Thursday 14 September 2017

                                               इतिहास के पन्नों से

                डेरियस थर्ड की विशाल सेना सिकन्दर महान के सामरिक कौशल के आगे पस्त -हिम्मत हो गयी | परशियन सेना के हजारों सैनिक काट दिये गये | भगदड़ मच गयी | डेरियस थर्ड युद्ध क्षेत्र छोड़कर अपने रथ में भाग खड़ा हुआ | पहले युद्ध में भी वह भाग चुका था और फिर दोबारा सेना एकत्र कर वह सिकन्दर से लड़ने गया था | इस बार भी वह भगकर बच निकलना चाहता था पर अब उसकी सेना के अपने सिपहसालारों ने ही उसको काट कर फेंक दिया | फारस का साम्राज्य मैसेडोनिया के साम्राज्य का एक हिस्सा बन गया | हिंदुस्तान के पश्चिमोत्तर सीमा के कुछ इलाके परसियन साम्राज्य के कुछ हिस्सा  थे | इन इलाकों से परसियन साम्राज्य को बहुत बड़ा कर और सेना के लिये लड़ाकू जवान मिल जाया करते थे | अब ये सब सिकन्दर के अधिकार में आ गया था | लगभग एक वर्ष तक सिकन्दर महान ने इन सीमान्त इलाकों में शान्ति और व्यवस्था कायम करने में लगाया और फिर हिन्दुकुश को पार कर उसने झेलम के बीच छोटे -मोटे राज्यों को रौंद डाला | अब उसका मुकाबला पोरस (पर्वत राज ) से होना था जिसकी वीरता की गाथायें उसे तक्षशिला से ही सुनने को मिलने लगी थीं | आम्भीक  की विजय के बाद अग्रिम क्षेत्र में भेजे गये उसके जासूसों ने लौटकर उसे बताया था | कि वितस्ता के पार का राजा पोरस एक बहादुर राजा है | और वह कद काठी में भी असाधारण है | यह दूसरी बात है कि वह सिकन्दर से उम्र में काफी बड़ा है पर देखने में वह पुरुषों में राजा ही दिखाई पड़ता है | सिकन्दर महान को जासूसों की इस सूचना ने और अधिक उत्तेजित कर दिया | उसने आज तक कभी पराजय का मुंह ही  नहीं देखा था और उसे आज तक अपने बराबर का  कोई योद्धा भी नहीं मिला था | सिकन्दर उस क्षण की प्रतीक्षा करने लगा जब पोरस से आमना- सामना हो जाय | सुकरात के शिष्य अफलातून (प्लेटो )और अफलातून के शिष्य अरस्तू न केवल यूनान में बल्कि उस समय  की सभ्य कही जानें वाली हर सभ्यता में अपने ज्ञान की अपार विशालता के कारण चर्चित हो रहे थे | अरस्तू का शिष्य सिकन्दर महान उनकी शिक्षा पाकर अपराजेय विजेता बन चुका था | धरती का एक बहुत बड़ा भू -भाग उसके साम्राज्य में शामिल कर लिया गया था | सिकन्दर की सेना लड़ते -लड़ते थक गयी थी और स्वदेश वापसी के लिये आतुर थी पर सिकन्दर था जो विश्व विजेता बनने का सपना पाल रहा था और भारत की विजय इस सपनें का सबसे सुनहरा पक्ष थी | इधर भारतवर्ष में तक्षशिला विश्व विद्यालय में अर्थशास्त्र का एक अध्यापक विष्णु गुप्त चाणक्य भारत विजय का सपना पाले आगे बढ़ते हुये यूनानी विजेताओं को भारत की अदम्य शक्ति का परिचय देने के लिये एक योजना बना रहा था | यूनानी आक्रमण के समय वह तक्षशिला से दूर मगध के पाटिलपुत्र में जा बैठा था और वहां एक अत्यन्त प्रतिभा सम्पन्न नवयुवक को दीक्षित कर रहा था क्योंकि उस नवयुवक के द्वारा ही उसे भारत का एक चमकता हुआ स्वर्णिम इतिहास रचना था | सच पूछो तो यह लड़ाई  अरस्तू की शिक्षा -दीक्षा में पले अलक्षेंद्र और चाणक्य की शिक्षा -दीक्षा में पले चन्द्रगुप्त में होनी थी | पर पोरस विजय के बाद सिकन्दर सेना के दबाव में और सेना नायकों की भयातुरता के कारण वापसी पर चल पड़ा | उसका मगध अभियान पूरा ही न हो सका और इसलिये लगभग उसकी मृत्यु के 7 वर्ष बाद चन्द्रगुप्त को वैक्ट्रिया के सम्राट सिल्यूकस निकेटर से टकराना पड़ा | वैक्ट्रिया का राज्य पहले परसियन साम्राज्य का एक हिस्सा था और अब मैसेडोनियम साम्राज्य का हिस्सा बन गया था | सिल्यूकस सिकन्दर के प्रतिनिधि के रूप में सत्ता अधिकार का उपयोग कर रहा था | भारतीय प्राचीन इतिहास के सामान्य विद्यार्थी भी यह जानते हैं कि पोरष  की सेना की पराजय उसकी कायरता के कारण नहीं वरन सैन्य संचालन में हांथियों और अश्वों की भूमिका के कारण हुयी थी | एक महाकाय हस्ती पर हौदे में बैठा पोरष आतंकित अवश्य कर रहा था पर उसका हांथी सिकन्दर के चपल अश्व के खुराग्रों से विचलित होकर मुड़कर भागने को हुआ | महावत के सारे प्रयासों के बावजूद जब हांथी का सधना सम्भव न हुआ और हांथियों की पूरी कतार उलट कर दौड़ने में अपनी ही फ़ौज को कुचलने लगी तो पोरष हौदे से कूंदकर कृपाण हाँथ में लिये हौदे से नीचे कूंद पड़ा | उसकी पुष्ठ लम्बी काया और उसका रोबीला चेहरा तथा जोश में आकर यूनानी सेना के सैनिकों के बीसों कटे सिर उसके अद्वितीय  वीर होने के गवाही थे | दूर खड़ा सिकन्दर यह सब देख रहा था | घोड़ा बढ़ाकर जबतक वह पोरष के नजदीक आया तब तक पोरष सैकड़ों यूनानी सैनिकों के बीच घेर लिया गया था | उसकी तलवार टूट चुकी थी और केवल मुठ्ठी उसके हाँथ में थी फिर भी कोई यूनानी सैनिक उसके आस -पास पांच छै फ़ीट के घेरे में आने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था | अलक्षेन्द्र ने यह सब देखा ,सैनिकों को चीरता हुआ बीच में आया और अपने अश्व पर से ही उल्टी तलवार की मूठ से पोरष के हाँथ में बंधी टूटी  तलवार की मूठ को झटका देकर गिरा दिया फिर घोड़े से नीचे कूंदकर पोरष के आगे खड़ा हो गया | विशाल काया वाले युद्ध भूमि के अप्रतिम सेनानी दो महानायक आमने -सामने खड़े थे | पोरष यूनानी सैनिकों से घिरा था पर सिकन्दर ने हाँथ उठाकर आघात करने से रोक दिया था | युद्ध भूमि में ही द्विभाषिये को बुलाया गया जो यूनानी भाषा को सिन्धी भाषा में अनूदित कर सकता हो | प्रशंसा भरे नेत्रों से देखते हुये महान अलक्क्षेंद्र ने प्रश्न किया पर्वतराज आपके साथ कैसा व्यवहार किया जाये ? निडर निशंक पोरष ने सिर ऊंचा करके कहा महान विजेता अलक्क्षेंद्र से हमें उसी व्यवहार की आशा है जो एक राजा दूसरे राजा के साथ या एक अपराजित योद्धा दूसरे अपराजित योद्धा के साथ करता है | इस उत्तर को सुनकर अलक्क्षेंद्र के मन में प्रशंसा का भाव उमड़ पड़ा | निश्चय ही पोरष सच्चा वीर है | आत्म विश्वास से परिपूर्ण एक आदर्श राजा | अलक्क्षेंद्र ने फिर कहा पर्वतराज बराबरी का व्यवहार तो तुम्हें मिलेगा ही पर अलक्षेन्द्र से तुम और भी जो चाहो पा सकते हो | मेरे उस्ताद अरस्तू ने ठीक ही कहा था कि सच्चे वीर तो भारत में ही देखने को मिलते हैं | पोरष ने कहा देव पुत्र अलक्क्षेंद्र मैनें राजा से राजा जैसे व्यवहार की बात कही है और मेरे इस वाक्य में ही सब कुछ मांगना शामिल हो जाता है |
                                  अलक्क्षेंद्र ने खिलखिलाकर पर्वतराज की ओर मैत्री का हाँथ बढ़ाया ,विश्व के इतिहास में इन दो मित्रों के विश्वास ,सहयोग और पारस्परिक आदर का जो लेखा -जोखा मिलता है उससे अधिक रोमांचक और प्रभावशाली वीरत्व की गाथा और कहीं सुनने -पढनें को नहीं मिल सकती | भारत में सिकन्दर द्वारा जीते हुये सभी भू -भाग पोरष के राज्य में मिला दिये गये और पोरष को उनके स्वतन्त्र प्रशासन का अधिकार सौंप दिया गया यदि सिन्धु पार कर महान अलक्क्षेंद्र पूर्व की ओर बढ़ता तो भारत का प्राचीन इतिहास कौन सा मोड़ लेता यह कहना अत्यन्त कठिन है | सिकन्दर की सेना का वापस लौटना और वापसी में होने वाले युद्धों की भयानकता और फिर उसके कुछ वर्षों बाद उसकी मृत्यु सभी का विस्तृत विवरण यूनानी इतिहासकारों के पन्नों में सुरक्षित है | और उन पन्नों में यह भी लिखा पाया जाता है कि सिकन्दर की मृत्यु का सबसे बड़ा दुःख उसके भारतीय मित्र पोरष को हुआ जिसके आघात से वह कभी उबर नहीं सका |
