प्राणों की महावर
अर्चना की सुरभि प्राणों की महावर बन गयी जब ,
देह की आराधना का अर्थ ही क्या ?
सांस का सरगम विसर्जन गीत का ही साज है ,
मृत्तिका के घेर में क्या बंध सका आकाश है ,
चाह पंख पसार जब पहुंचीं क्षितिज के छोर तक
मिट गया आभाष कोई दूर है या पास है |
बंध गयी जो चाह मरू का थूह ,कारावास है ,
मुक्त मन खग ज्योति मग पर लहरनें दो
काल के उस पार अनभ अकाल तक
आस्था के चरण कवि के ठहरनें दो
पुरा गाथा में लहरती श्रष्टि की उदभव कहानी
प्यार की चिर साधना थी व्यर्थ ही क्या ?
अर्चना की सुरभि ----------------------------
देह की हर चाह बस शमशान जाती
राख के वर्तुल बगूले घूमते हैं
शून्यता मानव नियति का अन्त बनती
हो वधिर विक्षिप्त मद्यप झूमते हैं
देह के जो पार अमर निदेह कांक्षा
स्वस्ति का शुभ वृत्त उसी का राग है
रंग रहे चोला चहेते चाह के मद -मस्त जन
किन्तु अमर अनित्य केवल प्राण का ही फाग है
अमिर आमन्त्रण मनुजता दे रही जब प्यार का
खण्ड -धर्मी हींन कर्मी भावना का अर्थ ही क्या ?
अर्चना की सुरभि -------------------------------
आज मंगल ,शुक्र से कल ज्योति पथ के पार से
और कल के पार ताराहीन धवल प्रसार से
हम सभी हैं पुत्र धरती के यही आह्वान होगा
तब हमें मानव नियति का झिलमिला सा भान होगा
उस महा आभाष की प्रत्यूष बेला आ चुकी है
खण्ड धर्मी देह बन्धित चेतना निः सार है
राष्ट्र की सीमा गगन का छोर पीछे छोड़ती है
उर्ध्व- कामी हर पुलक की कामना ही प्यार है
आज वामन नर डगों में अन्तरिक्ष समों रहा
टिमटिमाती तारिका पद -वन्दना का अर्थ ही क्या ?
'पिण्ड में ब्रम्हाण्ड है ' यह आर्ष वाणीं
सृष्टि के हर तार पर चिर सत्य की झंकार है
आज विघटन की दलीलें सिर पटक कर रो रहीं हैं
हर जनूनी अन्धता की यह करारी हार है
कल मनुज तारा पथों पर स्वताःचालित -यान दोलित
ज्योति- नगरों में जगायेगा नयी पहचान के स्वर
श्याम ,पाण्डुर ,श्वेत ,लोहित वर्ण हिलमिल कर रहेंगें ,
तपश्चरण प्रधान होगा फिर मिलेंगें नये वर
उठ रहा हो जब त्रिकाली आशुतोषी नाद डिमडिम
क्षणिक जीवी रंजना का अर्थ ही क्या ?
-------------------------------------------------------------------------------------------------------
सायं दर्शन
अस्तंगत रवि ,धूमिल मग लौटे नभ चारी
रजत रेख ,हिम श्वेत वेष चलनें की वारी
सप्त दशक उड़ गये काल पंख लगाये
कौन अपरिचित किस सुदूर से मुझे बुलाये
ठहरो हे अनजान ,अभी जग प्यारा लगता
पार्थिव वोध सभी बोधों से न्यारा लगता
काम कल्पना अभी न तन की
त्याग वृत्ति से हारी
रजत रेख हिम श्वेत वेष चलनें की वारी
रूप -रंग की सतरंगीं चूनर का जात्य सुहाना
ठिठक किशोरी के द्वारे पर नव यौवन का आना
खिलते फूल लहरते आँचल अभी उमंग उकसाते
प्रिय -वियोग स्मृति में रह -रह नयन आद्र हो जाते
मिलन विरह की याद जगाती अब तक किरन कुंवारी
रजत रेख हिम श्वेत वेष चलनें की वारी
भव वारिधि में तरिणि चलाना अब तक मन को भाता
अभी मोक्ष के दिवा -स्वप्न से जुड़ा न अपना नाता
तरुण कल्पना वर्ष- भार से हुयी न अब तक वृद्धा
अभी धरित्री की साँसों में पलती मेरी श्रद्धा
पी जीवन विष भी मेरा शिव बन सका संहारी
रजत रेख हिम श्वेत वेष चलनें की वारी
चंचल चपल उर्मियों में मन लहर लहर लहराता
जीर्ण वस्त्र हों तो क्या तन का मन से ही तो नाता
बहुचर्चित जो दिव्य -सनातन तन से अलग कहाँ है
पगली राधा वहीं मिलेगी छलिया कृष्ण जहां है
सार -भष्म पा दीप्ति रसायन बनी स्वर्ण चिनगारी
रजत रेख हिम श्वेत वेष चलनें की वारी
हाड़ मांस के इस जीवन से प्यार न अब तक छूटा
टूटी ज्ञान कमान राग का तार न अब तक टूटा
व्यर्थ नहीं वार्धक्य सांध्य -सुषमा की छटा निराली
न्यौछावर हो जाती इस पर तरुण रक्त की लाली
मुक्ति नटी बाहों में बांधें घूमें मदन मदारी
रजत रेख हिम श्वेत वेष चलनें की वारी |
अर्चना की सुरभि प्राणों की महावर बन गयी जब ,
देह की आराधना का अर्थ ही क्या ?
