये | यक्षराज हम और आप दोनों ही अपनें प्रश्न उत्तरों के लिये सदैव जानें जाते रहेंगें |
यक्षराज : धन्य हो ,धन्य हो ,धन्य हो धर्मराज युधिष्ठिर तुम भारतीय आत्मिक चिन्तन और दर्शन मनन के इतिहास में सर्वोच्च स्थान पानें के अधिकारी हो | मैं अलकापति तुम्हारे आत्मिक ज्ञान के सामनें अपनें को बौना पाता हूँ | बोलो ,कौन सा वर मांगना चाहोगे ? चाहो तो मैं तुम्हारे चारो भाइयों में से एक को जीवित कर सकता हूँ |
धर्मराज : अलकापति आप मुझे भी चारो भाइयों के साथ जानें दीजिये ,अकेला जीवन मुझे मृत्यु से भी भारी पड़ेगा ,पर यदि आप यह चुनाव इसलिये करवाना चाहते हैं कि आपको मेरे मानसिक राग ,द्वेष ,सत्ता सुख भोग के प्रति मेरी मनोवृत्ति और अपनें पराये की भेद वृत्ति से परिचय हो जाय तो मैं यह कहूंगा कि मैं पाँचों का जीवन या पाँचों की मृत्यु इन्हीं दो विकल्पों को स्वीकार करना चाहता हूँ | मेरा निवेदन है कि आपका नाम मृत्यु के वाहक के रूप में न जाना जाय | आप जैसे ज्ञानी के लिये जीवन संरक्षक का गौरव पाना ही उचित है |
यक्षराज : पाण्डु पुत्र ,आर्य भूमि तुम्हें सदैव सर्वोपरि सम्मान देती रहेगी | तुम निश्चय ही स्वार्थपरता के क्षुद्र लगावों से ऊपर उठ चुके हो | मैं जानता हूँ कि यदि मैं एक को ही जीवित कर देनें की हठ करता और तुम्हारी राय माँगता तो तुम निश्चय ही नकुल या सहदेव में से किसी एक को चुनते | धन्य हो युधिष्ठिर तुमनें माता माद्री को माता कुन्ती के समकक्ष या उससे भी ऊपर का स्थान दिया | अलकापति होकर भी मैं आज के बनवासी ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर जैसा निः स्पृह और तटस्थ जीवन द्रष्टि नहीं पा सका हूँ | परीक्षा पूरी हो गयी युधिष्ठिर अपनें सुसुप्त भाइयों की ओर देखो ,उनकी अलसायी आँखें खुल रही हैं | जी भर कर जलपान करना | अलकापुरी का यह यक्ष तुम्हारी कीर्ति के साथ जुड़कर भारत के इतिहास में सदैव स्मरण किया जाता रहेगा | अच्छा धर्मराज अब हम वायु की लहरियों में विलीन होते हैं | वनपर्व का यह मिलन अमर कथा बनकर घर -घर में गूँजें यही मेरी कामना है | जाते -जाते कुछ हंसी की बात कर लूँ ,मेरे निकट सम्बन्धी गर्दभ राज भूलोट सिंह यदि कभी आप से मिल जांय तो उनसे इतनी गहरी ज्ञान की बात न करना क्योंकि वह प्रसन्न होकर यदि प्रशंसा का स्वर निकालेंगें तो आस -पास का वातावरण संगीतमय हो उठेगा |
वायु की एक गहरी हलचल और यक्षराज का अन्तर्ध्यान हो जाना और चारो पाण्डवों का उठकर ज्येष्ठ भ्राता धर्मराज युधिष्ठिर को प्रणाम करना | युधिष्ठिर यक्ष संवाद का पटाक्षेप |
(यह संवाद महाभारत का आधार लेते हुये भी एक काल्पनिक साहित्य रचना है | धार्मिक आस्था के प्रति संवाद लेखक के मन में आदर भरा स्वीकार भाव है | संवाद में थोड़ा -बहुत हास्य का पुट देकर गहन दार्शनिकता को सहज सुलभ और रुचिकर बनाने का प्रयास किया गया है | )
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