                                    अलक्क्षेंद्र महान और उसके उस्ताद अरिस्टोटल दोनों ही विश्व इतिहास के अमर पुरुष हैं | रण विशारदों का यह मत है कि इतिहास पूर्व के मिथिकों ,महाकाव्यो और पौराणिक वृतान्तों को यदि हम अलग कर दें तो मानव जाति के लिखित इतिहास में मैसेडोनिया के शासक फिलिप के पुत्र अलक्क्षेंद्र महान से बड़ा कोई योद्धा धरती पर अवतरित नहीं हुआ है | न केवल व्यक्तिगत शूरता और विजेता होने पर भी विजित के प्रति भी मानवीय भाव बल्कि व्यूह रचना और सैन्य संचालन की तकनीक इन सभी में अलक्क्षेंद्र विश्व का अजेय महानायक बनकर चर्चित हुआ है और अलक्क्षेंद्र के उस्ताद अरिस्टोटल जिन्हें भारतीय अरस्तू के नाम से जानते हैं अपनी बहुमुखी विद्वता के लिये संसार के महानतम ज्ञानियों में शीर्ष स्थान के अधिकारी हैं | दर्शन ,विज्ञान ,समाजशास्त्र  , न्याय व्यवस्था , ललित कला और व्यक्तित्व निर्माण कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसमें अरस्तू ने कोई अमिट छाप न छोड़ी हो | पर जिन दिनों यूनान में अरस्तू के ज्ञान का डंका बज रहा था उन्हीं दिनों भारत में घनी खुली चोटी लिये एक श्याम वर्णी ब्राम्हण एक विशाल भारतीय साम्राज्य की स्थापना के सुद्रढ़ आधार स्तम्भ जुटाने में लगा था | यूनान की टक्कर में भारत कुछ देर के लिये भले ही पराभूत होता दिखायी पड़ा हो पर विश्व गुप्त चाणक्य की आँखें एक दशक के बाद आने वाले उस युग को देख रही थीं जब भारत की सीमायें मगध के पूर्वी सीमान्त पहाड़ियों से लेकर वैक्ट्रिया को घेरते हुये अफगानिस्तान तक पहुँच जायेंगीं | चन्द्रगुप्त का प्रशिक्षण पूरा होने को था और विलक्षण विश्वगुप्त मगध में उथल -पुथल के बीज बो रहा था | आर्य और अनार्य ,लौकिक और अलौकिक ,गगन और धरित्री , वीर और भूमा इन सभी के आदर्श मिलन ने विश्वगुप्त की चिंतना को गढ़ा था | कर्मयोगी चाणक्य का शिष्य चन्द्रगुप्त अरस्तू की विश्वव्यापी ख्याति को चुनौती देकर ज्ञान -विज्ञान में पाये उनके शीर्ष पद को भारत के लिये सुरक्षित करवा रहा था और ऐसा ही हुआ भी | सिकन्दर की मृत्यु के सात वर्ष बाद ही उसका विशाल साम्राज्य वायु की लहरियों पर बीत गये कल का स्वर बनकर लहराने लगा | उसके साम्राज्य के भारत के पश्चिमी सीमान्त से मिले मध्य पश्चिम एशिया के सभी भू भाग मौर्य साम्राज्य में चाणक्य की कूटनीति से संचालित चन्द्रगुप्त की तलवार के बल पर छीन लिये गये | काबुल ,कन्धार ,तक्षशिला में सिकन्दर के साथ आयी कला ,साहित्य और रणकौशल की विचारधारायें और तकनीकें पाटिलपुत्र से आयी हुयी भारतीय चिन्तन और तकनीकों से मिलकर कालजयी श्रष्टियाँ करने लगीं | 137 वर्ष तक चलने वाला विशाल मौर्य साम्राज्य जिसनें अशोक महान जैसे विश्व इतिहास के महानायक को जन्म दिया भारत के अतीत की सबसे गौरव मयी गाथा है | ' माटी ' अपने विज्ञ पाठकों से यह अपेक्षा करती है कि वे प्राचीन भारत के महिमा मण्डित छवि पाने के लिये श्रेष्ठ विद्वानों द्वारा लिखित इतिहास पुस्तकों का अध्ययन करें और यदि उन्हें पुस्तकों के चयन में कोई दुविधा और कठिनाई हो तो वे 'माटी ' के कार्यालय से सम्पर्क साधकर चयन प्रक्रिया को विवेकपूर्ण बनाने का पूरा अधिकार रखते हैं | ' माटी  ' का अस्तित्व ही निष्पक्ष चिन्तन और चिरन्तन जीवन मूल्यों पर आधारित ज्ञान के प्रसारण के लिये है |

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