Monday, 11 September 2017

                                             इस वर्ष बसन्ती बयार या तो चली ही नहीं या चली तो मात्र अल्पकाल के लिये | बयार का प्रभाव ग्रीष्म की झुलसन में द्रुति गति से परिवर्तित होता गया | शीत और ग्रीष्म दोनों में ही अतिशयताः की अनापेक्षित उड़ानें देखने को मिलीं | लगता है दो अतियों के बीच का सन्तुलन तन्त्र ढीला पड़ता जा रहा है | ऐसा तो नहीं कि प्रकृति का कोई सचेतक तत्व मानव जाति को पूर्व सूचना दे रहा हो कि वह अतियों के बीच सन्तुलन के सन्धि स्थलों की तलाश करे | विश्व के महानतम गणितज्ञ और भौतकी विद फ्रोफेसर Stephen Hawking ने यह स्वीकारा है कि ब्रम्हाण्ड में अन्यत्र और कहीं भी सचल जीवन गति मान हो पर उन्होंने यह भी कहा है कि यह जीवन सम्भवतः छोटे -मोटे कृमि कीटों या एक दो कोशीय प्राणियों का ही होगा | दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि समस्त ब्रम्हाण्ड में मानव जाति की अदभुत श्रष्टि का श्रेय केवल धरती नाम के सौर ग्रह को ही जाता है | मानव की यह निराली श्रष्टि इसीलिये उसे अपने अस्तित्व की सार्थकता के प्रति निराले ढंग से सोचने के लिये बाध्य करती है | मानव का अभ्युदय यदि निरर्थकता की एक कड़ी मात्र है तो प्रकृति का यह निरर्थक खिलवाड़ किस आनन्द की श्रष्टि के लिये किया जा रहा है ? और यदि मानव विकास की दैवी सम्भावनाओं का कोई भविष्य है तो उसका अन्तिम गंतव्य अपनी परिपूर्णतः में कहाँ तक ले जाता है | इन प्रश्नों की अबूझता ही इन्हें नये -नये रहस्यों से मण्डित करती है और रहस्यों का रोमान्स संसार के और किसी भी रोमान्स से अधिक रोमांचकारी होता है | जो स्पष्ट है ,जो जान लिया गया है , वो जान लेने के बाद तुरन्त बासी होनें लगता है | जान लेने की सम्पूर्णतः हमें बौद्धिक संतोष भले ही दे दे उसमें एक प्रकार की मानसिक स्थिरता  भी परिलक्षित होती रहती है | एक ऐसी स्थिरता जो हमें नया जाननें की जोखिम से दूर रखती है और इस प्रकार प्रगति की धारा स्थिरता के समतल से चलकर अगति की खाइयों में जा गिरती है | ब्रम्हाण्ड का विस्तार शायद इसीलिये इतना असीमित है ताकि मनुष्य के जिज्ञासु मन को निरन्तर उद्वेलित रखा जाय | असीमित आकाश गंगायें ,असीमित तारावलियाँ ,असीमित ग्रह -उपग्रह ,असीमित प्रकाश पुंज ,इन सबका चिन्तन ही रहस्यों का रहस्य है और इसीलिये तो श्रष्टि के श्रष्टा की कल्पना भी रहस्य का ही एक शतसहस्त्र रंगी जाल है | मुक्ति का अपना आनन्द है. तो माया का अपना आनन्द भले ही ठगनी माया हमें ठग रही हो पर यह ठगा जाना भी कितना सुहावना लगता है | कभी -कभी हम भीतर से चाहते हैं कि कोई हमें लुभावनें मन से ठगे और उस मोहक ठगन में ही हमें स्पन्दित जिन्दगी का अहसास होता है | मुक्ति और माया दोनों के बीच सामान्य नर -नारी का जीवन संग्राम किसी उपेक्षा की वस्तु नहीं है | कि संग्राम में ही कालजयी उपलब्धियां प्राप्त होती हैं | भारतीय काव्य शास्त्र में बरसों की कल्पना मनोवेगों के रंग बिरंगें प्रवाह को सूत्रात्मक ढंग से समझनें का एक प्रयास ही तो है | 'माटी " की कुछ रचनायें गम्भीर दार्शनिकता के बोझ से दबी रहती हैं और उनका पूरा आनन्द उच्च शिक्षित और संस्कारित पाठक ही ले पाते हैं | कुछ रचनाओं में सामाजिक अन्तर भेदों को उजागर कर उनकी ऐतिहासिक और वैज्ञानिक व्याख्यायें प्रस्तुत होती हैं | उन्हें समझनें के लिये भी एक सुसंगत  तर्क पूर्ण द्रष्टिकोण अपनानें की आवश्यकता होती है | कुछ रचनायें हल्की -फुल्की अनुभूतियों को दीप्त कर मन के लिये संतुलन की सामग्री पेश करती हैं | कविताओं में कुछ व्यंग्यिकायें हल्का -फुल्का हास्य समेटे होती हैं पर कुछ कटाक्षिकायें फूहड़ चोट करती हुयी दिखायी पड़ती हैं | जीवन में यह सब कुछ होता ही रहता है | धर्म एक ओर समाज के महामूल्यों को धारण करने की सामर्थ्य रखता है तो दूसरी ओर पाखण्ड का बाना भी पहन सकता है इसी प्रकार नीति शास्त्र भी कुतर्की के हांथों में पड़कर अपनी छवि मलीन कर लेता है | हम चाहेगें कि हल्का -फुल्का हास्य भी जो कटाक्ष और कटूक्तियों से मुक्त हो 'माटी ' में सम्मानीय स्थान पा सके | हम दूसरों पर हँसतें हैं ,दूसरे हम पर हँसते हैं पर हम कभी अपने आप पर हंस लें तो कैसा रहे ? यह हंसी पागलपन की हंसी न हो बल्कि सज्ञानता की हंसी हो | कबीर की हंसी को भला कौन अपने जीवन में स्वीकार नहीं करेगा |
                      " मोंहि सुनि सुनि आवत हांसी
                         जल विच मीन पियासी |"
और देखिये :-
                     " दोष पराये देखि के चला हसन्त हसन्त
                        आपन चित्त न गाइये जाको आदि न अन्त |"
           तो आइये हम सार्थक ढंग से अपने आप पर हंसना सीखें | भारतीय नाट्यशास्त्र के मनीषी भलीभांति इस बात से परिचित थे कि गम्भीर चिन्तन का बोझ और जीवन की अनिवार्य विषमतायें हास्य का पुट पाकर ही सहनीय बन सकती हैं | इसीलिये उन्होंने नाटकों में विदूषक को एक अनिवार्य अंग के रूप में समावेषित किया और अंग्रेजी के महानतम नाटककार शैक्सपियर के नाटकों के सम्बन्ध में कहे गये इस वाक्य से कौन शिक्षित व्यक्ति परिचित नहीं है ? "Fools of Shakespere are wiser than the wisest of us "| द्वेषरहित मुक्ता राशि जैसी धवल हंसी जो किसी व्यक्ति विशेष को लक्ष्य न बनाकर मानव विसंगतियों पर आधारित हो | जब हम यह कहते हैं कि We are all human तब इस कहने का यही मतलब होता है कि मानव स्वभाव के निर्मित में बहुत कुछ ऐसा है ,जो विषंगतियों से भरा है और जिस पर विश्लेषण की टार्च लाइट डालकर सहज हास्य का आधार जुटाया जा सकता है | 'माटी ' के लेखकों से इस प्रकार की रचनायें प्रार्थनीय हैं | अपनी पूरी ऊंचाई के बावजूद अभी तक निर्वाधि गगन प्रस्तार का एक लघु खण्ड भी मानव की पकड़ में नहीं आया है | क़ुतुब मीनार की ऊंचाई को पार करते हुये दिल्ली में बना म्यूनिसपिल्टी का नया भवन 112 मीटर ऊंचा है | दुबई में बनी हुयी नयी इमारतें 100 मंजिलों की ऊंचाई ले चुकी हैं पर मुस्कराहट बिखेरते सितारों के कारण मानव की इन छुद्र उपलब्धियों की हंसी उड़ाते रहते हैं | 'माटी ' का प्रकाशन भी उत्कर्षता की नयी ऊंचाइयों को छूने का यह प्रयास था और है पर हमें अपनी छुद्रता का अहसास भी है और यह अहसास ही हमारे इस निश्चय को और द्रढ़ करता है कि हमनें जो सोचा था और जो सोचते हैं उसे पाकर रहेंगें | प्रशंसा और निन्दा दोनों को समान भाव से स्वीकार करते हुये हम अपने संकल्पित मार्ग पर बढ़ रहे हैं | कल तकनीक की नयी विधायें छपे शब्दों को कितना पछाड़ पायेंगीं यह तो भविष्य ही बतायेगा पाए शब्दों की सामर्थ्य से ही मानव क्रांतियों का उदभव और परिपोषण हुआ है और होता रहेगा | रह -रह कर लड़कपन में पढ़ी विश्वम्भर नाथ शर्मा की कहानी उसने कहा था के यह शब्द मेरे मन में उभर कर आते रहते हैं |
                                              "उद्यमी उठ सिगड़ी में कोयले डाल |" चेतना की दीप्ति प्रज्वलित करने के लिये ' माटी ' सिगड़ी में कोयले डाल रही है | उद्यम ही हमारे वश में है यही तो गीता का मूल सन्देश है और यही भारतीय होने का गौरव भी है |
                          

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