Friday, 29 September 2017


विश्व जनसंख्या से संम्बन्धित सुझाव ,चिन्तायें और प्रस्तावित योजनायें लेकर सम्पादक 'माटी ' के नाम भेजा गया एक पत्र |

आदरणीय सम्पादक महोदय ,
     
                     विश्व की बढ़ती हुयी जनसंख्या को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की चिन्तायें सर्वविदित हैं | सच्चायी यह है कि अमरीका और योरोप के विकसित देशों में बढ़ती हुयी जनसंख्या कोई समस्या लेकर खड़ी नहीं हुयी है इसका कारण यह है  कि वहां के प्रबुद्ध नागरिक स्वयं ही परिवार नियोजन को अपनी जीवन शैली का मुख्य केन्द्र बिन्दु बनाये हुये हैं | इन विकसित देशों में विकास की इतनी संम्भावनायें निहित हैं कि यदि उनकी जनसंख्या दोगुनी या तिगुनी भी हो जाय तो उनके भरण -पोषण के लिये सुद्रढ़ आर्थिक ढांचा और प्राकृतिक साधन सहज ही उपलब्ध हैं | अब संयुक्त राष्ट्र अमरीका को ही देखिये भारत के क्षेत्रफल से लगभग तीन गुना बड़ा भू -भाग संयुक्त राष्ट्र अमरीका को अपने में समेटे है | आबादी के सौ पर आधारित अंकतालिका में भारत के मुकाबले अमरीका को तीस से कुछ ऊपर ही अंक मिल पाते हैं | लगभग एक   और दस का यह अनुपात अमरीका का विशाल सड़कों को चकाचौंध करनें वाली तकनीक और संसार की सबसे बड़ी आर्थिक व्यवस्था होने का गौरव प्रदान करता है | वहां के नागरिकों की कर्मठता और कर्तव्य परायणता भी उनके स्वाभिमान का अंग है | कुछ प्रतिशत परिवार ही अमरीका में ऐसे होंगें जो अपने जीवन स्तर को घटाकर अधिक बच्चों की चाह करते हों | सच्चे अर्थों में आधुनिक अमरीका का वैज्ञानिक चेतनता संम्पन्न तरुण जोड़ा एक या अधिक से अधिक दो बच्चों से आगे की कल्पना तक नहीं करता  अंग्रेजी के शब्दकोष में दिये गये मुहावरे "The more the memories .'का अर्थ वे संम्पन्नता और जीवन स्तरीय ऊंचाई से जोड़ते हैं | परिवार विस्तार से इस मुहावरे का संम्बन्ध बिल्कुल कट गया है | न केवल योरोप ,अमरीका बल्कि  विश्व के सभी देशों के  उच्च शिक्षा प्राप्र्त नर -नारी इस बात से परिचित हैं कि यदि वे न चाहें तो अपने शारीरिक मिलन को सन्तान उत्पत्ति से अलग कर जब तक चाहें बनाये रख सकते हैं | प्रजनन विज्ञान के बढ़ते हुये चरण मानव जाति के लिये मुक्ति का सन्देशा लेकर आते जान पड़ते हैं | महर्षि पाराशर और मत्सराज की की पुत्री सत्यवती का मिलन आज के सन्दर्भ में सन्तान उत्पत्ति अनिवार्यता के बिना भी सम्भव है | आधुनिक सन्दर्भ में पाण्डवों की मां कुन्ती भी अनचाहे कर्ण को कोख में रखने के अपराध भाव से मुक्ति पा सकती थी | यह दूसरी बात है कि कर्ण जैसा महापुरुष अपराधबोध को भी गर्वबोध में बदल देने की क्षमता रखता है और अधुनातन उच्च शिक्षित नारी इस दिशा में पहल करने की बात सोच सकती है | बढ़ती जनसंख्या की समस्या लैटिन अमरीका ,अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया के लिये एक बहुत