सांस का सरगम विसर्जन गीत का ही साज है ,
मृत्तिका के घेर में क्या बंध सका आकाश है ,
चाह पंख पसार जब पहुंचीं क्षितिज के छोर तक
मिट गया आभाष कोई दूर है या पास है |
बंध गयी जो चाह मरू का थूह ,कारावास है ,
मुक्त मन खग ज्योति मग पर लहरनें दो
काल के उस पार अनभ अकाल तक
आस्था के चरण कवि के ठहरनें दो
पुरा गाथा में लहरती श्रष्टि की उदभव कहानी
प्यार की चिर साधना थी व्यर्थ ही क्या ?
अर्चना की सुरभि ----------------------------
देह की हर चाह बस शमशान जाती
राख के वर्तुल बगूले घूमते हैं
शून्यता मानव नियति का अन्त बनती
हो वधिर विक्षिप्त मद्यप झूमते हैं
देह के जो पार अमर निदेह कांक्षा
स्वस्ति का शुभ वृत्त उसी का राग है
रंग रहे चोला चहेते चाह के मद -मस्त जन
किन्तु अमर अनित्य केवल प्राण का ही फाग है
अमिर आमन्त्रण मनुजता दे रही जब प्यार का
खण्ड -धर्मी हींन कर्मी भावना का अर्थ ही क्या ?
अर्चना की सुरभि -------------------------------
आज मंगल ,शुक्र से कल ज्योति पथ के पार से
और कल के पार ताराहीन धवल प्रसार से
हम सभी हैं पुत्र धरती के यही आह्वान होगा
तब हमें मानव नियति का झिलमिला सा भान होगा
उस महा आभाष की प्रत्यूष बेला आ चुकी है
खण्ड धर्मी देह बन्धित चेतना निः सार है
राष्ट्र की सीमा गगन का छोर पीछे छोड़ती है
उर्ध्व- कामी हर पुलक की कामना ही प्यार है
आज वामन नर डगों में अन्तरिक्ष समों रहा
टिमटिमाती तारिका पद -वन्दना का अर्थ ही क्या ?
'पिण्ड में ब्रम्हाण्ड है ' यह आर्ष वाणीं
सृष्टि के हर तार पर चिर सत्य की झंकार है
आज विघटन की दलीलें सिर पटक कर रो रहीं हैं
हर जनूनी अन्धता की यह करारी हार है
कल मनुज तारा पथों पर स्वताःचालित -यान दोलित
ज्योति- नगरों में जगायेगा नयी पहचान के स्वर
श्याम ,पाण्डुर ,श्वेत ,लोहित वर्ण हिलमिल कर रहेंगें ,
तपश्चरण प्रधान होगा फिर मिलेंगें नये वर
उठ रहा हो जब त्रिकाली आशुतोषी नाद डिमडिम
क्षणिक जीवी रंजना का अर्थ ही क्या ?
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सायं दर्शन
अस्तंगत रवि ,धूमिल मग लौटे नभ चारी
रजत रेख ,हिम श्वेत वेष चलनें की वारी
सप्त दशक उड़ गये काल पंख लगाये
कौन अपरिचित किस सुदूर से मुझे बुलाये
ठहरो हे अनजान ,अभी जग प्यारा लगता
पार्थिव वोध सभी बोधों से न्यारा लगता
काम कल्पना अभी न तन की
त्याग वृत्ति से हारी
रजत रेख हिम श्वेत वेष चलनें की वारी
रूप -रंग की सतरंगीं चूनर का जात्य सुहाना
ठिठक किशोरी के द्वारे पर नव यौवन का आना
खिलते फूल लहरते आँचल अभी उमंग उकसाते
प्रिय -वियोग स्मृति में रह -रह नयन आद्र हो जाते
मिलन विरह की याद जगाती अब तक किरन कुंवारी
रजत रेख हिम श्वेत वेष चलनें की वारी
भव वारिधि में तरिणि चलाना अब तक मन को भाता
अभी मोक्ष के दिवा -स्वप्न से जुड़ा न अपना नाता
तरुण कल्पना वर्ष- भार से हुयी न अब तक वृद्धा
अभी धरित्री की साँसों में पलती मेरी श्रद्धा
पी जीवन विष भी मेरा शिव बन सका संहारी
रजत रेख हिम श्वेत वेष चलनें की वारी
चंचल चपल उर्मियों में मन लहर लहर लहराता
जीर्ण वस्त्र हों तो क्या तन का मन से ही तो नाता
बहुचर्चित जो दिव्य -सनातन तन से अलग कहाँ है
पगली राधा वहीं मिलेगी छलिया कृष्ण जहां है
सार -भष्म पा दीप्ति रसायन बनी स्वर्ण चिनगारी
रजत रेख हिम श्वेत वेष चलनें की वारी
हाड़ मांस के इस जीवन से प्यार न अब तक छूटा
टूटी ज्ञान कमान राग का तार न अब तक टूटा
व्यर्थ नहीं वार्धक्य सांध्य -सुषमा की छटा निराली
न्यौछावर हो जाती इस पर तरुण रक्त की लाली
मुक्ति नटी बाहों में बांधें घूमें मदन मदारी
रजत रेख हिम श्वेत वेष चलनें की वारी |
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