बड़ी समस्या लेकर आ खड़ी हुयी है | एशिया के पूर्व में चीन के विशाल भू -भाग को विश्व की सबसे बड़ी जनसंख्या पालनें -पोसनें का गर्व प्राप्त है | भारत इस दौर में सदैव दूसरे नम्बर पर ही रहा है पर चीन के जादुई आर्थिक सुधारों ने उसकी विशाल जनसंख्या को जीवन की मूलभूत सुविधाओं को प्रदान करने के साधन उपलब्ध करा दिए हैं | इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि चीन में साम्यवाद और आर्थिक उदारीकरण का अदभुत समन्वय हुआ है | भारत का मुख्य जन -तन्त्र अधिकतर विरोध ,बहिष्कार और नकारात्मक असहयोग ही दे पाता है और इस कारण आर्थिक विकास की धारा अवरुद्ध होकर वांछित स्थलों पर नहीं पहुँच पाती | पिछले दशकों में राष्ट्रीय चरित्र की सोचनीय गिरावट भी भारत को उबारने से रोकती रही है | हम लैटिन अमेरिका और अफ्रीका की बढ़ती जन समस्या भुखमरी और महामारी की चर्चा फिर अगले पत्र में करेंगें | आज तो मैं भारत की विशाल और बहुत तेजी से बढ़ने वाली जनसंख्या के निर्माणात्मक और सृजनात्मक उपयोग पर कुछ सुझाव देना चाहता हूँ |
                                जब बंकिम चन्द्र चटर्जी ने भारत माता के संम्बन्ध में यह पंक्ति लिखी " मां तुम किम अबले | वींश कोटि सुत मातु तुम्हारे ||"
                                 तब संम्भवतः उन्हें बीस करोड़ की संख्या ही मां को सशक्त बनाने के लिये पर्याप्त लगती थी पर 'एक मुंह दो हाँथ ' के समर्थक मां के सहारे के लिये और अधिक बाहुओं की मांग करते रहे | सम्पादक जी मेरे बचपन में मुझे सिखाया गया था कि भारत की जनसंख्या तेंतीस  करोड़ है |उस समय मुझे यह बहुत अच्छा भी  लगा था | कारण यह था कि मुझे मेरी मां ने बताया था कि हिन्दुओं के तेंतीस करोड़ देवता हैं और यह जानकार मैं बहुत आनन्दित था कि मेरा भी हक़ किसी एक देवता पर बन जाता है | आश्चर्य है कि हिन्दू देवी और देवताओं ने परिवार नियोजन को पूरी तरह से अपना लिया | उनकी संख्या तेंतीस करोड़ ही बनी है जितने पुराने चोले त्यागते हैं उतने ही नये चोले अवतरित होते हैं | यानि देवी देवता जोड़े के  अधिक से अधिक दो नये संस्करण पर हिन्दुस्तान की जनता पीर -फकीरों ,देवी -देवताओं ,क्रास और नये चाँद की पूजा भले ही करे परन्तु सन्तान उत्पत्ति की देवी फार्मूले को स्वीकार करने से सदैव इन्कार करती रही है | जनसंख्या अध्ययन शास्त्र के निष्णान्त विचारकों का कहना है कि गरीब घरों में तीन चीजें बहुतायत से देखी जा सकती हैं -संड़ांध भरे प्याज ,वासी झुर्रियों वाले आलू ,और ऊपर से नंग पर कच्छा धडंग नन्हें -मुन्नों की कतार | अब ऐसी हालत में परिवार नियोजन की सरकारी योजनायें यदि फाइलों में ही सिमट कर रहजायें तो कोई क्या करे | पूर्व केन्द्रीय रेलवे मन्त्री लालू प्रसाद का आदर्श तो उनके समक्ष रखा नहीं जा सकता | लालू जी का यह कहना कितना वैज्ञानिक और सार्थक है कि जब तक राबड़ी देवी नहीं चाहेंगीं तबतक परिवार कैसे नियोजित हो सकता है | अब भारत की देवियाँ तो ईश्वरीय प्रकृति को सर्वोपरि मानती हैं | और उम्र के साथ जब उन्हें दोबारा हरे होनें की संम्भावना नहीं रहती तभी परिवार नियोजन उनके लिये अर्थवान हो पाता है | पर छोड़िये इन बातों को | दुनिया ऐसे ही चली है और चलती रहेगी | यह दूसरी बात है कि नेहरू जी सिर्फ एक पुत्री पाकर ही  सन्तुष्ट रहे और सोनिया जी ने भी दो की मर्यादा का निर्वाहन किया है | राहुल जी तो परिवार नियोजन के प्रभावशाली  अम्बेसडर बन सकते हैं क्योंकि 47 वर्ष हो जानें पर भी उन्हें ' इकला चलो ' वाला सिद्धान्त अच्छा लगता है | संजय गान्धी के प्रभाव ने इन्दिरा गान्धी को फेमली प्लानिंग को प्रभावशाली ढंग से लागू करने के लिये विवश कर दिया था | आपातकाल के दौरान दो बच्चों से अधिक वाले परिवार के  सदस्यों की नसबन्दी जबरन होने लगी थी | अपने गाँव के घर पर आपातकाल के दौरान मैं कुछ दिनों के लिये ठहरा था और मैनें पाया कि कई बार गाँव में भगदड़ मचती थी और घरों के पुरुष सदस्य भगकर खेतों ,वृक्ष झुण्डों की आढों या ऊबड़ *खाबड़ जमीन की कटानों में छिप जाते थे | ऐसा इसलिये था कि पुलिस के हलकारे उन्हें जबरजस्ती उन्हें नसबन्दी कैम्पों में खदेड़ने के लिये भेजे जाते थे | क्या कभी कल्पना की जा सकती थी कि आपातकाल की समाप्ति के बाद जो आम चुनाव हुआ उसमें जवाहरलाल की बेटी इन्दिरा गान्धी राज नारायण जैसे हंसोड़ के मुकाबले चुनाव हार जायेंगीं ? पर ऐसा ही हुआ | कारण स्पष्ट था रायबरेली जनपद के अधिकाँश महिलायें और संम्भवतः पुरुष भी परिवार नियोजन से परहेज करते थे और सन्तान उत्पत्ति की पूरी स्वतन्त्रता चाहते थे | फेमली प्लानिंग के सूत्रधारों को मजाक करने का बहुत शौक है तभी तो जगह -जगह दीवारों पर लिखा हुआ है ' नसबन्दी कराइये और एक हजार रुपये इनाम पाइये |"और तो और यह बात भी कई बार समझानी पड़ती है कि नसबन्दी करानें से लिंग शक्ति में कोई कमी नहीं आयेगी और ऐसा समझाते समय परिवार नियोजन के कार्यकर्ता हंसी के कहकहे लुटाते रहते हैं | तब क्या किया जाये ? समाजशास्त्र के बड़े -बड़े विद्वान कहते हैं कि जब कभी उच्च शिक्षित हो जायेंगें ,जब नारियां रावड़ी देवी न बनकर बिन्दा करात बन जायेगीं और जब पुरुष भगवान् राम का एक पत्नी धर्म स्वीकार कर लेंगें तब परिवार नियोजन का लक्ष्य अपने आप ही हासिल हो जायेगा | अमरीका में कुछ समय पहले एक प्रयोग हुआ था जिसमें एक नर बनें नारी ने दाढ़ी -मूंछ उगानें के बाद एक शिशु को जन्म दिया था | परिवार नियोजन के आयोजकों को इस संम्बन्ध में उभयलिंगीय परेशानियों से छुटकारा पाकर एक लिंगीय तरकीबों के लिये रिसर्च करने की आवश्यकता है | एशिया के दो महादेश चीन और हिन्दुस्तान विश्व में चर्चा का विषय हैं | मैं पूरे विश्वास के साथ यह बात कहता हूँ कि हिन्दुस्तान चीन को और किसी भी क्षेत्र में पछाड़ नहीं सकता | सिर्फ एक क्षेत्र है जहां वह चीन को करारी शिकस्त दे सकता है  और हिन्दुस्तान को इस जीत के लिये हिन्दू और मुस्लिम कट्टरपन्थियों की बधाइयां भी मिल जायेंगीं यह क्षेत्र है जनसंख्या वृद्धि का | हिन्दुस्तान के बाँकुरे जवान और नटखट नवेलियाँ इस चुनौती को पूरे जोश के साथ स्वीकार कर लेंगीं | चलिये छोड़िये अब हल्की -फुल्की बातों  को | कुछ देर के लिये यह मान लीजिये कि भारत की जनसंख्या एक अरब बीस करोड़ के आस -पास स्थिर हो गयी है | दो बूढ़ों का गमन और दो शिशुओं का आगमन इस स्थिरता को कायम बनाये रखेगा | तो अब हमारी आर्थिक प्रगति किस तेजी से ,किस प्रकार से ,और किन माध्यमों से हो ताकि एक अरब बीस करोड़ की जनसंख्या के प्रत्येक इकाई को एक सम्मानजनक जीवन स्तर मिल सके |
                                    मनमोहन सिंह,चिदम्बरम और मोन्टेक सिंह की गणनां संसार के महान अर्थशास्त्रियों में की जाती है | इनका दावा था कि भारत साढ़े आठ नौ प्रतिशत की विकासगति से आगे बढ़ा है | भले ही इन्फ्लेशन जून के अन्त तक 11 . 62 पर पहुंच गया हो पर विकास दर आज भी आठ प्रतिशत से ऊपर ही है | संसार के लगभग सभी अर्थशास्त्री यह मानते हैं कि चीन के बाद विकास की दर में भारत सबसे आगे है इस विकास दर से अर्जित अपार सम्पदा भारत के गरीब और दुर्बल तबके के पास इसलिये नहीं पहुँच रही है क्योंकि वितरण का संसारी तन्त्र अत्यन्त भ्रष्ट है और वो इस सम्पदा को अपने में ही समाहित कर लेता है | इस बात में काफी कुछ सच्चायी है | बाढ़ का पानी पहले खाली जगहों को भरता है और फिर जब वह ऊँचे धरातलों के समानान्तर पहुंचता है तब उल्टी ओर प्रभावित होता है | पर तेजी से हो रहे विकास से अर्जित अतिरिक्त सम्पदा ऊपर की अट्टालिकाओं में ही फंस जाती है और घिसलती -फिसलती मध्य की भू घाटियों में गुम होकर विलीन हो जाती है | नीचे तो दो चार बूँद या एक रुलाई भरी फुहार ही गिरती जान पड़ती है | स्पष्ट है कि सबसे पहले परशु का प्रहार भ्रष्टाचार की जड़ों पर करना होगा | इसके लिये ऋषि संकल्प की आवश्यकता है | गान्धी विरासत को उठाने वाले तरुण व सशक्त नये कन्धे तलाशने होंगें | यहां पर मैं एक  और बात  कहना चाहूंगा भले ही यह सुझाव घिसा -पिटा और इष्ट पेसिट दिखायी पड़े | हमें समृद्धता और सुख शान्ति के नये गणक तलाशने होंगें | पश्चिम में जिन मापदण्डों को सुख और समृद्धि का परिचायक माना जाता है वे हमारी सांस्कृतिक धारणाओं पर खरे नहीं उतरते | जय प्रकाश नारायण का यह कहना कि नग्न भोगवाद को बढ़ावा देनें वाली लिप्सा पर अंकुश लगाना होगा यदि हमें समाजवाद का सपना पूरा करना है बिल्कुल सही दिखायी पड़ता है | इस दोहे से लगभग सभी हिन्दी भाषा -भाषी परिचित हैं :-
                       " गो धन ,गजधन ,बाजधन
                          और रतन धन खान
                         जब आवै सन्तोष धन
                         सब धन धूरि समान |"
                                                                   अर्थशास्त्रियों की आधुनिक मान्यताओ से संचालित भारत 'रतन धन 'जुटाने में जी जान से लगा हुआ है पर 'सन्तोष धन ' को निरन्तर लुटाये जा रहा है | सामाजिक उत्तरदायित्व से हटकर पथभ्रष्ट पूंजीवादी मनोवृत्तियाँ अनियन्त्रित विलास मार्ग पर भटक रही हैं | यह सन्तोषहीन समृद्धि है ,ये लक्ष्यहीन दौड़ है ,और यह अमानवीय भोग पिपासा है | हमें सुख के भारतीय मूल्यों पर नये पैमाने लागू करने हैं और उन्हें नियम और आचरण के द्वारा ऊपर से लेकर नीचे तक राष्ट्रव्यापी अभियान चलाकर अपनाना है | तीसरी बात है  भारत के संघीय ढाँचे में राज्य इकाइयों की नियंत्रणहीन स्वछन्दता | हर राज्य को संघीय ढाँचे से अलग हटकर एक इकाई के रूप में अपनी सीमाओं में पाये जानें वाले प्रकृति प्रदत्त साधनों के उपयोग का मनमाना अधिकार नहीं दिया जा सकता | यदि इकाइयों के कारण  संघ का आकार सुनिश्चित है तो संघ के ही कारण इकाइयों का अस्तित्व है | जल ,खनिज सम्पदा ,भूमि की उर्वरता और भौगोलिक स्थिति की श्रेष्ठता इन सबको समस्त राष्ट्र के कल्याण के सन्दर्भ में ही सोच विचार कर प्रायोजित करना होगा | ऐसा न करने पर समृद्धि एकांगी हो जायेगी और राष्ट्र विखण्डन का ख़तरा एक भयानक मोड़ ले सकता है | क्षेत्रीय असन्तुलन दूर करके सहयोग और सहअस्तित्व को सर्वोपरि रख हमें जातीय ,क्षेत्रीय और धार्मिक उन्मादों से बचना होगा तभी भारत की आर्थिक प्रगति निचले स्तर पर पलने वाले जन -जीवन में परिलक्षित हो सकेगी | भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों ,जान जातियों और पिछड़ी जातियों को जो संरक्षण दिया गया है उसे सनातन मानने की भूल करना भारत की आर्थिक प्रगति के लिये घातक सिद्ध हो सकता है | सर्वोच्च न्यायालय के विवेकपूर्ण निर्णयों पर सुख भोग और सत्ता भोग की लालसा से अलग हटकर हर राजनैतिक पार्टी को निष्ठा के साथ अमल करना होगा | ऐसा न होने पर जाति संघर्ष को वर्ग संघर्ष में बदल जानें की संम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता | अब जब मानव समानता की मूल धारणा समस्त विश्व में स्वीकृत हो चुकी है तब तक आर्थिक पैमानों से ही ऊंचाई और नीचाई को मापा जाना चाहिये |
                                            नग्न पूंजीवाद का एक  खोखला पक्ष यह भी है कि वह संम्पन्नता की खोखली धारणा प्रस्तुत करता है|  मान लीजिये आप के पास कोई अतिरिक्त पूंजी नहीं है और जीवन यापन के साधन ही हैं | किसी प्रकार आपनें रहने के लिये एक छोटा साफ़ -सुथरा घर बना पाया है | नंगी पूंजीवादी व्यवस्था घर के जमीन की कीमत बढ़ाती रहती है और  आपको छलना भरा भुलावा देती रहती है कि आप इतने लाख के मालिक हो गये | पर आपके वास्तविक जीवन में इस छलावे से कोई भी  अन्तर नहीं आना है | बढ़ती कीमतों की  मार आपका जीवन स्तर घटाती चली जायेगी और आप  प्रचार साधनों से संवर्धित इस मानसिक नशे के आदी हो जायेंगें कि आपके पास बड़ी कीमत की संम्पत्ति है | दरअसल यह दांव पेंच अरब -खरब पतियों के हित के लिये ही चलाये जाते हैं | वही इतने समर्थ होते हैं कि अतिरिक्त भूमि और संसाधनों की अपनी अतिरिक्त पूंजी से अपने कब्जे में ले लें और विकास के नाम पर समाज के वंचित वर्ग को एक लम्बे समय तक शोषण का  शिकार बनाये रखें | गान्धी दर्शन की पूंजी के उपयोग की ट्रस्ट -परक धारणा आज भी अर्थशास्त्रियों को एक नया मार्ग दिखा सकती है |
                                         तो सम्पादक महोदय एक अरब बीस करोड़ की जनता के लिये ,भविष्य में स्थिर जनसंख्या वाले उनके परिवारों के लिये भारत की उर्वरा ,रत्नगर्भा ,खनिज प्रसूती भूमि भरण -पोषण के सभी साधन उपलब्ध करा सकती है | हमारा विशाल समुद्र तट ,समुद्री सम्पदा और भू धरातल पर पनपती फैलती राशि और वनस्पतियां इतनी जनसंख्या के लिये पर्याप्त हो सकती हैं | अगर दो अरब चालीस करोड़ हाँथ नये -नये कौशल अर्जित करने में लग जायें तो भारत की तकदीर बदलनें में अधिक समय लगने वाला नहीं  है और भारतीयों के दिमाग का लोहा तो दुनिया मान ही रही है उसके दोहराने की क्या आवश्यकता है | समुद्र का खारा पानी सिंचाई योग्य बनाकर हमारे काम आ सकता है  राजस्थान की मरिभूमि हमें शस्य शालिनी की कलमें प्रदान कर सकती हैं | जनसंख्या की विशालता हमारा बोझ न बनकर हमारी शक्ति को कई गुना बढ़ा देने के लिये लीवर का काम कर सकती है | भारत मां अब शताधिक कोटि पुत्र -पुत्रियों का दल पाकर मां दुर्गा की भांति भ्रष्टाचार रूपी महिषासुर का संहार कर सकती है |
                 परिवार नियोजन का अर्थ केवल शिशुओं की संख्या को सीमित करना ही नहीं है | यह एक बहुआयामी शब्द युग्म है और इसे आज के वैश्विक सन्दर्भ में नियोजित परिवार के समग्र और सम्पूर्ण वकास के अर्थ में लिया जाना चाहिये | हमारे अतीत में भविष्य द्रष्टाओं द्वारा कही हुयी बातें आज भी कितनी मूल्यवान लगती हैं |
                                  परिवार के लिये व्यक्ति अपना स्वार्थ छोड़ें ,ग्राम के लिये परिवार अपना स्वार्थ छोड़े ,क्षेत्र के लिये ग्राम अपना स्वार्थ छोड़े ,और प्रदेश के लिये क्षेत्र अपना स्वार्थ छोड़े | राष्ट्र का हित प्रदेश के लिये सर्वोपरि हो और अब जो व्यवस्था उभर रही है उसमें विश्व हित के लिये राष्ट्र  हित को छोड़ना होगा | भारत के लिये तो   वसुधैव कुटुम्बकम का नारा सदैव ही प्यारा रहा है | अब बारी आ गयी है गौरांगों और पीतांगों की | सम्पादक महोदय हमारे यह सुझाव अमरीका ,योरोप और चीन तक पहुंचाने का प्रयास करें |
माटी का नियमित पाठक
रामकृष्ण बंसल
          

                             

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